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– हरिवंश – प्रभाष जी की भौतिक काया, न रहने का सदमा घटा नहीं. सच है कि बढ़ा और गहराया ही. भवानी प्रसाद मिश्र के न रहने पर फरवरी, 1985 में प्रभाष जी के लिखे लेख की एक पंक्ति अक्सर याद आती रहती है. ‘उनके जाने की खबर के संदर्भ से मैं उबरा हूं’ उन्हीं […]

– हरिवंश –

प्रभाष जी की भौतिक काया, न रहने का सदमा घटा नहीं. सच है कि बढ़ा और गहराया ही. भवानी प्रसाद मिश्र के न रहने पर फरवरी, 1985 में प्रभाष जी के लिखे लेख की एक पंक्ति अक्सर याद आती रहती है.

‘उनके जाने की खबर के संदर्भ से मैं उबरा हूं’ उन्हीं की (भवानी प्रसाद मिश्र) एक पंक्ति के कारण ‘जब भी ऐसे काले क्षण आये, मैंने अपने से कहा कि रे, उठ भाई भवानी’. इस लाइन के हथियार से मैंने अपने सारे काले क्षण काटे हैं.’

इसे बार-बार याद करने और उनके प्रिय कुमार गंधर्व को सुनते रहने के बाद भी प्रभाष जी की अनुपस्थिति से उत्पन्न काले क्षण बढ़े ही. हर घटना, मुद्दे और चुभते सवालों पर लगता है कि वह होते, तो क्या नयी चीज बताते? उनका मौलिक स्टैंड क्या होता? युवा साथियों या अपने से कम उम्र के साथियों के पीछे कैसे खड़े होते? पूरी ताकत से.

अपना श्रेय भी उन्हें ही देते. यह गांधी परंपरा की देन रही है कि युवा साथियों या अपने सहकर्मियों को लगातार अवसर देना. आगे बढ़ाना. हौसला बढ़ाना. गांधी युग के इस एप्रोच या दर्शन को आधुनिक प्रबंधन (बाजार), ‘मेंटरिंग’ (एक तरह का अभिभावकत्व) कह कर परिभाषित करता है. पर यह तो भारत में पहले से रहा है. प्रभाष जी में भी यह स्वाभाविक और सहज रूप में था. आज की मीडिया (अन्य क्षेत्रों में भी) में ऐसे ‘मेंटर’ घटते गये हैं.

पत्रकारिता में तो उस पीढ़ी की वह अंतिम कड़ी थे. इस निजी स्वार्थ से भी उनकी स्थिति पग-पग पर दुख देती है कि हमने या हमारे जैसे अनेक पत्रकारों ने अपना मेंटर खो दिया? ‘मेंटर’ महज बौद्धिक नहीं, हर सुख-दुख और संकट में जिस पर साबूत भरोसा था. वह मित्रों-साथियों की पीड़ा खुद ओढ़ लेते थे. जिस इंसान ने कभी अपनों-सगों के लिए किसी से कुछ नहीं कहा, वह मित्रों के हर सही काम में अपनी पूरी ताकत-सक्रियता से खड़ा रहता था.

2006 में प्रभात खबर के बिकने का माहौल था. कह नहीं सकता प्रभाष जी की चिंता, प्रयास और सुझावों के बारे में. आज बाजार की दुनिया में जिस ‘इनोवेशन’ और ‘विजन’ के जादुई चमत्कार का खेल चल रहा है, वह खांटी और देशज रूप में उनमें था. उनकी हर बात, सुझाव, संस्थाओं को गढ़ने के सपने और अपनी टेक पर संघर्ष की बातें, नितांत मौलिक, कारगर और प्रभावी होती थीं.

टटका और खांटी. आज जिन लोगों में इस ‘विजन’ या ‘इनोवेशन’ का पासंग या छटांक नहीं है, वे करोड़ों-अरबों में खेल रहे हैं. पर वह तो प्रतिभा की पुंज थे. पर पवित्र. कारोबार-धंधे की तिजारत से दूर. यह उनमें ईश्वरीय या दैवीय आभा थी. उनकी बौद्धिक संपदा का स्त्रोत सात्विक था. इस देश की मिट्टी-आबोहवा से उपजी. गांधी-विनोबा का छाप, पर इससे भी ऊपर भारत की हजारों वर्ष की उदात्त परंपरा की कड़ी.

वह समूह, भीड़ और समाज के आदमी थे. उदारीकृत अर्थव्यवस्था के खिलाफ, उनकी धारदार बातें और अंदर से उपजा उनका आक्रोश, अयाचित नहीं थे. इस अर्थव्यवस्था के गर्भ से पनपा-पला समाज आत्मकेंद्रित ही होता है. खुदगर्ज. अपने-अपने परिवार या निजी स्वार्थ तक सीमित.

इस अर्थ प्रणाली की नींव पर सामूहिक कल्याण और वसुधैव कुंटुंबकम की दीवार ठहर ही नहीं सकती. भारत की सभ्यता-संस्कृति बची रही, क्योंकि उसने समूह की बात की. संसार की चर्चा की. सर्वमंगल, सर्वजन हिताय की चिंता की. उसने उदार ॠषियों की बातों में जीवन का ऊर्जा भंडार ढूंढ़ा . प्रकाश भी.

प्रभाष जी के साथ की यात्राएं, अब स्मृति की पावन धरोहर है. इसलिए नहीं कि वह भेंट-मुलाकात में जिस अपनत्व, गर्मजोशी और सहजता से मिलते थे, वह आज के वणिक होते समाज में दुर्लभ है.

उनके साथ की यात्राएं यादगार हैं, क्योंकि उन्हें सुनना, मेरे जैसे लोगों के लिए रोशनी से रूबरू होने जैसा था. एक बार ट्रेन यात्रा में, फिर गाड़ी में उनसे विनोबा के बारे में विस्तार से सुनना चाहा. विनोबा के जीवन-व्यक्तित्व के जो शब्द उनसे सुने, मन भर आया. जिसे हम युवा (1976) इमर्जेंसी के समर्थक मानते थे, वे कैसे भारत के ॠषियों की परंपरा की अंतिम कड़ी थे. प्रभाष जी को सुनकर ही हमने विनोवा साहित्य (22 खंड) मंगाया. ज्ञान का खान. पर आज आधुनिक होता समाज, अपने अतीत के सत्व से कहां पहचान रखता है?

वह साठ वर्ष के हो रहे थे. षष्टीपूर्ति पर उनकी कर्मभूमि, शुरुआती संघर्ष और सपनों की नगरी इंदौर में आयोजन था. तब रांची से इंदौर जाना टेढ़ा रास्ता था. रतजगा आयोजन. अब भी याद है. रात 12 बजे कोडरमा से एक ट्रेन मिलती थी. कलकत्ता से चलकर इंदौर जानेवाली. लगभग 32 घंटों बाद पहुंचा. ट्रेन विलंब से थी. रास्ते में ही बुखार-सर्दी से आक्रांत हो गया. उस आयोजन की एक-एक बातें याद हैं. किस तरह उस नगर के लोग उमड़े थे.

भोपाल और दिल्ली से देश के महत्वपूर्ण लोग पधारे थे. अपने सपूत साहित्यिकों-बौद्धिकों के आदर की जिस परंपरा का महाराष्ट्र-बंगाल-आंध्र-तमिल वगैरह में साक्षी रहा हूं, वह इंदौर में उस दिन दिखी. अगले दिन सुबह हम सब प्रभाष जी के घर गये, प्रभाष जी के व्यक्तित्व में जो सादगी, सहजता पर वैचारिक दृढ़ता थी, उसके मूल में उनका परिवार, परिवेश और संस्कार रहे हैं. यह उनके परिवार से मिलकर लगा. संत तुकाराम, अभंग, महात्मा फुले, कुमार गंधर्व जैसों के गायन, मालवा का माहौल-मिट्टी , कबीर, विनोवा और सबके ऊपर गांधी के स्पर्श से वह ढले-बने थे. ज्ञानेश्वरी, नानक, कबीर और सूफी परंपरा से प्रभावित.

उनसे पहली मुलाकात कब और कैसे हुई? शायद वर्ष 1983 था. जनसत्ता से बुलावा था. वहां एकाध पुराने मित्र थे, मुंबई टाइम्स के दिनों के. मुंबई से उबने पर धर्मयुग (टाइम्स् समूह) छोड़ चुका था. बैंक में था. तभी जनसत्ता निकालने की तैयारी में लगे परिचित मित्रों ने दिल्ली बुलाया. रात में दिल्ली पहुंचा, बेवजह किसी को रात में परेशान करना स्वभाव में नहीं है. इसलिए स्टेशन पर ही शरण ली.

अखबार बिछा कर दिल्ली के प्लेटफार्म नं -1 पर रात में सोया. सुबह इंडियन एक्सप्रेस खरीदा. सिविल सर्विसेज प्रीलिम्स के रिजल्ट आये थे. उस साल न चाहते हुए भी इस परीक्षा में बैठा था. सो रिजल्ट देखा. पास था. वहां से ही बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग जाना हुआ. जनसत्ता में चयन की अत्यंत प्रामाणिक और पारदर्शी प्रक्रिया थी. लिखित परीक्षा.

फिर इंटरव्यू. मशहूर और जिनके व्यक्तित्व प्रेरित करते रहे हैं, वे इंटरव्यू लेने बैठे थे. पर यह सब मैत्री के माहौल में, जहां आपकी सृजनात्मक ऊर्जा को सही ढंग से परखा जा सके. गांव-देहात या छोटे शहर से भी दिल्ली आये लोग सहज रह सकें, इसकी कोशिश. जनसत्ता आरंभ नहीं हुआ था. उसकी तैयारी के दिन थे. उस माहौल ने प्रभावित किया.

प्रभाष जी से भी मिलना हुआ. एक अलग किस्म की तत्परता और रचनात्मक बेचैनी का माहौल. यह लगा कि प्रभाष जी के नेतृत्व में हिंदी में एक बिलकुल रिफ्रेशिंग अखबार निकालने की तैयारी में लोग लगे हैं. एक-एक छोटी चीज की बारीकी से छानबीन, तैयारी और योजना. दरअसल यह माहौल और यह तैयारी हिंदी पत्रकारिता में विरले दफ्तरों में ही दिखाई देती है. जनसत्ता से जुड़ना न हो सका, पर निकलने के पहले ही उस अखबार ने उत्सुकता पैदा कर दी.

तब इंटरनेट के दिन नहीं थे. न अखबारों के वेब एडिशन थे. न दिल्ली के बाहर जनसत्ता निकलता था. यह हवाई जहाज से ही बंटने के लिए बाहर पहुंचता था. पर हर रोज इस अखबार की प्रतीक्षा रहती थी. कहावत है, पहली नजर में बांध लेना. इस अखबार ने हम युवाओं को ऐसे ही बांधा. इसकी खूबियां और पहचान पहले अंक से ही साफ थे. बिलकुल ताजा. साफ-सुथरा, भाषा स्तर पर नया प्रयोग. इस अखबार में जान डाला, देशज शब्दों के प्रयोग ने. बोलियों के शब्दों के स्वाभाविक इस्तेमाल ने. हिंदी पत्रकारिता में शायद यह पहला प्रयोग था. इसने पत्रकारिता को सीधे मिट्टी से जोड़ दिया.

सनसनीखेज शीर्षक नहीं, पर पढ़ने की उत्सुकता पैदा कर देनेवाले हेडिंग. चुस्त और गठी रपटें. समाचारों का सावधान और पारखी चयन. धारदार टिप्पणियां, ओजस्वी और आकर्षक प्रस्तुति. इस तरह ‘सबकी खबर ले, सबको खबर दे’ का दौर शुरू हआ. इसने हिंदी पत्रकारिता का तत्कालीन तटबंध तोड़ दिया.

जनसत्ता के पहले के हिंदी अखबारों को गौर करिए. उनके कंटेंट, प्रस्तुति, प्रोफाइल सब बासी थे या इनमें दशकों से आया ठहराव था. आजादी के पहले की हिंदी पत्रकारिता ने अपनी मंजिल तलाश ली थी. पर आजादी के बाद हिंदी अखबार अपनी भूमिका नहीं ढ़ूंढ़ सके थे. सत्ता पक्ष और व्यवस्था के साथ संगत मिला कर चलना ही उन्हें बड़ा काम लगता था.

पर जनसत्ता टटका (ताजा) अखबार लगा. देश, इमरजेंसी का दौर पार कर चुका था. ’50-’60-’70 के दशकों के दैनिक हिंदी पत्रों -उनकी पत्रकारिता पर नजर डालें, पायेंगे देवी-देवता, पूजा-पाठ, रस्मो-रिवाज, तीज-त्योहार, नेताओं के प्रवचन या प्रेस विज्ञप्तियां ही कंटेंट के मुख्य स्रोत-आधार थे. सत्ता या नायकों का महिमा गायन. कुछ हिंदी पत्रिकाएं जरूर अपवाद थीं. पर उन दिनों सामाजिक क्षेत्रों में बदलाव की आहट साफ सुनाई दे रही थी. नक्सली आंदोलन हिंदी इलाकों में पसर रहा था. मध्यवर्ण जातियां ताकतवर बन रही थीं.

राजनीति के पुराने समीकरण टूट-भंग हो रहे थे. हिंदी प्रदेश बीमारू घोषित हो चुके थे. पर उनमें सामाजिक स्तर पर बड़ा उथल-पुथल था. कांग्रेस का पुराना तिलिस्म टूट चुका था. आर्थिक सवालों पर भी ध्रुवीकरण हो रहा था. पर ये सारे इश्यूज (मुद्दे) या समाज की धड़कन, हिंदी अखबारों में प्रतिबिंबित या प्रतिध्वनित नहीं थे. साबूत रूप से, इस कमी को पाटा, जनसत्ता ने. जनसत्ता ने न सिर्फ हिंदी भाषियों का बौद्धिक आयाम समृद्ध किया, बल्कि उन्हें अपने आसपास के बुनियादी सवालों से जोड़ा.

अपने समय के सबसे जटिल और गंभीर सवालों-मुद्दों से जनसत्ता जुड़ा. अखबार स्तर पर नहीं. आवेग से, पैशन से. आर या पार की मुद्रा में. बीच-बीच की स्थिति नहीं. भोजपुरी में एक कहावत है, पूत भी अच्छा, पति भी अच्छा, यह द्वंद नहीं. मामला चाहे बोफोर्स का हो या भ्रष्टाचार के खिलाफ वीपी सिंह का अभियान.

जनसत्ता ने अभियान के तौर पर इन मुद्दों को लिया. फिर 84 के दंगे, उन पर धारदार और बेबाक रपटें. मंडल-मंदिर का मामला. फिर प्रभाषजी का बाबरी मस्जिद ध्वंस पर ‘ढहाने का झूठ और सच’ का निरूपण और हिंदू सांप्रदायिकता के खिलाफ अभियान. फिर हिंदू कट्टरवाद के खिलाफ बेबाक बातें.

प्रभाषजी को विद्यार्थी जीवन से ही जानना हुआ. प्रजानीति, एवरीमैन या डाकुओं के जेपी के समक्ष समर्पण समय से. पढ़ कर. उनके बारे में सर्वोदयी लोगों से सुनकर. मिलना बाद में हुआ.

हिंदी पत्रकारिता में एक यशस्वी सफल प्रयोग प्रभाषजी कैसे कर पाये? इसमें उनके व्यक्तित्व का क्या योगदान रहा? जनसत्ता की सफलता के पीछे प्रभाषजी का होना सबसे बड़ा कारण रहा. वह अत्यंत सहज थे और अत्यंत कठोर भी. सहज मन के स्तर पर. संग-साथ के लोगों को अपना परिवार बना लेने की अद्भुत कला उन्हें गांधी और विनोबा की परंपरा से विरासत में मिली थी. अनजान से अनजान व्यक्ति उन्हें मिले, वह उसे आत्मीय बना लेते थे. ताकतवर से ताकतवर व्यक्ति और गांधी के सबसे कमजोर व्यक्ति से समान फलक पर संवाद-रिश्ता.

यह असाधारण था. शुद्ध रूप से गांधी युग के प्रताप की परंपरा है. कठोर और कठिन इस स्तर पर कि वह जिन मुद्दों से खुद को, समाज को जुड़ा पाते थे, उन पर कोई समझौता नहीं. नितांत निर्मम विवेचना और प्रखर विरोध. पर इस विरोध में भी एक निजी बात देखी. निजी स्तर पर राग-द्वेष या दुश्मनी नहीं.

इस दौर में ऐसा इंसान होना ही दुर्लभ है. उनके सरोकार और प्रतिबद्धता गहरे थे. पूरे देश में उनकी प्रशंसक जमात थी. मनुष्य पैदा होता है एक परिवार में, पर वह अपने सामाजिक सरोकारों से ही अपना संसार बनाता है. उन्होंने देश में अपना बड़ा संसार बनाया था. उनका संबंध औपचारिक नहीं रहता था. वह पूरी संवेदना, आत्मीयता, आवेग से जुड़ते थे और पूरे परिवार को बांध लेते थे.

जनसत्ता के साथियों से ही सुना-जाना कि जनसत्ता के दफ्तर में भी वह कभी बॉस नहीं रहे. उन्होंने अपनी टीम को आजादी दी, स्वायतत्ता दी. कभी कुछ थोपा नहीं, बल्कि साथियों की प्रतिभा प्रस्फुटित हो, इसका उन्हें अवसर और माहौल दिया. इसी कारण जनसत्ता में ताजगी आयी. हर मोर्चे पर वह फ्रेश और नया रहा.

प्रभाषजी को नजदीक से देखा, तो पाया, उनमें हर पल एक सर्जक भी मौजूद रहता था. वह वीतरागी भी थे. कुमार गंधर्व के गायन, राग पर बोलते उन्हें जब-जब सुनता, तो चुपचाप सुनने का मन होता. कुमार गंधर्व के गाये कबीर को (सुनाते) उनसे कई बार सुना.

अवधूत युग युगन हम योगी

निरभय निरगुन गुन रे गाऊंगा

शास्त्रीय संगीत उन्हें बहुत प्रिय थे. जब वह गायन की कोई मार्मिक पंक्ति सुनाते, तो डूब जाते. अपने आंसू नहीं रोक पाते. सिर्फ शास्त्रीय गायन ही नहीं, लोक कलाओं पर भी उन्हें बोलते हुए सुना. राजस्थान की कला, राजस्थान के गांवों का इतिहास, मिथिला की परंपरा. मालवा के तो वे थे ही.

मराठी संस्कृति की बखान, दक्षिण की बातें. फिर टीएस इलियट की कविताओं के लंबे कंठस्थ उद्धरण और यही गहराई राजनीति पर, धर्म पर, व्यंजन पर. प्रभाषजी को सुनकर – देखकर लगता कि संपादक कैसे होने चाहिए? क्या प्रतिमान हो संपादक बनने के? कौन संपादक होने चाहिए? उनका ज्ञान प्रेरित करता है कि हम पत्रकार जाने-समझें और खुद को मांजे? आज कहां है पत्रकारिता में ऐसा व्यक्तित्व? प्रभाषजी के इस बहमुखी व्यक्तित्व का प्रतिबिंब बना, जनसत्ता.

प्रभाषजी का एक और सृजनात्मक पहलू था. समाज में हस्तक्षेप के स्तर पर लगातार नये कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाना और उन्हें परफेक्सन से क्रियान्वित कराना. 1991 के आसपास की बात होगी. कलकत्ता में भारतीय भाषा परिषद में उनकी पहल पर भारतीय भाषाओं के संपादकों का आयोजन हुआ. रूपरेखा उन्हीं की थी. उन्हीं की पहल पर कलकत्ता आये तीन नाम मुझे आज भी याद हैं.

गुजराती के हरींद्र दवे, मराठी के गोविंद तलवलकर और राजस्थान पत्रिका के कपूरचंद कुलीश. इन तीनों की स्मृति है क्योंकि मैं इन्हें जानता था. वह कार्यक्रम अत्यंत सफल रहा. जब बाल ठाकरे का आतंक बढ़ा और महानगर समाचार-पत्र पर हमले हुए तो, प्रभाषजी वरिष्ठ संपादकों के साथ मुंबई गये. पहली बार पत्रकार शिवसेना कार्यालय के आगे धरने पर बैठे. इसी तरह उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने दो अखबारों के खिलाफ हल्लाबोल आंदोलन शुरू किया, तब भी वे अग्रिम मोर्चे पर थे.

इसी तरह ‘खबरों के धंधे’ पर अकेले किसी ने सवाल उठाया, तो वे प्रभाषजी ही हैं. यह है, उनके संघर्षशील व्यक्तित्व की झलक. उनके व्यक्तित्व के इस पहलू का जनसत्ता पर गहरा असर रहा. मुद्दों के साथ खड़ा होना. विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी टेक-धुन न छोड़ना.

संडे टाइम्स (लंदन) के संपादक बन संपादक शिरोमणी कहे जाने वाले हेरॉल्ड इवांस ने अपनी जीवनी लिखी है. 19 सितंबर 2009 के द इकोनामिस्ट में उसकी समीक्षा छपी. समीक्षक ने उन्हें ‘वन फ द ग्रेटेस्ट फिगर्स अॅाफ माडर्न जर्नलिज्म’ (आधुनिक पत्रकारिता की बड़ी हस्तियों में से एक) माना. समीक्षक का निष्कर्ष है कि गंभीर सवालों की उम्दा रिपोर्टिंग, साथ में लगातार उसकी कैंपेनिंग कर हैरॉल्ड इवांस ने बड़े सवालों को उत्कृष्ट ढंग से समाज के सामने रखा. यह एक व्यक्ति के संदर्भ में टिप्पणी है. जनसत्ता ने यही काम हिंदी में किया.

वह और प्रभाषजी उस दौर की पत्रकारिता के सबसे जीवंत और प्रामाणिक प्रतीक रहे. इसके बाद की पत्रकारिता तो पत्रकारों के हाथ से निकलकर मार्केटिंग गुरुओं के हाथ में है. रिस्पांस और इवेंट्स डिपार्टमेंट (अखबारों में तरह-तरह के मार्केटिंग कामों में लगे विभाग) इस दायित्व को संभाल रहे हैं.उनकी स्मृति बनी रही, ऊर्जा देती रहे, यही कामना है.

वह साधक पत्रकार थे. पत्रकारिता उनके लिए साधना, तप और सात्विक विधा थी. जिस त्वरा, आवेग और आदर के साथ वह विलक्षण संपादकों को याद करते, वह प्रेरक थे. खासतौर से श्रीश मुलगांवकर के कई मार्मिक और अद्भुत संस्मरण उन्होंने सुनाये. रामनाथ गोयनका के व्यक्तित्व के अनजाने और साहसिक पक्षों पर वह प्राय: बताते-सुनाते थे. अब याद करने से लगता है कि क्या सचमुच ऐसे लोग इसी भारतीय समाज में हुए हैं?

पिछले कुछ वर्षों से जरूरी और सरोकार के मुद्दों पर वह वह राष्ट्रीय अलख जगाने में लगे थे. खासतौर से हिंदी राज्यों में. छोटी-बड़ी हर जगह जा कर, सामाजिक सवालों पर आयोजित कार्यक्रमों में शरीक होना. लगातार थका देनेवाली यात्राएं. बढ़ती विषमता, उजाड़ और पुनर्वास, फिसलती पत्रकारिता, गांधी की जरूरत, राजनीति में सिद्धांतों-मूल्यों की चर्चा, ऐसे अनेक सवालों पर बोलते लोगों को जगाते उन्हें अनेक जगहों सुना. अचानक उनका आदेश होता, फोन आता, पंडित (यह उनके संबोधन का प्रिय व आत्मीय जुमला था), फलां जगह यह कार्यक्रम या अभियान है. वहां पहुंचना है. कार्यक्रम अलग-अलग होते.

उनका मिजाज, स्वरूप भिन्न होता. आज याद करता हूं, तो लगता है कि ऐसे सभी कार्यक्रमों के बीच एक न टूटनेवाला अदृश्य रिश्ता था. ऐसे कार्यक्रमों से ही हिंदी हलाकों में पुनर्जागरण संभव है. आज भी हिंदी इलाके सांस्कृतिक-सामाजिक पुनर्जागरण की प्रतीक्षा में है, और प्रभाष जी अपने जीवन के अंतिम वर्षों में इसी काम में, तप और साधना में लगे थे. बल्कि डूबे हुए थे.

निजी स्तर पर याद करता हूं, तो स्मृतियों की बाढ़ उमड़ती है. पर एक भावपूर्ण संस्मरण नहीं भूलता. 2000 जून का महीना था. वह और श्री अजीत भ˜ट्टाचार्जी (पूर्व संपादक इंडियन एक्सप्रेस) रांची आये थे. प्रभात खबर के निमंत्रण पर. उन्हें दिल्ली लौटना था.

उसी दिन सूचना मिली की अचानक प्रभात खबर से 33 लोग छोड़ गये हैं. एक बडे अखबार समूह ने सुनियोजित ढंग से संपादक से लेकर हर विभाग के महत्वपूर्ण व्यक्ति को अचानक, एक साथ, तात्कालिक प्रभाव से इस्तीफा दिलवाया था. मकसद था कि अगले दिन से प्रभात खबर अखबार न छपे.

प्रभाष जी, प्रभात खबर के साथियों के साथ बैठे. टेबुल-बेंच और बिना प्लास्टर के शेड में. तब ऐसी ही जगह हम सब काम करते थे. उन्होंने प्रभात खबर के बारे में जो कहा, वह अलग था. पर जिस तरह हौसला बढ़ाया, कहा मैं आपके साथ बैठकर काम करूंगा, संपादन करूंगा, पेज बनाऊंगा, आपके लिए लिखूंगा, क्योंकि पत्रकारिता के नये प्रयोग में आप लगे हैं और भी बहुत कुछ कहा.

उनकी बातों का जादुई असर हुआ. तब लगता था कि संसाधनों के अभाव में, पूंजी संपन्न घरानों से जुड़े बलशाली लोगों के षडयंत्र के आगे हम शायद टिक न पायें.

पर प्रभात खबर देश के सबसे बड़े दो घरानों के सामने न सिर्फ टिका, बल्कि फैला. इसका श्रेय प्रभाष जी जैसे अनेक ऐसे मित्रों-शुभचिंतकों को है, जिन्होंने अभावों में भी संघर्ष के लिए आत्मबल दिया.

बड़े-बड़े अवसर-प्रस्ताव मिले. रांची से बाहर निकलने, प्रभात खबर से अलग होने के. उनसे पूछता, वह कहते नहीं, एक नये प्रयोग में लगे हो, वही रहो. इस तरह निजी स्तर पर उनकी बातों और उनके होने का बड़ा बल था. वह नहीं रहा. इससे बड़ी क्षति निजी स्तर पर और क्या हो सकती है?

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