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प्रगतिशील है आज की महिला

भारत के संविधान में महिलाओं को समान अधिकार और आजादी दी गयी है. संविधान में साफ-साफ यह लिखा है कि हर क्षेत्र में भारत की महिलाओं को बराबरी का हक दिया जायेगा, उनके साथ किसी भी तरह का कोई पक्षताप नहीं होगा. लेकिन आज 65 साल बाद भी संविधान में बराबरी की जो लोकतांत्रिक इच्छा […]

भारत के संविधान में महिलाओं को समान अधिकार और आजादी दी गयी है. संविधान में साफ-साफ यह लिखा है कि हर क्षेत्र में भारत की महिलाओं को बराबरी का हक दिया जायेगा, उनके साथ किसी भी तरह का कोई पक्षताप नहीं होगा. लेकिन आज 65 साल बाद भी संविधान में बराबरी की जो लोकतांत्रिक इच्छा रखी गयी, वह समाज में नजर नहीं आती. इस मामले में समाज और संविधान में एक बड़ी दूरी दिखाई देती है.

निश्चित तौर पर आजादी के 65 वर्षो बाद आज महिलाओं की स्थिति में सुधार के प्रति लोगों में चेतना बढ़ी है. बहुत सारे क्षेत्रों में महिलाएं काफी तेजी से आगे आयी हैं. खासतौर से शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में. लेकिन उनके सामने आज भी कई चुनौतियां खड़ी नजर आती हैं. इसमें सबसे बड़ी चुनौती उनकी सुरक्षा के प्रति समाज में लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी वाला नजरिया है, जिसकी वजह से महिलाएं परिवार से लेकर सड़क तक पर तमाम तरह की हिंसा की शिकार हो रही हैं. दूसरी चुनौती यह है कि हमारी संस्कृति में जो अपभ्रंश आ गया है, इसके चलते कन्या भ्रूणहत्या जैसे अपराध द्वारा लड़कियों से पैदा होने का हक तक छीना जा रहा है. आजादी के 66 वर्ष बीत जाने के बाद भी यह स्थिति चिंता पैदा करती है और यह सवाल खड़ा करती है कि क्या पिछले साढ़े छह दशकों में महिलाएं वास्तव में आजाद हुई हैं? जब स्त्री को सम्मान के साथ जीने तो क्या सुरक्षित जन्म लेने का हक न हो, तो उसके लिए आजादी का क्या अर्थ है?

इन परिस्थितयों पर आज गंभीर सोच-विचार करने की जरूरत है. समाज के हर वर्ग के लोगों में स्त्री के खिलाफ अपराध के प्रति चेतना पैदा करने की जरूरत है, ताकि महिलाओं पर बढ़ रही हिंसा को रोका जा सके. आजादी के बाद स्त्री साक्षरता की दर में काफी इजाफा हुआ है, लेकिन इस मामले में वे अपने साथी पुरुषों से काफी पिछड़ी हुई हैं. हालांकि, महिलाएं लगातार पढ़-लिख कर आगे बढ़ रही हैं. अब गांव की लड़कियां भी स्कूल जाती नजर आती हैं. यह बदलाव अपने आप में प्रगति का प्रतीक है. इस प्रतीक को बनाये रखने के लिए जरूरी है कि हम महिलाओं के आगे बढ़ने की दिशा में आनेवाली चुनौतियों को दूर करने का प्रयास करें. इसके लिए सिर्फ महिलाओं को ही नहीं, बल्कि पूरे समाज को अपना दायित्व निभाना होगा. आज भी महिलाओं की आजादी की बात करें, तो यह कहना अपने आपको अंधेरे में रखने जैसा होगा कि भारत की महिलाएं अपनी इच्छा से जीवन जीने के लिए स्वतंत्र हैं. हां, हम यह कह सकते हैं कि स्त्री ने आजादी की ओर कदम बढ़ाया है.

आज राजनीतिक क्षेत्र में संसद चलाने से लेकर राष्ट्र चलानेवाली कई राजनीतिक पार्टियों में आपको कई महिला नेता नजर आयेंगी. खासतौर से राजनीति के क्षेत्र में अब महिला नेताओं की बहुत सक्रिय भूमिका नजर आने लगी है, लेकिन हम इन चुनिंदा महिलाओं को आम महिला की स्वत्रंता का प्रतीक नहीं मान सकते. आम महिला की जिंदगी आज भी तमाम तरह के सामाजिक और सांस्कृतिक बंधनों से बंधी हुई है. उन्हें विकास में जितनी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए थी, आज भी उन्हें वह हिस्सेदारी नहीं मिल रही. फिर चाहे वह संसद में महिलाओं का 33 प्रतिशत आरक्षण हो या कॉलेज, स्कूल व उच्च शिक्षा में उनकी हिस्सेदारी हो. इनके अलावा भी कई क्षेत्रों में महिलाओं को अभी तक बराबर की हिस्सेदारी नहीं मिल पायी है. जब तक महिलाओं में नेतृत्व क्षमता का विकास नहीं किया जायेगा. उन्हें आगे आने के अवसर नहीं दिये जायेंगे, तब तक हम नहीं मान सकते कि समाज में महिलाओं की आजादी और उनके जीवन को बेहतर बनाने के प्रति कोई जिम्मेदारी निभायी जा रही है.

आज जो महिलाएं आगे बढ़ती हुई नजर आ रही हैं, उन्हें हम समाज के हर वर्ग की महिलाओं की तरक्की का चेहरा नहीं मान सकते. प्रगति की दिशा में आगे बढ़ती हुई ये महिलाएं प्रतीक मात्र हैं और इन प्रतीकों का होना महिलाओं की आजादी और प्रगति के लिए काफी नहीं है. जब तक गांव में बैठी आखिरी महिला तक सशक्तीकरण की बयार नहीं पहुंच जाती, तब तक महिलाओं की आजादी की हर बात अपूर्ण है.

यह जरूर है कि आजादी के वक्त से आज तक महिलाओं में अपने हक को पाने के नजरिये में बड़ा परिवर्तन देखने को मिल रहा है. आजादी की लड़ाई में कस्तूरबा गांधी, सरोजनी नायडू, सुचेता कृपलानी, कमला देवी चट्टोपाध्याय जैसी महिलाएं सक्रियता से शामिल हुईं. इनके जैसी तमाम महिलाओं ने स्वतंत्रता की लड़ाई में बड़ा योगदान दिया, लेकिन आजादी के बाद ये महिलाएं सत्ता में खुद को शामिल नहीं कर पायीं. भारत के संविधान में तो महिलाओं को समान अधिकार और आजादी दी गयी है. उनके साथ किसी भी तरह का कोई पक्षपात नहीं होगा. लेकिन आज भी संविधान में बराबरी की जो लोकतांत्रिक इच्छा रखी गयी, वह समाज में नजर नहीं आती. समाज और संविधान में एक बड़ी दूरी दिखाई देती है. जब तक समाज संविधान को नहीं अपनायेगा, तब तक महिलाओं को बराबरी का अधिकार नहीं मिल पायेगा.

आज भले ही कहा जाता है कि संविधान और कानून सबके लिए बराकर हैं, लेकिन जब हम समाज में इस सच्चई को परखने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि महिलाओं पर अत्याचार और उनके साथ अपराध करनेवाले अपराधियों को बड़ी आसानी से छोड़ दिया जाता है. हाल की ही बात करें तो 26 दिसंबर 2012 की घटना के अपराधियों के प्रति अभी तक कोई सख्त फैसला नहीं लिया गया. जिसे देख कर लगता है कि कहीं-न-कहीं कानून भी महिलाओं को लेकर विभेद करता है. हालांकि पिछले दशकों में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कानून में कई परिवर्तन किये गये हैं, नये कानून बनाये गये हैं लेकिन अभी भी वह स्थिति नहीं आयी है जिसमें महिला थाने या कोर्ट, कचहरी में जाकर अपना हक आसानी से ले सके. महिलाओं के मामले में किया गया दूसरा सबसे बड़ा विभेद संपत्ति के अधिकार का है. कानून में महिलाओं को बराबर संपत्ति का अधिकार नहीं दिया गया है. इस वजह से भी भारत की महिलाएं अपने आपको सशक्त नहीं बना पा रही हैं.

महिलाओं को शक्तिशाली बनाने के लिए आज भी हमें कुछ कमियों को दूर करने के प्रति गंभीरता से सोच-विचार करना होगा. आज तमाम प्रयासों के बाद भी हर तीसरी बच्ची शिक्षा से वंचित है. जब भी महिलाओं की दशा में सुधार की बात होती है, तो सबसे पहले शिक्षा के मुद्दे को रखा जाता है. इसमें कोई दोराय नहीं है कि महिलाओं को आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनने के लिए शिक्षित बनाना होगा. ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि महिलाओं की शिक्षा पर पूरी तरह से ध्यान दिया जाये. दूसरा शिक्षा से ही जुड़ा मुद्दा है उनकी सुरक्षा का. महिलाएं पूर्ण रूप से स्वतंत्र तभी बन सकेंगी जब उन्हें शिक्षा, सुरक्षा, सत्ता और संपत्ति में बराबरी का हक दिया जायेगा. परिवार में लड़का और लड़की में भेद की भावना भी उनके पिछड़ेपन का कारण है.

इस भेद के चलते लोग लड़कियों को पैदा नहीं होने देना चाहते, उनकी पढ़ाई पर खर्च नहीं करना चाहते. वहीं आज भी दहेज महिलाओं की सुरक्षा के आगे एक बहुत बड़ा दावन बन कर खड़ा है. जब तक महिलाओं से जुड़ी समाज की ये रूढ़ियां खत्म नहीं होंगी, उन्हें पूर्ण रूप से आजादी नहीं मिल पायेगी. वे आगे नहीं बढ़ पायेंगी. महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए हमें कानून, परिवार और समाज की इन विसंगतियों को दूर करना होगा. सरकार और राज्य को उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेनी होगी. समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले पक्षपात के बाद भी हमें महिलाओं की सराहना करनी होगी कि तमाम समस्याओं का सामना करने के बाद भी वे खुद को आगे लाने का प्रयास कर रही हैं. स्वतंत्रता के इन दशकों में महिलाओं की स्थिति में आया सबसे बड़ा परिवर्तन यही है कि आज की महिला आत्मसम्मान से भरी हुई है, अपने अधिकारों और हकों को पहले से ज्यादा समझती है. वह एक शिक्षित और प्रगतिशील महिला है. (बातचीत : प्राची खरे)

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