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चुनाव में उतरतीं नयी-नयी पार्टियां

बिहार के हर चुनाव में नयी-नयी पार्टियां चुनाव मैदान में दस्तक देती हैं. पार्टियां बनती हैं और कुछ समय बाद बिखर जाती हैं. कुछ समय बाद वे नया आकार ग्रहण करती हैं. यह क्रम लगातार चल रहा है. विधानसभा के पहले आम चुनाव से लेकर बीते चुनाव के दौरान पार्टियों के बनने व बिखरने की […]

बिहार के हर चुनाव में नयी-नयी पार्टियां चुनाव मैदान में दस्तक देती हैं. पार्टियां बनती हैं और कुछ समय बाद बिखर जाती हैं. कुछ समय बाद वे नया आकार ग्रहण करती हैं. यह क्रम लगातार चल रहा है.
विधानसभा के पहले आम चुनाव से लेकर बीते चुनाव के दौरान पार्टियों के बनने व बिखरने की दिलचस्प प्रक्रिया देखी जा सकती है. इस साल होने वाले चुनाव में भी कई नयी पार्टियां वोटरों के सामने दस्तक देंगी. नयी-नयी पार्टियों के बनने की कई वजहें हो सकती हैं.
राजनीतिक दायरे का जैसे-जैसे विस्तार होता जा रहा है, वैसे-वैसे सामाजिक इकाइयां अपनी उसमें हिस्सेदारी चाहती हैं. राजनीतिक पहचान के लिए राजनीतिक दल का गठन अनिवार्य पहलू है. 2010 के विधानसभा चुनाव में 72 रजिस्टर्ड पार्टियों ने अपने उम्मीदवार उतारे थे जो रिकार्ड है. पढ़िए, नयी-नयी पार्टियों के बनने-बिखरने पर आधारित यह रिपोर्ट.
अजय कुमार
बिहार विधानसभा के चुनाव में अलग-अलग झंडों और नारों के साथ उतरने वाली राजनीतिक पार्टियों की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. पहले आम चुनाव में जहां चुनाव मैदान में केवल 16 पार्टियां वोटरों के सामने थीं, तो 2010 में उनकी संख्या बढ़कर 90 हो गयी. पार्टियों की संख्या के लिहाज से पिछला विधानसभा चुनाव रिकार्ड साबित हुआ. अब तक हुए 15 चुनावों में राजनीतिक पार्टियों की संख्या कम-बेसी होती रही है. 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव में केवल 6 राजनीतिक दलों के उम्मीदवार चुनाव मैदान थे. यह अब तक के चुनाव की सबसे कम संख्या है.
राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय पार्टियों की संख्या को देखें, तो उसमें अप्रत्याशित इजाफा नहीं हुआ है. पर रजिस्टर्ड पार्टियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है. 1951 के पहले आम चुनाव में जहां रजिस्टर्ड राजनीतिक दल की संख्या एक थी, वह 2005 में बढ़कर 40 पर पहुंची और उसके बाद 2010 में 72 हो गयी. चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 1995 के बाद से अब तक रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों की संख्या में क्रमिक रूप से इजाफा होता जा रहा है.
अभिव्यक्त करने का चलन बढ़ा
राजनीतिक जागरूकता बढ़ी, तो पार्टियों की संख्या भी बढ़ गयी. नये-नये राजनीतिक दलों के बनने का बड़ा कारण उस समूह या समुदाय की राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी से जुड़ा हुआ है.
उस समूह को ऐसा लगता है कि मौजूदा राजनीतिक ढांचे में उसे हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही है या उसकी आवाज नहीं सुनी जा रही है. अपनी इस उपेक्षा को दूर करने की गरज से वह समूह एक राजनीतिक दल का गठन कर लेता है. यह कदम उसकी पहचान से भी जुड़ा होता है. यह जरूरी नहीं है ये पार्टियां लंबे समय तक राजनीतिक पटल पर बनी रहें. एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक इनमें से कई मिट जाती हैं और उसकी जगह कोई नया दल आ जाता है. दल बनते हैं, मिटते हैं और फिर नये-नये रूपों में सामने आते हैं. रजिस्टर्ड दलों के बनने के कई वजह है और इसका कोई इकलौता कारण भी नहीं है.
नाम में बहुत कुछ रखा है
राजनीतिक दलों के नाम से उसके बनने की पृष्ठभूमि का अंदाजा लगाया जा सकता है. इससे पता चलता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होकर छोटी-छोटी सामाजिक इकाई अपनी आकांक्षाओं को पूरा करना चाहती हैं और इसके लिए राजनीतिक दल से बेहतर माध्यम दूसरा कुछ नहीं हो सकता है. पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान चुनाव मैदान में उतरी राजनीतिक पार्टियों में से कुछ के नाम को देखने से उनके बनने की प्रक्रिया का अंदाजा मिल सकता है.
मसलन, अखिल भारतीय पिछड़ा संघर्ष मोरचा पार्टी, अखिल भारतीय अशोक सेना, अखिल भारतीय देशभक्त मोरचा, अखिल भारतीय हिंद क्रांति पार्टी, अखंड भारत समाज पार्टी, ऑल इंडिया बाबू जगजीवन राम साहेब नेशनल कांग्रेस, अल्पजन समाज पार्टी, अखिल भारतीय मिथिला पार्टी, गरीब विकास पार्टी और ऐसे ही और दल. इन दलों के नाम से जाहिर है कि वे खास समूह या खास विचार पर आधारित हैं.
लाल मोरचा और लोक सेना नाम से भी राजनीतिक पार्टियां बनीं और उसके उम्मीदवार भी चुनाव मैदान में उतरे.पहला आम चुनाव में पार्टियों के नाम के पीछे जहां विचार की प्रधानता देखने को मिलती है, वह अब सामाजिक इकाइयों की आकांक्षा के रूप में अभिव्यक्त हो रही है. इसका यह भी संकेत है कि लोकतंत्र के प्रति उन इकाइयों का झुकाव बढ़ा है, जो इस प्रक्रिया से अब तक दूर रही थीं.
1951 के आम चुनाव में ये थीं पार्टियां
बिहार में हुए विधानसभा के पहले आम चुनाव में 16 पार्टियों के उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे थे.इनमें 11 राष्ट्रीय पार्टियां थीं और चार राज्य पार्टियां. एक रजिस्टर्ड पार्टी थी. उस चुनाव में राष्ट्रीय पार्टियां ये थीं: ऑल इंडिया भारतीय जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, फारवर्ड ब्लॉक (मार्क्‍सवादी ग्रुप), फारवर्ड ब्लॉक (रूइकर ग्रुप), अखिल भारतीय हिंदू महासभा, इंडियन नेशनल कांग्रेस, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, अखिल भारतीस रामराज्य परिषद, रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, ऑल इंडिया शेडय़ूल कास्ट फेडरेशन और सोशलिस्ट पार्टी. राज्य पार्टियां थी: छोटानागपुर और संथालपरगना जनता पार्टी, झारखंड पार्टी, लोकसेवक संघ, ऑल इंडिया युनाइडेट किसान सभा, जबकि रजिस्टर्ड एकमात्र पार्टी थी ऑल इंडिया गणतंत्र परिषद.
पार्टियां बढ़ीं और निर्दलीय भी
एक तरफ जहां अलग-अलग सामाजिक समूह अपनी हिस्सेदारी की चाहत के लिए राजनीतिक प्लेटफार्म बना रहे हैं, तो दूसरी ओर चुनाव में उतरने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की तादाद भी बढ़ती जा रही है. राजनीति के जानकारों का मानना है कि व्यक्तिवादी राजनीति के विस्तार का यह असर है.
व्यक्ति आधारित राजनीतिक ढांचे में शामिल होकर लोग अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा हासिल करना चाहते हैं. 1951 के चुनाव में जहां 638 निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे, 2010 के चुनाव में उनकी संख्या बढ़कर 1342 हो गयी. चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों की बढ़ती फौज को कम करने के लिए जमानत राशि में इजाफा किया है. पर आयोग का यह उपाय भी उम्मीदवारों की संख्या नियंत्रित करने में कारगर साबित नहीं हो रहा है.
इस चुनाव में भी होंगी नयी पार्टियां
नयी पार्टियों के लिहाज से 2015 का चुनाव अपवाद नहीं होने जारहा है.राष्ट्रीय लोक समता पार्टी विधानसभा का पहला चुनाव लड़ने जा रही है. इस पार्टी का गठन लोकसभा चुनाव के पहले किया गया था.
पहली ही बार में इसके तीन सांसद लोकसभा में पहुंचे.राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के नेतृत्व में हिन्दुस्तान अवाम मोरचा नामक नयी पार्टी बन चुकी है तो पूर्व सांसद साधु यादव ने भी गरीब जनता दल सेक्यूलर नाम से नया दल बनाया है. पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि ने समरस समाज पार्टी बनायी है. राजद से बाहर हुए सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव जन अधिकार पार्टी बनायी है.
हार के बावजूद पस्त नहीं हुए
चुनावों में हार के बावजूद पार्टियों का बनना और उम्मीदवारों का उतरना कम नहीं हो रहा है. चुनाव आंकड़ों के अनुसार रजिस्टर्ड पार्टियों के ज्यादातर उम्मीदवारों को न सिर्फ पराजय का सामना करना पड़ता है, बल्कि उन्हें जमानत राशि भी गंवानी पड़ती है. इसके बावजूद पार्टियां बनती हैं और वे खुद को अपने सामाजिक आधारों के साथ अभिव्यक्त करती हैं.
पार्टियों को इस बात से वास्ता होता है कि वे अपनी पहचान के लिए चुनाव का किस हद तक इस्तेमाल कर सकीं. जाहिर है कि इन राजनीतिक पार्टियों के पीछे खड़ी सामाजिक शक्तियां हाशिए पर रही हैं. छोटी-छोटी पार्टियों के बनने के पीछे, अवधारणा के स्तर पर हस्तेक्षप की भावना भले कारगर न हो, पर वे अपने आधारों को आकर्षित करती हैं. विभिन्न परतों और खांचे में बंटे सामाजिक व्यवस्था में पार्टियों का बनना-बिखरना अप्रत्याशित भी नहीं है.
वर्ष नेशनल राज्य रजिस्टर्ड
1951 11 04 01
1957 04 – 02
1962 09 – –
1967 08 – 01
1969 07 04 10
1972 07 05 10
1977 04 02 08
1980 10 02 07
1985 07 03 03
1990 08 05 23
1995 07 09 38
2000 08 12 31
2005 06 04 40
2010 06 03 72

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