भारतीय अर्थव्यवस्था तमाम संकेतकों पर निराशाजनक प्रदर्शन कर रही है. बीते 16 अगस्त को भारतीय अर्थव्यवस्था पर मंडरा रहे संकट के बादल तब गहराते नजर आये जब बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का संवेदी सूचकांक और डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत ने नीचे का गोता लगा डाला. जैसे इतना काफी न हो, सोने की कीमत को नियंत्रण में रखने की हाल की सरकारी कोशिशें असफल होती नजर आयीं, और इसका मूल्य एक दिन में करीब 1300 रुपये बढ़ गया. क्या यह किसी गंभीर मर्ज का लक्षण तो नहीं और इसके इलाज का उपाय क्या है, विस्तार से बता रहा है आज का नॉलेज..
अरविंद मोहन
।।वरिष्ठ पत्रकार।।
शेयर बाजार में सांप-सीढ़ी का खेल बीते काफी समय से चल रहा है और उसे देखकर अगर कोई अर्थव्यवस्था का हाल जानना चाहे तो वह धोखा ही खायेगा. पर आजादी के जश्न के अगले ही दिन बाजार जिस तरह से औंधे मुंह गिरे और सेंसेक्स लगभग आठ सौ अंक गिरा उससे साफ है कि बाजार को सरकार के किये-धरे पर भरोसा नहीं है. दो दिन पहले सरकार ने बाजार बंद होने के बाद सोने पर सीमा शुल्क बढ़ाने, बाहर पूंजी ले जाने पर बंदिशों और 11,000-11,000 करोड़ के अल्पकालिक बांड जारी करके बाजार से नकदी घटाने का प्रयास किया था. बारह फीसदी से भी ज्यादा सूद देने वाले ये बांड 35 दिनों के हैं और हर हफ्ते बाजार से पूंजी निकालेंगे. बाजार और कॉरपोरेट जगत को इससे क्या फायदा होगा यह बताना आसान नहीं है, पर पूंजी कम होने से मुद्रास्फीति में कमी आ सकती है. अब ये कदम उठाये तो गये थे डॉलर की तुलना में रुपये की गिरावट को रोकने के लिए, पर बाजार ने तेज प्रतिक्रिया की. और फिर जब बाजार पहली बार खुले तो डॉलर तो नहीं ही संभला और अपने रिकॉर्ड स्तर तक नीचे गया, शेयर बाजार भी धड़ाम हुआ और जिस सोने पर सारी बंदिश लगाने की कोशिश हुई थी वह एक दिन में तेरह सौ की रिकार्ड वृद्धि और अगले दिन साढ़े छह सौ की बढ़त ले गया. जाहिर है बाजार को सरकार के इन कदमों पर भरोसा नहीं है.
आभासी शेयर बाजार खरा सोना
हम बाजार की प्रतिक्रिया को विदेश से प्रभावित, जरूरत से ज्यादा और अस्वाभाविक मान सकते हैं, पर सोने का आयात रोक या कम कर देने भर को विदेश व्यापार के चालू खाते के घाटे को पाटने का एकमात्र उपाय मानने वालों के लिए सोने का तीन महीने में ही लगभग पच्चीस फीसदी बढ़ जाना एक सबक है कि वे सोने के खरे व्यवहार और अपनी खोटी समझ के अंतर को समङों. यह सही है कि हमारे यहां सोने की हवस दुनिया में सबसे ज्यादा है, पर सोने में जो तेजी पिछले चार-पांच वर्षो से दिख रही थी वह एक हद तक वैश्विक थी. हम मानते रहे हैं कि सोना शोभा भी है और आड़े वक्त पर काम आनेवाला धन भी. जब 2008 में दुनिया वित्तीय संकट में फंसी, तो उसे भी भारत की यह सीख याद आयी. सारी दुनिया में सोने की मांग और कीमतें बढ़ीं. इधर, जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ है और उसके यहां से राहत वाले कदमों को वापस लेने और कई तरह से इस सोने के बाजार में आने की खबरें आयीं, तो सोना गिरने लगा था. तब अपने यहां भी गिरावट थी. तब तक सोने का व्यवहार खरा था. अमेरिकी अर्थव्यवस्था के सुधार ने दुनिया का भरोसा भी बहाल किया है. पर हम सोने की सट्टेबाजी को भूल जाएं तो यह भी अधूरे सच का ही मामला बन जायेगा. आज भारत में भी और दुनिया में भी यह विलक्षण द्रव्य जमाखोरी और सट्टेबाजी के काम आने लगा है. जब अर्थव्यवस्था का भरोसा न हो और सोने का ‘निवेश’ निश्चित सा लाभ दे, तो उसका यह इस्तेमाल भले ही गलत हो पर हैरान करने वाली चीज नहीं है. सोने के साथ यह खूब हुआ है. सो अगर वित्त मंत्री अपने चालू खाते के बढ़ने के लिए सोने के बेतहाशा आयात को दोषी मानते हों, तो वे एक हद तक सही हैं क्योंकि पेट्रोलियम आयात पर रोक या टैक्स बढ़ाने या फिर उसका उपभोग कम करनेवाले कदम उठवाना उनके क्या किसी के वश में नहीं रह गया है. सो वे रह-रह कर सोने पर सीमा शुल्क बढ़ा रहे हैं. जब शुरू में लाभ दिखा तो दोबारा-तिबारा वही दवा आजमाई- देखल दूध बिलैया छोड़े? पर जल्दी ही इसकी सीमा दिखने लगी है- तस्करी से सोना आने लगा है और अर्थव्यवस्था की कमजोरी देख कर फिर से लोग सोने में निवेश को सुरक्षित मान कर ज्यादा खरीद करने लगे हैं. जाहिर है ज्यादा अच्छा इलाज अर्थव्यवस्था में भरोसा जगाना है.
करना क्या होगा
यह स्थिति इसलिए आयी है क्योंकि उचित समय पर सही फैसले नहीं हुए. वक्त रहते नयी जरूरतों के अनुरूप कानूनों में बदलाव नहीं हुए. मुद्रास्फीति/ महंगाई थामने का सही उपाय नहीं किया जा सका. महंगाई सरकार के भी कई लोगों के स्वार्थ से जुड़ी हो सकती है, क्योंकि कई बार जब मंत्री बोलते हैं तो गड़बड़ करनेवाले डरने की जगह सट्टा खेलने लगते हैं- आलू, प्याज, चीनी, दाल, खाद्य तेल, दूध, मांस-मछली सबमें यही दिखा है.
गठबंधन की मजबूरी हो या नालायकी पर ऐसे लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. फिर जो बड़े-बड़े घोटाले सामने आये उन्होंने मुल्क, अर्थव्यवस्था और सरकार से ज्यादा सरकारी बाबुओं का मनोबल तोड़ दिया और वे उचित फैसले लेने में भी डर रहे हैं. सरकार और शासक दल के बीच नीति-संबंधी नजरिये में अंतर है, पक्ष और प्रतिपक्ष आर्थिक जरूरतों से बेपरवाह हो गये लगते हैं. आज सात लाख करोड़ रुपये की योजनाएं मंजूर होकर भी लटकी पड़ी हैं, क्योंकि किसी को जमीन खरीदने में मुश्किल आ रही है, तो किसी को पर्यावरण का क्लियरेंस नहीं मिल रहा है. और नयी जरूरतों के अनुरूप बननेवाले कानूनों से संबंधित 116 बिल संसद में लटके पड़े हैं, क्योंकि पक्ष और प्रतिपक्ष को कभी किसी बात पर तो कभी बेबात पर लड़ने से फुरसत नहीं है. जब सदन चल रहा हो, तो दोनों लड़ते हैं जब नहीं चल रहा हो तो विशेष सत्र बुलाने की मांग की जाती है. भूमि अधिग्रहण कानून सौ वर्षो से ज्यादा पुराना है, पर नया बिल लटका है. कंपनी कानून सौ साल बाद वर्षों लटके रहने के बाद पिछले दिनों पास हुआ है- जाने कब तक उस पर राष्ट्रपति की मुहर लगती है. ऐसे में अगर शेयर बाजार, सोना और डॉलर हमें और सरकार को आईना दिखा रहे हैं तो इसे बुरा नहीं अच्छा ही मानना चाहिए.
शेयर बाजार अर्थात अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर!
शेयर बाजार जाहिर तौर पर पूरी अर्थव्यवस्था का हिसाब नहीं बताता, क्योंकि इसमें अर्थव्यवस्था के सभी भागीदार अपने हिस्से के अनुरूप सक्रिय हिस्सेदारी नहीं निभाते. पर उद्यमियों और पैसे का हिसाब जानने में तेज लोग यहां भागीदारी करते हैं और उनका व्यवहार जरूरत से ज्यादा चालाकी भरा हो सकता है. वे हवा सूंघ कर भी प्रतिक्रिया देते हैं. और अब तो हमारे बाजारों में विदेशी संस्थागत निवेशक और एक झीने परदे की ओट अर्थात पार्टिशिपेटरी नोट्स के जरिये हिस्सेदारी करनेवाले देसी-विदेशी निवेशक ही मुख्य भूमिकाओं में आ गये हैं. यह जमात हमारे सामान्य निवेशकों अर्थात खुदरा निवेशकों से बहुत ज्यादा तेज और हवा का रुख भांपने वाला होता है. आज एक और बात हुई है. आज हमारी पूरी अर्थव्यवस्था दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं से जितना जुड़ी है, शेयर बाजार उससे भी अधिक प्रभावित है. कहीं कुछ हो तो तुरंत यहां हवा पहुंचती है. कहते हैं कि न्यूयॉर्क में सर्दी के लक्षण दिखें तो हमारा दलाल पथ छींकने लगता है.
इससे भी बड़ी बात यह हुई है कि सही हो या गलत पर शेयर बाजारों का रुख आज एक बड़ा पैमाना बन गया है, जिसके आधार पर भारत में निवेश और कारोबार करने का निर्णय लिया जाता है. पूंजी या उद्योग लगानेवाले को अपने फैसले लेने से पहले अर्थव्यवस्था का पूरा अध्ययन और शोध करने का वक्त नहीं होता. वह हवा का अंदाजा जिन चीजों से लगाता है उनमें शेयर बाजार प्रमुख है. और आज हमारा बाजार एक दिन में आठ सौ अंक की अस्वाभाविक गिरावट करता है, पर यह सरकारी फैसलों पर काफी हद तक सही प्रतिक्रिया है. जब आप विदेश के निवेश और पैसे की आवाजाही को पुराने जमाने वाले हिसाब पर वापस ले जाना चाहेंगे तो बाजार क्यों आपके फैसले पर वाह-वाह करेगा! फिर यह भी है कि अधिकांश बड़ी लिस्टेड कंपनियों का मुनाफा गिरने की खबर आये, औद्योगिक उत्पादन में गिरावट दर्ज हो, चालू खाते का घाटा एक तिमाही में छह फीसदी के डरावने स्तर को छू ले, तो आप बाजार से दीवाली मनाने की उम्मीद नहीं कीजिए. सो सोलह अगस्त को बाजार में ओवर रिएक्शन हुआ हो सकता है पर रिएक्शन की दिशा इससे अलग नहीं हो सकती थी. अगर शेयर बाजार है और संवेदी सूचकांक है, तो इनकी प्रतिक्रिया थोड़ी असामान्य होगी ही.