कहानियां अकसर यथार्थ की सलाइयों से बुनी जाती हैं. जीवन के यथार्थ में पिता अपने पूरे वजूद के साथ मौजूद होते हैं, जाहिर है कहानियां भी पिता के पात्र के बिना पूरी नहीं होतीं. सिनेमाई परदे पर उतारी गयी कई कहानियों में पिता की सशक्त भूमिकाएं देखी जा सकती हैं. फिल्मों में पिता की भूमिका निभाने वाले कुछेक कलाकार दर्शकों को याद रह गये हैं. ऐसे ही अभिनेता हैं श्रीराम लागू.
मृणाल सेन निर्देशित फिल्म ‘एक दिन अचानक’ में कभी न लौटनेवाला पिता हो, या सावन कुमार टाक की फिल्म ‘सौतन’ में अपनी बेटी के साथ समाज से जूझता एक दलित पिता, श्रीराम लागू के अभिनय ने इन भूमिकाओं को जीवंत बना दिया है. अभिनेता होने से पहले लागू एक प्रख्यात मराठी रंगकर्मी हैं और रंगकर्म को पूरी तरह अपनाने से पहले एक सफल चिकित्सक भी रह चुके हैं.
रंगमंच से उनका जुड़ाव स्कूल के दिनों में हुआ. मंच से उनका पहला सामना डर के साथ हुआ, लेकिन इस डर को निकाल कर उन्होंने अभिनय को कुछ इस तरह साधा कि चिकित्सक का बेहतरीन कैरियर छोड़ अभिनय को ही जीने लगे. लागू अभिनीत मराठी नाटक ‘नट सम्राट’ की प्रसिद्धि में इसे देखा जा सकता है. प्रगतिशील नाट्य संघ की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले लागू को रंगमंच की सफलता फिल्मों में लेकर आयी और उनकी पहली मराठी फिल्म ‘पिंजरा’ सुपरहिट रही. हिंदी फिल्मों में लागू उस उम्र में आये, जब ज्यादातर चरित्र भूमिकाएं ही मिलतीं हैं. लेकिन वह हीरो होने नहीं, अभिनय करने आये थे. इसमें सफल भी रहे. उन्होंने पचास से अधिक हिंदी फिल्मों में काम किया. इनमें से ‘घरौंदा’, ‘साजन बिना सुहागन’,‘किनारा’,‘एक पल’, ‘इनकार’, ‘लावारिस’ जैसी फिल्मों में उनकी भूमिकाएं यादगार रही हैं.
पुणे के सतारा में जन्मे लागू कुछ वर्षो से हिंदी फिल्मों से दूर हैं, लेकिन मराठी फिल्मों से जुड़े हुए हैं. फिलहाल वह पुणो में रहते हैं. वर्ष 2010 में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप प्राप्त 85 वर्षीय लागू की रंगमंच के कार्यक्रमों में सक्रियता जारी है और सामाजिक कार्यो में भी. अंधविश्वास के खिलाफ अभियान चलाने वाले नरेंद्र दाभोलकर, जिनकी हाल ही में हत्या कर दी गयी, के अभियान में लागू अंध श्रद्धा को रिटायर करने की भूमिका निभाते रहे हैं.
प्रीति सिंह परिहार