-हार के बदलते गांव-3-
।। दर्शक।।
गांवों में भी बदलाव की बयार है. 1991 के उदारीकरण के बाद दुनिया अगर गांव बनी है, तो गांव भी दुनिया की संस्कृति और रीति-रिवाज से जुड़े हैं. चाट, कोल्ड ड्रिंक, चिप्स, नूडल्स आदि गांवों में भी स्वादिष्ट डिश बन गये हैं. टीवी और मोबाइल तो पुराने हो गये, अब गांव में कंप्यूटर और लैपटॉप भी दिखते हैं. ब्रांडेड मोटरसाइकिलों की आवाज गूंजती है. गांववाले कहते हैं, खेती में लागत अधिक है, लाभ कम है. साथ ही अन्य चिंताएं भी हैं. इसलिए हर आदमी किसी-न-किसी तरह की ठेकेदारी या सरकारी योजना या पंचायत स्तर की स्कीमों से जुड़ कर अधिक कमाई की भरपाई करना चाहता है. अब पैसा रहनुमाई कर रहा है. अगर कोई पैसेवाला है, तो अन्य जाति-धर्म के लोग उसके शागिर्द बन रहे हैं. पैसेवाले की जाति चाहे कुछ भी हो. बिना हिचक, जाति-धर्म पीछे हो रहे हैं. पैसा आगे आ रहा है. मनरेगा के कारण अब मजदूर नहीं मिलते, ऐसा गांववाले कहते हैं. प्राइवेट स्कूल पढ़ाई के नाम पर फीस वसूलने के केंद्र हो गये हैं. सरकारी स्कूल मध्याह्न् भोजन के केंद्र हैं. वे कहते हैं, पढ़ाई का काम ट्यूशन सेंटर करते हैं. अब ट्यूशन भी कुटीर उद्योग है या ट्यूशन एक किस्म से मंडी है. देहातों में भी बीएड या आइटीआइ कॉलेज खुले दिखते हैं. लोग कहते हैं कि इनका काम फिलहाल प्रमाणपत्र बांटना है. वासलीपुर (अरवल) में एक बड़ा बोर्ड दिखा, स्पोकेन इंगलिश कोर्स फॉर दलित स्टूडेंट्स . अंगरेजी पढ़ने की इच्छा साफ दिखाई देती है. इसके पीछे मान्यता है कि अंगरेजी में ही रोजगार और विकास है.
कोचिंग या ट्यूशन मंडी के पसरते बाजार को देख कर हाल में दक्षिण कोरिया के बारे में पढ़ी एक खबर याद आयी. दक्षिण कोरिया में एक टीचर हैं, किम कि होन. वह कोचिंग क्लास चलाते हैं. पाठ्यक्रमों की पुस्तकें (टेक्सट बुक) लिखते हैं. किम हर साल लगभग चार मिलियन डॉलर (लगभग 25 करोड़ रुपये) कमाते हैं. हाल ही में दुनिया के मशहूर अखबार द वालस्ट्रीट जर्नल में अमंदा रिप्ले की एक रिपोर्ट छपी है. वह कहती हैं, किम एक सप्ताह में 60 घंटे अंगरेजी पढ़ते हैं. इनमें से तीन घंटे वह लेक्चर (व्याख्यान) देने में लगाते हैं. किम कहते हैं कि वह जितना अधिक परिश्रम करते हैं, उतना ही अधिक कमाते हैं. रिप्ले लिखती हैं कि ‘साउथ कोरिया – द फ्री मार्केट फॉर टीचिंग टैलेंट’ (श्रेष्ठ अध्यापकों के लिए खुला बाजार है, दक्षिण कोरिया). साफ है कि अगर आप में प्रतिभा है, तो आप इस कठिन युग में भी अपनी प्रतिभा और परिश्रम से अपना बाजार बना सकते हैं. बिहार में भी ऐसा है. जो बेस्ट टीचर्स हैं, उनकी कोचिंग का बहुत बड़ा धंधा है. एक अनुमान के अनुसार, देश में प्राइवेट कोचिंग इंडस्ट्री, इसका विज्ञापन बाजार और दूसरी व्यवस्था, लगभग 1.5 लाख करोड़ की है.
इस संबंध में एक पीआइएल याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में दायर हुई है. एशियन डेवलपमेंट बैंक और प्रतीचि ट्रस्ट (यह ट्रस्ट नोबेल पुरस्कार विजेता अर्मत्य सेन ने स्थापित किया था) द्वारा हुए सर्वे के अनुसार निजी कोचिंग संस्थाओं का बाजार 35000 करोड़ सालाना से अधिक का है. यह स्पर्धा इतनी बढ़ गयी है कि वर्ष 2011 में सिर्फ कोटा के 50 छात्रों ने (जो आइआइटी की तैयारी में लगे थे) आत्महत्या की. दरअसल, हमने शिक्षा को भी व्यापार में बदल दिया है. दूसरे देशों में निजी कोचिंग सेंटरों में मूल्य हैं. नैतिकता है. अपने काम के प्रति आत्मगौरव है. यह भी उन विदेशी प्राइवेट ट्यूटरों को फख्र है कि समाज और देश को हमारा योगदान है. भारतीय समाज (मुख्यधारा) के नैतिक मापदंड सड़ चुके हैं. यहां किसी भी कीमत पर पैसा चाहिए? वह चाहे छात्रों की आत्महत्या से आये या शिक्षा के नाम पर छात्रों को ठगने से. बड़ी संख्या में शिक्षक धंधा करते हैं. प्रतिभा, व्यक्तित्व नहीं निखारते. यह शिक्षा बाजार बिहार समेत भारत के राज्यों में खूब चल रहा है. सरकारी शिक्षा क्षेत्र अयोग्य (इंकांपिटेंट) हैं, तो शिक्षा के काम में लगे निजी क्षेत्र लूट की भूमिका में हैं. छात्र और समाज पीस रहे हैं. रिप्ले लिखती हैं कि दक्षिण कोरिया की शिक्षा व्यवस्था की सफलता का श्रेय देश के ‘प्राइवेट ट्यूटरों’ (निजी कोचिंग चलानेवाले शिक्षकों) को है. 60 वर्ष पहले दक्षिण कोरिया के अधिसंख्य लोग अपढ़ थे, लेकिन आज पढ़ाई के क्षेत्र में दक्षिण कोरिया का एक औसत 15 वर्षीय बालक दुनिया में नंबर दो पर है. सिर्फ शंघाई (चीन) के बच्चे से पीछे. दक्षिण कोरिया में हाइस्कूल पास करनेवाले 93 फीसदी हैं. अमेरिका में यह 77 फीसदी है. ओइसीटी की रैंकिग के अनुसार, दक्षिण कोरिया के छात्र दुनिया स्तर पर गणित में पहले और विज्ञान में तीसरे स्थान पर हैं. इसमें निजी कोचिंग संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका है.
बीबीसी के लिए लिखते हुए कैरोलाइन मैक किल्चे ने कई देशों की शिक्षा व्यवस्था की सर्वश्रेष्ठ खूबियों की पड़ताल की है. वह कहते हैं, हांगकांग में कठिन श्रम पर फोकस है. यहां निर्णायक असर है, ‘एल्डर्ली पेरेंट टैक्स’ (बुजुर्ग अभिभावक कर) का , जहां मां-बाप अपने बच्चों की शिक्षा में सामाजिक सुरक्षा के रूप में निवेश करते हैं. फिनलैंड में अध्यापकों को सबसे अधिक प्रतिष्ठा दी जाती है. छात्रों को अधिक-से-अधिक एकांउटेबुल (जिम्मेवार) बनाया जाता है. पूरा पाठ्यक्रम टेस्ट और योग्यता द्वारा तय होता है. टेस्ट परीक्षा दक्षिण कोरिया की संस्कृति या शिक्षा व्यवस्था की जड़ में है. इस तरह दक्षिण कोरिया में फोकस टेस्ट परीक्षा पर है. हमारे यहां, हमने नीचे से ही बिना परीक्षाएं लिये या औपचारिक परीक्षा लेकर बच्चों को पास करने की संस्कृति शुरू कर दी है. प्रो पाल मोरिश (पूर्वी एशिया शिक्षा व्यवस्था के विशेषज्ञ) कहते हैं कि एक बच्चे का भविष्य, स्टेट्स (समाज में स्थान) और सोशल मोबिलिटी (आगे बढ़ने का क्रम ) परीक्षा पर ही निर्भर है.
रिप्ले ने द वालस्ट्रीट जर्नल में लिखा है कि किम की योग्यता का व्यक्ति, अमेरिका में बैंकर या वकील होना चाहेगा. लेकिन, दक्षिण कोरिया में वह टीचर बनता है. दक्षिण कोरिया में निजी कोचिंगों में भी खूब स्पर्धा है. श्रेष्ठ अध्यापकों को लोग बड़ी तनख्वाह देकर इधर-से-उधर फोड़ लेते हैं. उनकी तनख्वाह बहुत अच्छी है. यह तनख्वाह उनके परफॉर्मेस (काम करने का प्र्दशन) पर दी जाती है या उससे जुड़ी है. इनमें से सभी अध्यापक अधिक-से-अधिक घंटे काम करते हैं. इन्हें ‘गारंटिड सैलरी’ (निश्चित एकमुश्त राशि) नहीं मिलती. तनख्वाह उनके परफॉर्मेस या प्रदर्शन से जुड़ी चीज है. कोचिंग से जुड़े सब अध्यापक खूब खटते हैं. हालांकि, दक्षिण कोरिया के सरकारी स्कूलों के अध्यापकों के मुकाबले कोचिंग से जुड़े अध्यापक कम वेतन पाते हैं. पर, निजी ट्यूशन देनेवाले अध्यापक सोचते हैं कि अगर उनके छात्र, उन्हें अच्छा मानते हैं, परीक्षाओं में बेहतर करते हैं, जीवन में आगे बढ़ते हैं, तो हमारे लिए यही सबसे बड़ी संपदा और उपलब्धि है. इसके ठीक विपरीत भारत समेत बिहार के सरकारी शिक्षक हैं. चाहे विश्वविधालय के शिक्षक हों या प्राइमरी स्कूल में पढ़ा रहे शिक्षक हों, उन्हें हर माह एकमुश्त निश्चित वेतन चाहिए. छात्र या देश कहां जा रहा है, इससे इनका सरोकार नहीं है.
शिक्षा की इस दुर्दशा के बारे में लोकमानस में एक बड़ा अंतर आया है. अब तक इस स्थिति के लिए लोग सरकार को दोष देते रहे हैं. पर, अब समाज के मौजूदा चाल-चलन और सोच को भी अधिक दोषी ठहराते हैं. राजनीति को तो उन्होंने मान ही लिया है कि उसके सरोकार-संस्कार अलग हैं. उत्तर बिहार के गांव के ही एक व्यक्ति, अपने क्षेत्र के विधायक के बारे में कहते हैं कि पहले वह कपड़े की दुकान करते थे. दवा की भी छोटी-सी दुकान थी. मुखिया हुए. फिर दिल्ली के एक बड़े नेता के कारण विधायक बने. मुखिया थे, तो पुराने राजदूत से चलते थे. हरिजन एक्ट में जेल में बंद थे, तो विधायक बन गये. अब तीसरी बार विधायक हैं. पहली बार विधायक हुए, तो स्कॉर्पियो पर चलते थे. अब तीसरी बार बने हैं, तो फॉचरूनर की सवारी करते है.
विधायक बनने के पहले कुछ छोटी दुकानें थीं. अब 15 कट्ठे में अपना मार्केट है. काफी जमीन भी खरीद ली है. पहले विधायक जी का आवास करकट का था, अब दो मंजिला है. पुत्र, दूसरे राज्य के मंहगे स्कूलों में पढ़ते हैं. यह किसी एक दल के विधायक या मुखिया की कथा नहीं है. अन्य जगहों से भी ऐसे उदाहरण आये हैं. मुजफ्फरपुर के पास के एक मुखिया के बारे में सूचना मिली कि उन्होंने चुनाव में 22 लाख खर्च किये, लेकिन हार गये. मुखिया चुनाव में पांच-आठ लाख खर्च करना तो आम बात है. साथ में प्रति मतदाता पांच सौ रुपये नकद और शराब की खपत पंचायत चुनाव में अनिवार्य सच है. गांव के लोग ही कहते हैं कि सांसद, विधायक और मुखिया कहते हैं कि हम राजनीति में इनवेस्ट (निवेश) करते हैं और इसी की कमाई खाते हैं. (समाप्त)