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भारतीय राजनीति व जेपी का रास्ता

लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आज जन्मदिन ।।प्रो आनंद कुमार, समाजशास्त्री।। भारतीय समाज में राजनीति को लेकर आशावादी दृष्टिकोण की एक शताब्दी पुरानी परंपरा है. हमारे राजनीतिक कार्यकर्ताओं, संगठनों, आंदोलनों और नेताओं ने ही देश को विदेशी गुलामी और परस्पर फूट, दोनों से बाहर निकालने में समाज को दिशा दी. आजादी के बाद से ही हम […]

लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आज जन्मदिन

।।प्रो आनंद कुमार, समाजशास्त्री।।

भारतीय समाज में राजनीति को लेकर आशावादी दृष्टिकोण की एक शताब्दी पुरानी परंपरा है. हमारे राजनीतिक कार्यकर्ताओं, संगठनों, आंदोलनों और नेताओं ने ही देश को विदेशी गुलामी और परस्पर फूट, दोनों से बाहर निकालने में समाज को दिशा दी.

आजादी के बाद से ही हम अपने समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के जनतांत्रिक नवनिर्माण में जुटे हैं. आज अर्थव्यवस्था की तुलना में राजनीतिक व्यवस्था में होनेवाली गड़बड़ियों को लेकर समाज ज्यादा उद्विग्न हो रहा है.

कालेधन की अर्थव्यवस्था की तुलना में काली करतूतोंवाले लोगों के बूते चल रहे शासन और विधानसभा लोकसभा में उनकी मौजूदगी से देश को ज्यादा परेशानी महसूस होती है. दूसरे शब्दों में राजनीति लोकतंत्र और सामाजार्थिक न्याय की तरफ बढ़ रहे समाज का मूल आधार जैसी है.

इसीलिए गांधी ने सत्य और ईश्वर की तलाश के लिए राजनीतिक भूमिका को भी अनिवार्य माना. लोहिया तो राजनीति को अल्पकालीन धर्म और धर्म को दीर्घकालीन राजनीति जैसा असाधारण विशेषण दे चुके हैं. उनका मानना था कि राजनीति बुराई और अन्याय से लड़ने का माध्यम है और धर्म अच्छाई की प्रशंसा महत्ता स्थापित करने का काम करता है.

बिना बुराई से लड़े अच्छाई कहां से बच पायेगी? इसी क्रम में आजादी और जनतंत्र के शुरुआती 25 बरसों के अंत में राजनीति में बढ़ती बुराइयों को देख कर घबराये लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इसे सुधारने के लिए दलों के दायरे से ऊपर उठ कर सक्रिय नागरिकों की एकजुटता और बदलावकारी आंदोलन की ऐतिहासिक कोशिश की थी.

आज राजनीति में बुराइयों से लड़ने की क्षमता घटती जा रही है. कुछ लोग, विशेष तौर पर नयी पीढ़ी के पढ़ेलिखे युवकयुवतियां, तो राजनीति को ही बुराइयों की मां मानने लगे हैं! इस समझदारी के बारे में देश को सतर्क होने की जरूरत है, क्योंकि लोकतांत्रिक राजनीति के प्रति आश्वस्त और आस्थावान हुए बिना हम राष्ट्रनिर्माण की अगली सीढ़ियां नहीं चढ़ सकते.

गरीब की आह का असर बाजार और देवालय की तुलना में राजनीति पर ज्यादा जल्दी और बुनियादी होता है. और देश में अब भी हर तीसरा व्यक्ति बेहद गरीब है और हर दूसरे घर में रोजीरोटी, कर्ज और बीमारी को लेकर चिंताओं का बड़ा पहाड़ मौजूद है. नवदौलतिया जमातों का राजनीति के प्रति उदासीन होना समझ में आता है, क्योंकि उनका सुख और समृद्धि का स्नेत उदारीकरण और भूमंडलीकरण से जुड़ा बाजारवाद है.

विदेशों में रोजगार में जुटे लोगों के परिवारों का भी देश की नीतियों से ज्यादा डॉलर और रियाल से जुड़े मसलों के बारे में सजग रहना भी समझदारी की ही बात है. लेकिन हमारे देश के तीस बरस से नीचे की आबादी का राजनीति के बारे में नासमझी का रुख अपनाना लोकतांत्रीकरण के घटते आकर्षण का नतीजा है.

इस माहौल में हम अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की खुली बुराइयों की देशभक्ति के नाम पर अनदेखी नहीं कर सकते. इनको पनपने देने का पाप तो आज के जागरूक युवकयुवतियां कभी नहीं बरदाश्त करेंगे.

इसीलिए 1974 के अटके हुए राजनीतिक सुधारों को 2014 के आम चुनाव का मुद्दा बनाना समय की मांग हो चुका है. पहले सुधार के रूप में मतदान की कतारों में लगे नाराज मतदाताओं की पुकार को सर्वोच्च न्यायालय मंजूर भी कर चुका है. इससे चुनाव और पार्टियों के टिकट में असामाजिक तत्वों का हस्तक्षेप कम होगा, लेकिन अभी चुने जाने के बाद गैरजिम्मेवार रहनेवाले जनप्रतिनिधियों की वापसी का इंतजाम करना बाकी है.

चुनाव को कालेधन से प्रदूषित करनेवाले देशीविदेशी ताकतों के अदृश्य तानेबाने को तोड़ने के लिए जनता के टैक्स से चुनाव की व्यवस्था का सीधा रास्ता पकड़ने की जरूरत है. फिर पार्टियों के कामकाज को खुला और साफसुथरा बनाने के लिए भी मतदाताओं के ही खाते से धन की व्यवस्था करके नीति और राजनीति के कमजोर हो रहे रिश्ते को फिर से स्वस्थ बनाना है. इससे लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का पहला बड़ा कदम पूरा होगा.

इन सुधारों से जनता मतदाता के रूप में फिर से राजनीति की धुरी बन सकेगी. यह अस्मिता की राजनीति की आड़ में पनप रही सांप्रदायिकता, जातिवाद और अलगाववाद की विष बेलों की जड़ों को कमजोर करेगा. जब हम अस्मिता की राजनीति की भूलभुलैया से निकल कर अस्तित्व रक्षा की राजनीति के जनपथ की ओर बढ़ेंगे, तभी आर्थिक और सामाजिक नवनिर्माण के रुके हुए कामों में हाथ लग पायेगा.

पिछले बीस बरस का भोगवादी वैश्वीकरण जनसाधारण के सामने बेपरदा हो चुका है. जब इस अर्थनीति से अमेरिका का ही भला नहीं हो पा रहा है, तो बीस रुपये रोज से कम की खरीद क्षमता वाले 80 करोड़ भारतीयों का इसके बारे में कोई मोह कैसे बचेगा!

राजनीतिक विकेंद्रीकरण का राजीव गांधी का प्रयास राज्यस्तरीय सत्ता प्रतिष्ठान के कारण आधाअधूरा रह गया है. जयप्रकाश नारायण द्वारा सुझायी राजनीतिक पुनर्रचना की ओर आगे बढ़े बिना सुशासन का हमारा सपना अधूरा ही रहेगा. दूसरे शब्दों में अब देश की जनता केंद्र और राज्य सरकारों की बजाय जिला सरकार और गांव तथा मुहल्ला सरकारों के जरिये अपना भाग्यविधाता बनने को बेचैन है.

राजीव गांधी वाले पंचायती राज से सत्ता का विकेंद्रीकरण कम और भ्रष्टाचार का विकेंद्रीकरण ज्यादा हुआ है. जेपी द्वारा सुझायी गयी राज्य पुनर्रचना से सहभागी लोकतंत्र और सरोकारी नागरिकता की जरूरतें पूरी होंगी.

जब राजनीतिक व्यवस्था को दबंग जातियों और असामाजिक तत्वों की दोहरी जकड़ से आज के भगीरथ यानी नयी पीढ़ी मुक्ति दिला लेंगे, तब जाति और लिंगभेद के कठघरों में बंद और बंटी हुई भारतीय लोकशक्ति अपनी संपूर्ण सुंदरता के साथ खिल सकेगी. आज सामाजिक न्याय की आड़ में हर जमात में मुट्ठी भर लोगों के हिस्से कुछ अवसर और कुछ ताकत जरूर आयी है, लेकिन निराश और वंचित भारतीयों के लिए दुनियावी बदलाव की नयी रणनीति की जरूरत है.

इसका कुछ संकेत जेपी ने नक्सलवादियों के प्रतिउत्तर में मुशहरी प्रयोग के जरिये उत्तर बिहार में प्रस्तुत किया था. फिर संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान बिहार के नवनिर्माण का एक घोषणापत्र पेश किया था. अब उसी तर्ज पर जेपी की राह के अगले पड़ाव के रूप में खेती, हथकरघा उद्योग, छोटी मशीनों से पैदा की जा सकनेवाली चीजों और स्टील, अल्यूमीनियम से लेकर कंप्यूटर और चिकित्सा के सूक्ष्मतम उपकरण बनानेवाले कलकारखानों के तानेबाने की प्रतीक्षा में देश अधीर हो रहा है.

क्या हम आशा करें कि आत्मसाक्षात्कार के दौर से गुजर रहा यह देश फिर से जेपी की दिखाई दिशा अर्थात सक्रिय नागरिकता और विकेंद्रीकरण के आधार पर सुधारी गयी राजव्यवस्था के संयोग से अपने और अपने आसपड़ोस के देशों के नवनिर्माण की प्रक्रिया को प्रबल बनाने का साहस जुटा पायेगा? या निगरुण नाराजगी में उलझा रहेगा और बारबार धोखा खाने के बावजूद नाकारा साबित हो चुके नेताओं और दलों को ही देश के भविष्य के साथ खेल करने के लिए यथावत बनाये रखेगा!

चुने जाने के बाद गैरजिम्मेवार रहनेवाले जनप्रतिनिधियों की वापसी का इंतजाम करना बाकी है. चुनाव को कालेधन से प्रदूषित करनेवाली देशीविदेशी ताकतों के अदृश्य तानेबाने को तोड़ने के लिए जनता के टैक्स से चुनाव की व्यवस्था का सीधा रास्ता पकड़ने की जरूरत है.

फिर पार्टियों के कामकाज को खुला और साफसुथरा बनाने के लिए भी मतदाताओं के ही खाते से धन की व्यवस्था करके नीति और राजनीति के कमजोर हो रहे रिश्ते को फिर से स्वस्थ बनाना है. इससे लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का पहला बड़ा कदम पूरा होगा.

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