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प्रॉपर्टी के शाही झगड़े

पिछले दिनों जब फरीदकोट के पूर्व महाराजा हरिंदर बरार की संपत्ति के विवाद पर चंडीगढ़ की निचली अदालत ने अपना फैसला सुनाया, तो उनकी बेटियों को मिलनेवाली संपत्ति के आगे लगे शून्य को देख कर सबकी आंखें फटी की फटी रह गयीं. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में ऐसे शाही विवादों की कमी […]

पिछले दिनों जब फरीदकोट के पूर्व महाराजा हरिंदर बरार की संपत्ति के विवाद पर चंडीगढ़ की निचली अदालत ने अपना फैसला सुनाया, तो उनकी बेटियों को मिलनेवाली संपत्ति के आगे लगे शून्य को देख कर सबकी आंखें फटी की फटी रह गयीं. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में ऐसे शाही विवादों की कमी नहीं रही है और कई कानूनी लड़ाइयां अदालतों में आज भी जारी हैं, जिनमें करोड़ों अरबों की मिल्कियत का फैसला होना है. संपत्ति के ऐसे ही शाही विवादों पर विशेष आवरण कथा..

खून के रिश्ते को हर जज्बे से बढ़ कर माना जाता है, लेकिन जब मामला शाही खिताबों और करोड़ों-अरबों रुपये का हो, तो शायद खून को पानी बनते देर नहीं लगता. आजादी के तुरंत बाद के भारत में बचे लगभग 565 शाही अमलों और उनके वारिसों के बीच आज भी जारी कानूनी घमासान को देखते हुए तो यही सच लगता है. रजवाड़ों की कहानियां हमेशा ही विश्वासघातों, साजिशों और रहस्यों की ओट में बुनी जाती रही हैं. यही इनके सम्मोहन का राज भी है. आजादी के बाद और खासकर 1972 में प्रिवी-पर्स की समाप्ति के बाद हुक्मरानों ने शायद यही सोचा था कि राजशाही और उसके किस्से डायनासोर की तरह ही अतीत की बात बन कर रह जायेंगे. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. इक्कीसवीं सदी में भी हमारे राजा-महाराजा जीवित हैं, नवाब बचे हैं और साथ ही मौजूद हैं- उनकी आपसी लड़ाइयां.

इन पूर्व नवाबों और राजाओं को 1971 ईस्वी तक प्रिवी-पर्स के तौर पर मुआवजा दिया जाता था, जो भारतीय गणराज्य में इनके जुड़ने का आधार बना. यह राशि 5000 डॉलर से 20 लाख रुपये वार्षिक तक होती थी. आखिरकार, 1971 में संविधान के 26वें संशोधन द्वारा इस व्यवस्था को खत्म कर दिया गया.

बहरहाल, कानूनी लड़ाइयां खत्म नहीं हुईं और इसकी बड़ी वजह थी, राजे-महाराजों के आलीशान महल और जमीन के टुकड़े, जो अब रुपयों की खान में तब्दील हो चुके थे. रीयल एस्टेट की आकाशचुंबी कीमतों ने झगड़ों का औसत भी बढ़ा दिया, वरना 60-70 के दशक तक तो ऐसे मामले आसानी से सुलझ जाया करते थे. ऊपर से इन नवाबों की अय्याशियों ने मामले को और भी उलझा दिया. इन अय्याशियों से पैदा हुए दर्जनों दावेदार बची हुई संपत्ति पर अपना मामला ठोंकने आ जाते थे. परिणाम यह कि लड़ाइयां भी जारी हैं और शाही दावेदारों के बयान और आरोप भी.

इनमें ताजातरीन मामला फरीदकोट के पूर्व महाराजा सर हरिंदर बरार की संपत्ति का है, जहां कोर्ट ने 23 वर्षो की कानूनी लड़ाई के बाद, आखिरकार उनकी दो बेटियों को संपत्ति का वारिस बनाया है. कोर्ट ने अभी जुलाई महीने के आखिरी सप्ताह में दिये अपने फैसले में उस ट्रस्ट को ही अवैध घोषित कर दिया, जो इस संपत्ति की देखभाल कर रही थी. इसके साथ ही बरार की बेटियों को दो दशकों से चल रही लंबी कानूनी लड़ाई के बाद लगभग 20,000 करोड़ रुपये की संपत्ति विरसे में मिल गयी. हालांकि, फैसले के तुरंत बाद दूसरे पक्ष ने मामले को ऊंची अदालत में ले जाने के संकेत दिये और ऊपरी अदालत ने फैसले पर रोक भी लगा दी.

पूर्व महाराज बरार और रानी नरिंदर कौर की तीन बेटियां थीं, जिनमें से एक, महीपिंदर कौर की मौत हो चुकी है. बड़ी बेटी अमृत कौर ने वसीयत को अवैध बताते हुए इसे अदालत में चुनौती दी थी. अब, अदालती फैसले के बाद वह और उनकी बहन दीपिंदर कौर 20,000 करोड़ रुपये से अधिक की चल-अचल परिसंपत्तियों की मालकिन बन गयी हैं. कोर्ट ने अपने फैसले में 1 जून 1982 को बनायी वसीयत को नकली बता दिया और साथी ही उसे गैर-कानूनी और निरस्त घोषित किया.

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