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पंचायत प्रतिनिधि के तौर पर काम करने का अनुभव बताएं ?

पंचायती राज व्यवस्था की जो परिकल्पना कानून में की गयी है, वह अभी तक पटल पर नहीं दिख रही है. मैं जिला परिषद का उपाध्यक्ष हूं. हर महीने परिषद की बैठक होती है. लेकिन, इसमें पारित प्रस्ताव या निर्णय को सरकार महत्व नहीं देती है़.जिला परिषद में सांसद एवं विधायक इसलिए सदस्य रखे गये हैं […]

पंचायती राज व्यवस्था की जो परिकल्पना कानून में की गयी है, वह अभी तक पटल पर नहीं दिख रही है. मैं जिला परिषद का उपाध्यक्ष हूं. हर महीने परिषद की बैठक होती है. लेकिन, इसमें पारित प्रस्ताव या निर्णय को सरकार महत्व नहीं देती है़.जिला परिषद में सांसद एवं विधायक इसलिए सदस्य रखे गये हैं ताकि सभी की उपस्थिति में परिषद की बैठकों में लिये गये निर्णय सरकार के लिए मूल तत्व होगा. सरकार इसी आधार पर नीति एवं योजनाएं बनायेगी. लेकिन, वर्तमान में ऐसा कुछ होता नहीं है. जिला परिषद के निर्णय या विचार को सुनने के बजाय सरकार सांसदों एवं विधायकों की बात, उनकी शिकायतें एवं राय को ज्यादा महत्व देती और मानती है. सांसद एवं विधायक को भी अपने स्तर से जिला परिषद की सोच बढ़ाने में जो सहयोग देना चाहिए, वह नहीं दे रहे हैं.

जिला परिषद के अधिकारों की क्या स्थिति है?
जिला परिषद को जो अधिकार हस्तांतरित किया जाना था, वह नहीं हुआ है. मेरी नजर में झारखंड का पंचायत कानून देश के सभी राज्यों की तुलना में सबसे बेहतर है. लेकिन, दुखद यह है कि इसे जमीन पर लागू नहीं किया जा रहा है. कानून की बातें सिर्फ किताबी बनकर रह गयी है. पंचायतों को 29 विभागों का अधिकार दिया जाना है. लेकिन, मैं भी मानता हूं कि एक बार में सभी अधिकारों का हस्तांतरण आवश्यक एवं उपयुक्त नहीं है.

काम करते हुए हमें धीरे-धीरे अधिकार मिलने चाहिए़ लेकिन, जो अधिकार दिये गये हैं उसमें पंचायत प्रतिनिधियों की सहभागिता नहीं बन पा रही है. कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य आपूर्ति, समाज कल्याण आदि नौ विभागों का अधिकार हमें मिला है. लेकिन, इन अधिकारों के हस्तांतरण में कुछ चीजें ही हमें मिली है. कुछ पूर्व की भांति अफसरों के पास ही है. अधिकार हस्तांतरण में पंचायत प्रतिनिधियों को सिर्फ अनुशंसा करने का अधिकार दिया गया है. जबकि यह कोई अधिकार नहीं है. जिला परिषद सदस्य की हैसियत से हमें अनुशंसा का अधिकार तो ऐसे ही प्राप्त है.

अधिकारों में जिला परिषद को और क्या चाहिए ?
सरकार ने अधिकार दे दिया है. लेकिन, इसके बाद भी सरकारी पदाधिकारी एवं कर्मचारी हमारी नहीं सुनते हैं तो इसके पीछे कारण यह है कि हम उन पर कार्रवाई नहीं कर सकत़े सरकार को हमें दंड देने का अधिकार देना चाहिए़ छोटा ही सही जब तक दंड देने का अधिकार हमें नहीं मिलेगा तब संबंधित विभाग के अधिकारी एवं कर्मचारी हमारे अनुशासन में नहीं आयेंग़े विभागों में एक शब्द है स्थापना. चार अक्षर का यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है. लेकिन, आप देख लीजिए जिन विभागों का अधिकार दिया गया उन विभागों के जिलास्तरीय स्थापना समिति के अध्यक्ष अभी भी उपायुक्त ही है़ जबकि यह पद जिला परिषद के अध्यक्ष को मिलना चाहिए़ इसी तरह पेयजल एवं स्वच्छता विभाग की नयी अधिसूचना आयी है जिसमें 50 लाख तक की योजनाओं की प्रशासनिक स्वीकृति का अधिकार जिला परिषद को दिया गया है. लेकिन, निविदा निष्पादन के लिए हमारे पास कोई सिस्टम नहीं है. निविदा समिति नहीं है. जबकि निविदा निष्पादन का अधिकार भी हमारे पास होना चाहिए़ इसमें सरकार अपनी ओर से तकनीकी सदस्य को रख़े डीआरडीए यानी जिला ग्रामीण विकास अभिकरण अभी सबसे महत्वपूर्ण है. केंद्र प्रायोजित सभी योजनाओं का क्रियान्वयन यहीं से होता है. पंचायत कानून में इसके जिला परिषद में विलय की बात है. झारखंड सरकार ने हालांकि विलय नहीं करने का निर्णय लिया है. हम भी मानते हैं कि विलय नहीं होना चाहिए़ लेकिन, डीआरडीए के अध्यक्ष का पद तो जिला परिषद को मिलना ही चाहिए़ केंद्र सरकार ने भी कई बार राज्य सरकार को यह निर्देश दिया है कि डीआरडीए का अध्यक्ष जिला पंचायत के अध्यक्ष को बनाइय़े लेकिन, झारखंड में अभी भी उपायुक्त ही डीआरडीए के अध्यक्ष हैं.

अधिकार की बात आपलोग करते हैं जो काम मिला है वह हुआ है क्या कितने स्कूलों एवं आंगनबाड़ी केंद्रों का निरीक्षण आपने किया है?
शिक्षा विभाग का अधिकार मिलने के बाद अब तक 20 विद्यालयों का निरीक्षण मैंने किया है. चूंकि मैं कार्रवाई के बदले सुधार में विश्वास रखता हूं. इसलिए निरीक्षण के दौरान मौके पर ही मैंने संबंधित कर्मचारी को सुधार करने कहा और वहां पर तुरंत सुधार हुआ भी मैं निरीक्षण के बाद उसका प्रतिवेदन भी बनाता हूं. कई निरीक्षण प्रतिवेदन मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी को उपलब्ध भी कराया गया है.

लेकिन, दिक्कत यह है कि हमलोग निरीक्षण करते हैं, कार्रवाई करते हैं और पदाधिकारी उसे कार्रवाई से मुक्त कर देते हैं. ऐसी स्थिति में पंचायत प्रतिनिधि का महत्व जनता की नजर में खत्म हो जाता है. एक उदाहरण आपको बताता हूं. चार माह पहले जिला परिषद की बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि शिक्षकों की पुरानी प्रतिनियुक्ति रद्द कर नये सिरे से शिक्षकों को प्रतिनियुक्त किया जाय़ इसमें अधिकारी को यह निर्देश दिया गया कि उन विद्यालयों की सूची बनायें जहां शिक्षकों की संख्या सरप्लस और जहां कम है. इसके बाद नजदीक से नजदीक विद्यालय में शिक्षकों की प्रतिनियुक्ति करें. जिला परिषद की बैठक में जिला शिक्षा अधीक्षक ने कहा कि यह काम 30 दिन में हो जायेगा. डीएसई ने यह काम 30 दिन के बदले 90 दिन में किया. और अब पुष्ट सूचना है कि 20 से अधिक शिक्षकों की प्रतिनियुक्ति फिर ऐसे विद्यालय में कर दी गयी जहां पर नहीं होनी चाहिए थी. इस बारे में बात करने पर कहा जा रहा है कि मंत्री एवं सचिव के पैरवी पर ऐसा हुआ है.

जिला परिषद की बैठक में पारित प्रस्ताव पर अमल नहीं होता है़ इसके क्या कारण हैं?
फिर यहां भी बात आकर सरकार पर ही रुक जाती है़ जिला परिषद की बैठक में पारित प्रस्तावों या निर्णयों पर अमल इसलिए नहीं होता है, क्योंकि पदाधिकारी इसके बंधन से मुक्त है. प्रस्तावों पर अमल की बात तो छोड़िये अब हर बैठक में आना भी मुनासिब नहीं समझते हैं पदाधिकारी. यह स्थिति इसलिए है, क्योंकि सरकार की यही मंशा है. सरकार पदाधिकारियों पर कार्रवाई नहीं करती है.

क्या पदाधिकारियों की शिकायत सरकार से की गयी है. कितने पदाधिकारियों के खिलाफ शिकायत की गयी है?
कई पदाधिकारियों की शिकायत सरकार से की गयी है. लेकिन, एक भी पदाधिकारी पर कार्रवाई नहीं हुई है. पूर्व जिला कल्याण पदाधिकारी अशोक प्रसाद जो अभी दुष्कर्म के आरोप में जेल में है, कभी भी बैठक में नहीं आय़े इस मामले में मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी ने कई बार स्पष्टीकरण पूछा़ परिषद की बैठक में प्रस्ताव पारित कर कार्रवाई के लिए सरकार को भेजा गया. लेकिन, कोई कार्रवाई नहीं हुई़ जिला शिक्षा अधीक्षक, जिला उद्योग पदाधिकारी आदि भी बैठकों में नहीं आते हैं. इन सभी के खिलाफ भी सरकार को लिखा गया है. लेकिन, कोई कार्रवाई नहीं हुई है.

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