पुस्तक:समीक्षा
पगडंडियां गवाह हैं
।।शंकरानंद।
आत्मा रंजन का प्रथम कविता संग्रह है ‘पगडंडियां गवाह हैं’. इस संग्रह की कविताओं की खास बात है उनका जीवन के बेहद करीब होना. हर कविता में छोटे-छोटे दृश्य हैं, जो सहज ही ध्यान खींचते हैं. हाशिये के मनुष्य के दुख-दर्द की कविता है यहां. जहां बाजार का सच भी है. सपनों की चिंता है जिस पर चौतरफा हमले हो रहे हैं. अन्न की चिंता है जिसके स्वाद को नष्ट करने की कोशिश बड़े पैमाने पर चल रही है.
संग्रह की पहली कविता ‘कंकड़ छांटती’ में मनुष्य की वह जिद है, जो पराजय स्वीकार नहीं करती. अन्न से सुंदर इस पृथ्वी पर कुछ भी नहीं. यह और बात है कि इसमें भी कंकड़ मिला दिया जाता है. इस प्रकार देखें तो बाजार में कंकड़ भी अन्न के भाव ही बिकता है और तौल दिया जाता है. अब जिसके लिए लोग पसीना बहाते हैं वही सुरक्षित न बचे तो स्थिति की गंभीरता का अनुमान सहज ही लगया जा सकता है. ऐसे में भी उस अन्न के स्वाद को बचाने की अथक कोशिश जारी है- एक स्त्री का हाथ है यह / जीवन के समूचे स्वाद में से/ कंकड़ बीनता हुआ.
आत्मा रंजन की कविताओं में छोटी-छोटी चीजें भी बड़े अर्थ संदर्भ के साथ मौजूद हैं. ‘हांडी’ काठ की होती है, तो एक बार चढ़ती है. अब तो धातुओं का समय है. यूं एक बार चढ़ना और जल जाना निर्थक पसंद नहीं क्योंकि इस पर अन्न को सिझाने की जबाबदेही है-‘मैं जानना चाहता हूं/ हांडी होने का अर्थ/ तान देती है जो खुद को लपटों पर/ और जलने को/ बदल देती है पकने में.’ ये हांडी ही कर सकती है.
एक कविता है ‘आधुनिक घर’. यहां कवि की चिंता मनुष्यता को लेकर है. एक समय था जब लोग घर बनाते थे तो सबके बारे में सोचते थे. अब वो समय नहीं है. अब तो चारों तरफ से बंद होता है घर. इस तरह कि चिड़िया भी घुसना चाहे, तो पंख फड़फड़ाकर लौट जाये. कितना सिकुड़ गया है मनुष्य का हृदय -‘आधुनिक घरों के पास नहीं हैं छज्जे/ कि लावारिस कोई फुटपाथी बच्चा/ बचा सके अपना भीगता सर/ नहीं बची है इतनी सी जगह/ कि कोई गौरैया जोड़ सके तिनके/ सहेज परों की आंच/ बसा सके अपना घर संसार.’ आत्मा रंजन मनुष्य के उस साहस को भली-भांति पहचानते हैं जिसके दम पर वह कुछ भी कर सकता है. यही न हारने की जिद है- डिगे भी हैं/ लड़खड़ाये भी/ चोटें भी खायीं कितनी ही/ पगडंडिया गवाह हैं/ कुदालियों, गैतियों खुदाई मशीनों ने नहीं/ कदमों ने ही बनाये हैं-रास्ते.’
सपने देखने की जरूरत जितनी बढ़ गयी है, सपने उतने ही दूर होते जा रहे हैं. पाश ने कहा था- सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना. इस आपाधापी भरी जिंदगी में सबकुछ खतरे में है. जाहिर है कि सपने भी इससे बाहर नहीं हैं- जितनी दूर होता गया पहुंच से स्वप्न/ बांहें पड़ती गयीं और छोटी/ जितना ही होता गया वह पुराना/ उतना ही होता गया वह चमकीला और प्रिय.’ आत्मा रंजन के इस संग्रह में बच्चों पर कई कविताएं हैं. वे जानते हैं कि बच्चे इस कठिन समय में समय से पहले बड़े हो रहे हैं. इसके कारण उनका बचपन मुश्किल में है. सबकी इच्छाओं के बोझ तले वे डूब रहे हैं. वे नहीं रहे अब पहले की तरह मासूम-‘उसे नही डराते बंदूक या बम के धमाके’ और ‘अब तो हंसी आती है उसे बचकाना बातों पर.’ ये भयावह स्थिति है -‘यह खुशी की नहीं, चिंता की बात है दोस्त/ िक उम्र से पहले बड़े हो रहे हैं बच्चे. घर सबको प्रिय होता है, यही कारण है कि मनुष्य हो या पशु पक्षी सब अंतत: घर लौटना चाहते हैं. घर कभी पीछा नहीं छोड़ता- सुबह-शाम की चिक-चिक/ घर के तमाम झमेलों से निजात पाने को मन भरता है उड़ान/ घर से जितनी दूर निकल आते हैं हम/ उतना ही याद आता है घर.
आत्मा रंजन के कविता संग्रह ‘पगडंडियां गवाह हैं’ में कविताओं की विषय-वस्तु का क्षेत्र व्यापक है. यहां मनुष्यता में भरोसा भी है और अन्याय का प्रतिकार भी. आत्मा रंजन इसलिए कहते भी हैं कि-‘इन हाथों के पास है तमाम सीलन को पोछने का हुनर.’