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हम कानूनहीन समाज हैं!

श्रीश चौधरी स्वतंत्र भारत के शिक्षित समाज ने उड़ायी है कानून की धज्जियां ‘स्वतंत्र भारत के शिक्षित समाज एवं प्रबुद्ध वर्ग ने कानून की जैसी धज्जी उड़ायी है, वह किसी सामान्य स्वस्थ समाज के लिए कल्पना के परे है. उत्तर बिहार के शहर देहात में मैंने सुना है कि 200 या 300 रुपये किलो की […]

श्रीश चौधरी
स्वतंत्र भारत के शिक्षित समाज ने उड़ायी है कानून की धज्जियां
‘स्वतंत्र भारत के शिक्षित समाज एवं प्रबुद्ध वर्ग ने कानून की जैसी धज्जी उड़ायी है, वह किसी सामान्य स्वस्थ समाज के लिए कल्पना के परे है. उत्तर बिहार के शहर देहात में मैंने सुना है कि 200 या 300 रुपये किलो की दर से फेरीवाले काजू बेच जाते हैं. यह जानते हुए भी कि ये रेलवे गोदाम एवं वैगनों से चुराये गये हैं, लोग इसे बिना किसी कुंठा के खरीदते और खाते हैं.
खरीदने खानेवाला यह वर्ग भी शिक्षित मध्यम वर्ग है. यहां प्रोफेसर, डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील एवं पेशागत अन्य सभी लोगों को बिना परिश्रम अधिक आय चाहिए, परंतु अधिक व्यय नहीं. हम किसके लिए कानून तोड़ रहे हैं. अनैतिक एवं अमानवीय काम कर रहे हैं? किसके लिए धन बचा रहे हैं?’ पढ़िए, एक बेबाक टिप्पणी.
मैं श्री रुडयार्ड किपलिंग (1865–1936) को भारत का पहला नोबेल पुरस्कार विजेता मानता हूं. वर्ष 1865 में मुंबई में जन्मे श्री किपलिंग को 1907 में उनकी रचनाओं के लिए साहित्य का पहला नोबेल मिला था. किपलिंग के पिता ब्रिटिश सरकार में ऊंचे पदाधिकारी थे. रुडयार्ड के जन्म के समय मुंबई में काम कर रहे थे. जैसा कि उस समय भारत में रह रहे अंगरेजी परिवारों में सामान्य व्यवहार था, किपलिंग भी एक भारतीय आया की गोद में बड़े हुए थे. स्थानीय भाषा किसी भारतीय बालक की तरह ही सुगमता से बोलते थे. रुडयार्ड पांच वर्ष के हुए, तो शिक्षा के लिए अन्य अंगरेज बच्चों की तरह उन्हें भी इंगलैंड भेजा गया. फिर जब ये 19 वर्ष के हो गये, तो वापस भारत आकर पहले लाहौर एवं बाद में इलाहाबाद में अंगरेजी अखबारों में काम करने लगे.
ऐसा कहा जा सकता है कि किपलिंग ने अपने लेखक जीवन का अधिकांश समय भारत में ही बिताया. भारत में अंगरेजों एवं स्थानीय लोगों के आपसी संबंध, उनके पूर्वाग्रह, अंगरेजों के द्वारा स्थानीय लोगों का शोषण, उनकी यातना एवं विशेषत: मजदूर वर्ग के भारतीय स्त्री-पुरुष के जीवन में जीने की विवशता एवं आम अंगरेजों की असंवेदनशीलताएं भारत में अंगरेजी समाज के स्वयं आपसी अंतरविरोध, बड़े अंगरेजी अधिकारियों द्वारा उनके स्वयं के छोटे अधिकारियों एवं उनके परिवार का शोषण आदि का अपनी कथा, कविता, नाटक में चित्रण जितनी संवेदना एवं ईमानदारी से किपलिंग ने किया है, उतना प्राय: किसी अन्य लेखक ने नहीं किया है.
यदि टैगोर, नायपॉल एवं अन्य निवासी प्रवासी लेखक भारतीय हैं, तो मेरी राय में किपलिंग भी उतने ही भारतीय हैं. फिर भी भारत में किपलिंग का एक प्रकार से मौन बहिष्कार है. कुछ विश्वविद्यालयों के अंगरेजी साहित्य के पाठयक्रम में किपलिंग का उपन्यास ‘किम’ शामिल है, परंतु सामान्यतया उनकी कृतियों की भारत में कोई चर्चा नहीं है. यद्यपि, इधर कुछ भारतीय प्रकाशकों ने उनकी कहानियों के लगभग आधे दर्जन संग्रह प्रकाशित किये हैं. परंतु अभी भी उनकी कविताओं के संग्रह सुगमता से भारत में आम पाठकों को उपलब्ध नहीं हैं.
किपलिंग ने सैकड़ों छोटी-बड़ी कविताएं भी लिखीं. किपलिंग पर उपनिवेशवादी होने के आरोप लगते रहे हैं. उनकी कुछेक कविताओं से इस आरोप के समर्थन में प्रमाण भी दिया जाता है. एक कविता में किपलिंग ने लिखा है, ‘इन जातियों को सभ्य बनाना गोरे लोगों की जिम्मेदारी है (white man’s burden). यहां यह स्पष्ट नहीं है कि ‘इन जातियों’ से किपलिंग का अभिप्राय किन जातियों से है.
जो उन पर उपनिवेशवादी होने का आरोप लगाते हैं, उनका मानना है कि उन्होंने भारत की गैर-यूरोपीय एवं गैर-ईसाई जातियों के लिए ऐसा कहा है. उनके समर्थक कहते हैं कि इस कविता की रचना उन्होंने भारत से अमेरिका की यात्रा के दौरान तब की थी, जब उनका जहाज अंडमान द्वीपसमूह के निकट से निकल रहा था और किपलिंग के मन में इन द्वीपों की आदिम जातियों की चिंता थी.
एक और कविता की एक पंक्ति में उन्होंने ‘कानूनहीन छोटी जातियों’(Lesser breeds without the law) जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया है.
किपलिंग के मन में जो भी रहा हो, मैं पूछना चाहता हूं कि क्या यह हमारे संदर्भ में असत्य है, क्या हम कानून का आदर करते हैं, क्या हम अवसर मिलते ही छोटे-बड़े कानूनों को तुच्छ स्वार्थ एवं क्षणिक सुविधा के लिए नहीं तोड़ देते हैं, क्या हम बिना भय के कानून का आदर करते हैं, आदि.
पहले कुछ बड़े उदाहरण लें. क्यों विश्व के या देश के कुछ भाग स्वच्छ स्थानों की सूची में ऊपर हैं, अन्य स्थान, अन्य शहर नीचे हैं. क्यों मैसूर-बेंगलुरु एवं त्रिचिनापल्ली जैसे शहर भारत के स्वच्छतम शहरों में गिने गये हैं एवं पटना तथा उत्तर भारत के अन्य शहर सर्वेक्षण के 500 शहरों में 430 के नीचे की श्रेणी में आये हैं. ऐसा नहीं है कि मैसूर में ज्यादा पढ़े-लिखे लोग हैं या वहां ज्यादा पानी-हवा है. स्थिति कम से कम पानी के लिए तो उल्टी है. दक्षिण भारत के प्राय: सभी शहरों में पानी की बड़ी कमी है.
इसी प्रकार से व्यापार के लिए उपयुक्त स्थानों की सूची आयी है. भारत में गुजरात का नाम सबसे ऊपर आया है. बिहार 21वें स्थान पर है. ऐसा नहीं है कि गुजरात में प्राकृतिक साधनों की भरमार है. वहां प्राकृतिक साधन के नाम पर पेड़ उगने भर पर्याप्त मिट्टी भी नहीं है.
बिहार में अभी भी झारखंड के अलग हो जाने के बाद भी संपूर्ण भारत को खिलाने योग्य साधन है. तथापि, हम भारत के गरीब राज्यों की श्रेणी में सबसे ऊपर हैं. विश्व के सबसे धनी देश जापान का दो-तिहाई भूखंड ऐसा है, जहां कुछ भी नहीं पैदा होता. तथापि, विश्व के प्राय: हर देश में जापान के उद्योग धंधे, उसकी संपत्ति एवं निवेश लगे हुए हैं.
अमेरिका के खजाने का एक अच्छा अंश जापान की संपत्ति है. 1945 में जापान का शायद एक मकान ऐसा नहीं था, जो दूसरे विश्व युद्ध में टूटा नहीं था. एटम बम जापान के ही शहरों पर गिरे थे और पूरे 10 वर्षों तक अमेरिका का प्रत्यक्ष शासन जापान पर रहा. परंतु बिना संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य हुए ही जापान कई दशकों से विश्व का महाबली (सुपरपावर) है. आधुनिक जापान के विषय में अधिक जानकारी के लिए बीबीसी की पुस्तक (Nippon- the New Super Power) देखें. अभी कुछ वर्षों पहले जापान में सुनामी आया था.
तीन मंजिले मकान की ऊंचाई की समुद्री लहरें आयीं और जापान को जन-धन की भारी क्षति उठानी पड़ी, तथापि जापान को अन्य कहीं से भी राहत कार्य में सहायता नहीं लेनी पड़ी. हालांकि, आग्रह पूरे विश्व से था.
बड़ी बात मेरी राय में यह नहीं थी. बड़ी बात यह थी कि वहां राहत सामग्री, दवा, पानी, कपड़े, कंबल आदि के वितरण में कहीं भी हल्ला-हंगामा, दंगा-फसाद, पक्षपात, जमाखोरी, आदि जैसी कोई अप्रिय घटना नहीं हुई. लोग सामुदायिक भवन की तरह की जो भी चीजेंं बच गयी थी, वहां जमा हुए.
या वैसी जगह अस्थायी तौर पर बना ली गयी एवं पूरी शांति से कुछेक हफ्तों तक राहत का आवश्यक सामान बचे हुए लोगों में बंटा. किसी ने कतार नहीं तोड़ी, लोग धैर्यपूर्वक कतार में जब तक आवश्यकता थी, खड़े रहे. किसी ने कल के लिए छद्म नाम से सामान आज लेकर नहीं रखा.
किसी ने आवश्यकता से अधिक नहीं लिया, किसी ने किसी का अपमान नहीं किया. जो क्षति हुई थी, उसे बिना शोर-शराबे के स्वीकार किया और कुछ दिनों में फिर सामान्य जीवन की ओर बढ़ चले. पर, ईश्वर न करे, हमारे साथ ऐसा हुआ होता, तो मैं इसकी कल्पना करते हुए भी डरता हूं. कुछ वर्षों पहले कटिहार के पास एक पुल से एक रेलगाड़ी नदी में गिर गयी थी.
कुछ लोग मरे, कई घायल हुए. समकालीन रिपोर्टों के अनुसार, स्थानीय लोग हताहत की सहायता करने की जगह उनके पैसे, उनकी घड़ियां आदि छीनने लगे. जापान में मैंने पढ़ा है, सार्वजनिक स्थानों में भी गिरे छूटे बटुए एवं पैसे कोई नहीं उठाता. दो-तीन दिनों तक यदि किसी ने उन्हें नहीं उठाया, तो लोग उसे स्थानीय पुलिस स्टेशन तक पहुंचा देते हैं. हमारे यहां कुछ अपवाद हो सकते हैं, परंतु सामान्यतया ऐसा नहीं है.
मैं यह नहीं कह रहा कि सारे धनी देश रामराज्य के उदाहरण हैं. परंतु, ऐसा अवश्य कह रहा हूं कि अराजक एवं अनुशासनहीन समाज सुखी एवं समृद्ध समाज नहीं हो सकते. हम सुविधानुसार कानून को तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं. भारत का विषेशत: उत्तर भारत का समाज कुछ अधिक ही ऐसा करता प्रतीत होता है.
एक सुपरिचित उदाहरण सार्वजनिक संपत्ति को निजी बनाने की प्रवृत्ति है. हम लाखों का घर बनाते हैं, परंतु कुछ हजार की नालियां नहीं बनाते. सार्वजनिक नाली को भी अपने घर में मिला कर गंदगी एवं असुविधा उत्पन्न कर देते हैं. सड़कों का जितना अतिक्रमण उत्तर भारत के शहर-नगर गांव में हो रहा है, उतना प्राय: कहीं और नहीं. अभी कुछ हफ्तों पहले मैं लहेरियासराय में था.
मुझे बेता चौक से डीएमसी अस्पताल जा रही हॉस्पिटल रोड की एक पुरानी एवं प्रसिद्ध दुकान से दवा लेनी थी. भाग्यवश वह दवा वहां मिल भी गयी. परंतु वहां से बेता चौक पहुंचना एक दुरूह काम था. सामान्य चौड़ाई की इस सड़क के दोनों ही किनारे कुछ इस प्रकार से कार एवं मोटर साइकिलें आदि पार्क की गयी थीं कि दोनों दिशाओं से गाड़ियों का आना-जाना असंभव था.
लगभग एक किलोमीटर की इस सड़क को मैं कुछ टैक्सी में और कुछ पैदल चल कर लगभग एक घंटे में पार कर पाया. परंतु मेरे मन में यह प्रश्न बार-बार उठता रहा कि उत्तर बिहार के इस सबसे पुराने एवं सबसे बड़े अस्पताल तक पहुंचने का एक पुराना अच्छा मार्ग कैसे उपलब्ध नहीं था. वे कौन लोग हैं, जिन्होंने इसकी ऐसी दशा की है. इमरजेंसी में क्या होगा, लोग कैसे अस्पताल शीघ्र पहुंचेंगे. ये डाॅक्टर हैं, कंपाउंडर हैं, निजी जांच घरों के मालिक एवं उनके कर्मचारी हैं एवं चिकित्सा तथा सलाह के लिए गाड़ियों में बैठ कर आनेवाले अधिकतर पढ़े-लिखे लोग ही हैं, जिन्होंने इस सड़क को यातायात के अयोग्य बना दिया है. यही स्थिति कमोबेश ज्यादा पूरे शहर में है एवं सभी शहरों में हैं.
पुलिस कितना ठीक करेगी. लंदन जैसे बड़े शहर को 864 पुलिसकर्मी चलाते हैं, परंतु लगभग उतनी ही बड़ी दिल्ली को 74,000 पुलिसकर्मी उतना सुरक्षित नहीं रख पाते हैं. यदि हम स्वयं कानून की मर्यादा नहीं रखते हैं, तो कितने भी पुलिसवाले हमारी रक्षा नहीं कर पायेंगे.
महाभारत में कहा गया है कि हम धर्म की रक्षा करेंगे, तभी धर्म हमारी रक्षा करेगा. क्या हम धर्म की रक्षा करते हैं?भारत जब स्वतंत्र हुआ, तो बिहार सुशासनवाले प्रदेशों की सूची में ऊंचे स्थान पर था. पुराने आइएएस पदाधिकारी कहते हैं कि उन दिनों बिहार उन लोगों का पसंदीदा राज्य हुआ करता था. पटना विषेशत: गांधी मैदान के पश्चिम का भाग, दरभंगा के दरभंगा राज का भाग, संपूर्ण गया शहर जहां समान दूरी पर चौड़ी साफ-सुथरी सड़कों से घिरे बड़े-बड़े तालाब बनाये गये थे एवं इन तालाबों के बीच हरे-भरे पार्क बनाये गये थे.
ये सभी सुरुचि एवं सौंदर्य के विश्व स्तर पर खरा उतरनेवाले स्थान थे. पर स्वतंत्रता के बाद जो अराजकता यहां फैली, उसमें वास्तु एवं स्थापत्य कला की इन सुंदर कृतियों का भी अंत हो गया. गया के तालाब गंदगी से घिर गये, भर गये. दरभंगा-पटना का भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ.
दरभंगा के राजप्रासाद एवं पेड़-पार्कों के साथ वह पूरा भू-खंड संस्कृत एवं मिथिला विश्वविद्यालयों को दिये गये. कहा जाता है कि किसी कुलपति ने आम जनता के लिए इन विश्वविद्यालय परिसरों को सुगम बनाने के लिए इनकी चहारदिवारी के कुछ अंश तोड़ दिये.
सामान्य व्यक्ति इससे विश्वविद्यालय के कितना निकट हुए यह तो पता नहीं है, परंतु परिसर सूअरों मवेशियों आवारा कुत्तों तथा अन्य अनधिकृत जीवों एवं गंदगी से भर गया. पान की थूक से रंगे वास्तुकला के उन अतुलनीय धरोहरों को देखते मन मे यही प्रश्न उठता है कि क्या यह स्थान सत्य ही कानून की मर्यादा रखनेवाले लोगों की कर्मभूमि हैं.
हमारे तीर्थों की भी ऐसी ही स्थिति है.
हरिद्वार, मथुरा, काशी आदि के घाटों पर छोड़े गये आलू पूड़ी के पत्तों ने वहां बह रही गंगा, यमुना को स्नान योग्य भी नहीं छोड़ा है. बिजली-पानी के लिए हमने नदियों का प्रवाह तो बंद कर दिया है, परंतु नदी में मल-मूत्र, प्लास्टिक, रासायनिक एवं अरासायनिक गंदगी फेंकना नहीं बंद किया है. स्वतंत्र भारत के शिक्षित समाज एवं प्रबुद्ध वर्ग ने कानून की जैसी धज्जी उड़ायी है, वह किसी सामान्य स्वस्थ समाज के लिए कल्पना के परे है. उत्तर बिहार के शहर देहात में मैंने सुना है कि 200 या 300 रुपये किलो की दर से फेरीवाले आकर काजू बेच जाते हैं और यह जानते हुए भी कि ये रेलवे गोदाम एवं वैगनों से चुराये गये हैं, लोग इसे बिना किसी कुंठा के खरीदते और खाते हैं.
खरीदने खानेवाला यह वर्ग भी शिक्षित मध्यम वर्ग है. यहां प्रोफेसर, डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील एवं पेशागत अन्य सभी लोगों को बिना परिश्रम अधिक आय चाहिए, परंतु अधिक व्यय नहीं. हम किसके लिए कानून तोड़ रहे हैं, अनैतिक एवं अमानवीय काम कर रहे हैं. किसके लिए धन बचा रहे हैं.
अभी कुछ वर्षों में राज्य तथा केंद्र सरकारों ने शहर तथा गांवों के गरीब वर्ग के लोगों के लिए एवं सरकारी विद्यालयों में पढ़नेवाले बच्चों के लिए कुछ सहायता एवं सुविधाएं उपलब्ध करायी हैं. भोजन सुरक्षा अधिनियम के अंदर गरीब लोगों को अनाज व पैसे तथा स्कूली बच्चों को किताबें-कपड़े तथा ऊंची कक्षा की लड़कियों को साइकिलें दी गयी हैं. अब शौचालय भी बन रहे हैं.
परंतु, ऐसे आरोप हैं कि अपेक्षाकृत संपन्न वर्ग के लोगों ने भी इन सुविधा सहायता योजनाओं का लाभ लिया है. कई लोगों ने सरकारी सहायता तो ले ली है, परंतु वह काम नहीं किया, जिसके लिए उन्हें सहायता मिली थी. कर्मचारियों एवं राजनेताओं के समूह में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानियां अब नयी नहीं रह गयी है. पेशेगत वर्ग, जैसे कि प्रोफेसर, डाॅक्टर, इंजीनियर, अकाउंटेंट आदि में भी अतिरिक्त आय की चाह ने कानूनहीनता को बढ़ावा दिया है.
अब जब आम जनता तक कानून का आदर छोड़ रही है, तब एक बड़ा सवाल उठता है कि हम कैसे स्वच्छ भारत-सशक्त भारत बना सकते हैं? क्या ‘कानूनहीन छोटी नस्लें’ जैसा किपलिंग ने कहा, सशक्त समाज बन सकती है? क्या हमें कानून से चलना सिखाना गोरों की जिम्मेदारी है? हमें अपने आप से पूछना चाहिए.
(लेखक जीएलए यूनिवर्सिटी, मथुरा में इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड साइंस एंड ह्यूमैनिटीज में डिश्टिंग्विश्ड प्रोफेसर हैं.)
(जीएलए यूनिवर्सिटी, मथुरा में दिये गये एक व्याख्यान का संशोधित अंश)

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