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कर्पूरी ठाकुर की जयंती पर विशेष

कर्पूरी ठाकुर ने सदियों से दबे-कुचले वर्गो में न केवल राजनीतिक और सामाजिक चेतना जगायी, बल्कि उन्हें ताकत भी दी. एक गरीब परिवार में जन्म, संघर्षपूर्ण जीवन और फिर मुख्यमंत्री की कुरसी तक की राजनीतिक यात्रा अनुकरणीय है. आज के दौर में जब राजनीतिक मूल्य, निष्ठा, ईमानदारी एवं सैद्धांतिक प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में है, […]

कर्पूरी ठाकुर ने सदियों से दबे-कुचले वर्गो में न केवल राजनीतिक और सामाजिक चेतना जगायी, बल्कि उन्हें ताकत भी दी. एक गरीब परिवार में जन्म, संघर्षपूर्ण जीवन और फिर मुख्यमंत्री की कुरसी तक की राजनीतिक यात्रा अनुकरणीय है. आज के दौर में जब राजनीतिक मूल्य, निष्ठा, ईमानदारी एवं सैद्धांतिक प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में है, कर्पूरी ठाकुर पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक दिखते हैं.

यही कारण है कि सभी राजनीतिक दल और हर वर्ग के बीच उन्हें शिद्दत से याद किया जाता है. उनका सादगी भरा जीवन, कमजोर तबकों के लिए चिंता और उसूल पर आधारित राजनीतिक ईमानदारी पथ-प्रदर्शक है. कर्पूरीजी की जयंती पर यह विशेष पेज, जिसमें उनके पुत्र रामनाथ ठाकुर जननायक के व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों से रू-ब-रू करा रहे हैं.

उनकी चिंता के केंद्र में थे गरीब

रामनाथ ठाकुर

स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर के पुत्र

ज ननायक कर्पूरी ठाकुर समाजवादी राजनीति के उज्जवल नक्षत्र थे. स्वतंत्रता आंदोलन में उनका उल्लेखनीय योगदान था. सन 1942 की अगस्त क्रांति में समाजवादी नेताओं की अग्रणी भूमिका थी. बंबई के कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने आठ अगस्त 1942 को ‘अंगरेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया और : करो या मरो (डू और डाई)’ का संकल्प लिया. अगले दिन नौ अगस्त को महात्मा गांधी सहित कांग्रेस के सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो गये. इसके बाद उस अगस्त क्रांति की कमान समाजवादियों ने संभाली. यही समय था जब कर्पूरी जी सीएम कॉलेज दरभंगा में बीए की पढ़ाई कर रहे थे. महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए छात्रों को संगठित किया. दरभंगा के सिंघवारा में उन्होंने छात्रों का नेतृत्व करते हुए आंदोलन का सिंहनाद किया. जयप्रकाश नारायण के हजारीबाग जेल से भाग कर आने के बाद ‘आजाद दस्ता’ का गठन हुआ जो ‘गुरिल्ला संघर्ष’ का हिमायती था.

अंगरेजों पर धावा बोलना और फिर छिप जाना यही आजाद दस्ते की रणनीति बनी. कर्पूरी ठाकुर जी इस ‘आजाद दस्ता’ के सदस्य बने. इन पर छात्रों और युवकों को संगठित करने की जिम्मेवारी थी. लेकिन परिवार की आर्थिक कठिनाइयों के कारण इन्होंने शिक्षक की नौकरी कर ली और मिडिल स्कूल के हेडमास्टर बन गये, परंतु अंगरेजों की खुफिया पुलिस से ये बच नहीं पाये. 23 अक्टूबर 1942 को दो बजे रात में पितौंझिया स्कूल से सोये हुए में पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया. इनके साथ वशिष्ठ नारायण सिंह और रामबुझावन सिंह भी गिरफ्तार हुए. इन तीनों को दरभंगा जेल भेज दिया गया.

बाद में दरभंगा से इन्हें भागलपुर जेल भेज दिया गया. कर्पूरी जी ने जेल में भूख हड़ताल शुरू की. यह भूख हड़ताल अट्ठाइस दिनों तक चली. ठाकुर जी की हालत बिगड़ गयी. चारों तरफ हड़कंप मच गया. 28वें दिन जेल-प्रशासन ने कैदियों की सभी मांगे मानते हुए इनका अनशन तुड़वाया. नवंबर 1945 ई में वे जेल से रिहा हुए. इस लंबी अवधि में जेल के भीतर उनकी दिनचर्या अन्य राजनैतिक बंदियों के लिए एक मिसाल थी.

जेल से रिहा होने के बाद उनका समाजवादी राजनीतिक जीवन शुरू हुआ. वैसे जेल जीवन के दरम्यान ही वे कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये थे-आचार्य नरेंद्र देव की प्रेरणा से. किंतु मार्च 1946 ई से उन्होंने सक्रिय राजनीतिक दायित्व संभाला. समाजवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साथ गरीबों, दलितों और पिछड़ों में राजनीतिक चेतना पैदा करना उनके जीवन का मकसद बन गया.

उन्हें दरभंगा जिला सोशलिस्ट पार्टी का मंत्री बनाया गया, जिसकी जिम्मेदारी उन्होंने सन 1947 ई तक संभाली. इस दरम्यान उन्होंने इलिमास नगर और विक्रमपट्टी के जमींदारों के खिलाफ बकाश्त-आंदोलन का नेतृत्व किया और 60 बीघे जमीन गरीबों में बंटवाई. इस सफलता के बाद उन्हें राज्य स्तर पर काम करने का अवसर मिला. सन 1947 ई में पं रामनंदन मिश्र के नेतृत्व में भारतीय किसान पंचायत की स्थापना हुई. ठाकुर जी को इसमें पंचायत सचिव और बाद में प्रधान सचिव बनाया गया.

सन 1948 ई में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से अलग सोशलिस्ट पार्टी को एक स्वतंत्र अस्तित्व मिला. सन 1948 ई से 1953 ई तक ठाकुर जी सोशलिस्ट पार्टी के राज्य सचिव रहे. सन 1952 ई में प्रथम आम चुनाव हुआ उसमें वे ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए.

यहीं से उनका संसदीय राजनीतिक जीवन प्रारंभ हुआ. सन 1988 ई में मृत्युर्पयत वे बिहार विधानसभा के सदस्य निर्वाचित होते रहे. सन 1977 के लोकसभा चुनाव में वे सतस्तीपुर संसदीय क्षेत्र से एक बार लोकसभा के लिए भी निर्वाचित हुए. किंतु कुछ महीनों बाद बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ और जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला. उस समय विधायक दल के नेतृत्व का प्रश्न खड़ा हुआ और सबकी नजरें ठाकुर जी की ओर उठी. विधायकों के आग्रह पर ठाकुरजी नेता पद का चुनाव लड़े और

विजयी हुए. फिर बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

कर्पूरी ठाकुरजी एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने. लेकिन इससे उनके रहन-सहन और बात-विचार में कोई अंतर नहीं आया. यह गांधी-युग का प्रभाव था.

ठाकुर जी के संबंध में एक बात विचारणीय है कि सत्ता की राजनीति से अधिक उन्होंने विपक्ष की राजनीति की. इसलिए जन-समस्याओं से उनका सीधा जुड़ाव था. उस जमाने में आज की तरह जन-संचार की सुविधाएं नहीं थी. लेकिन राज्य में कहीं कोई घटना होती थी तो सरकार के किसी प्रतिनिधि या पदाधिकारी से पहले ठाकुर जी वहां पहुंच जाते थे. ऐसा इसलिए कि जनता ही उनके लिए सूचना-तंत्र का काम करती थी.

नेता और जनता का परस्पर-विश्वास पर आधारित संबंध राजनीति में दुलर्भ उदाहरण है. डॉ लोहिया कहा करते थे कि मेरे पास कुछ नहीं है, सिवा इसके कि इस देश का साधारण आदमी समझता है कि मैं उनका अपना आदमी हूं. संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति की यही पूंजी कर्पूरीजी के पास थी.

अपने समकालीन राजनेताओं में जननायक कर्पूरी ठाकुर अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने संसदीय प्रणाली को सदन के माध्यम से विकसित करने में सर्वाधिक योगदान किया. उन्होंने सदन में व्यवहृत सभी प्रणालियों-यथा : प्रश्न, ध्यानाकर्षण, शून्यकाल, कार्य स्थगन, निवेदन, वाद-विवाद, संकल्प आदि सभी प्रावधानों का इस्तेमाल किया. यह संसदीय प्रणाली के विकास में उनका सबसे बड़ा योगदान है. इसमें दो राय नहीं कि कर्पूरी ठाकुर की चिंता के केंद्र में गरीब, पिछड़े, अति पिछड़े और समाज के पीड़ित-प्रताड़ित और कमजोर लोग होते थे. सदन की सभी मान्य प्रणालियों का उपयोग उन्होंने इन वंचित लोगों के जीवन में बेहतरी लाने के लिए किया.

सन 1977 में जब वे लोकसभा के सदस्य बने थे, उन्होंने संसद के विशेषाधिकार पर एक ऐतिहासिक वक्तव्य दिया था. उन्होंने कहा था-‘संसद के विशेषाधिकार कायम रहें, लेकिन जनता के अधिकार भी. यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो एक न एक दिन जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी.’ आज के राजनीतिक संदर्भ में जननायक कर्पूरी ठाकुर के विचार अधिक प्रासंगिक हो

गये हैं.

कर्पूरी ठाकुर

जन्म – 24 जनवरी, 1921

पिता का नाम – स्व. गोकुल ठाकुर

माता का नाम – स्व. रामदुलारी देवी

पत्नी – स्व. श्रीमती फूलेश्वरी देवी

जन्मस्थान – समस्तीपुर जिले के पितौंङिाया गांव में. अब यह कर्पूरी ग्राम.

निधन – 17 फरवरी, 1988

राजनीतिक सफर

1. वर्ष 1952 में पहली बार वह बिहार विधान सभा के सदस्य बने. 1988 तक मृत्युर्पयत बिहार विधानसभा के सदस्य रहे. 1977 में कुछ दिनों के लिए सांसद

भी रहे.

2. दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे. पहली बार दिसंबर,1970 से जून,1971 तक. दूसरी बार दिसंबर,1977 से अप्रैल,1979 तक.

3. 1967 में बिहार के उपमुख्यमंत्री भी रहे.


शिक्षा में प्रयोग के लिए बुलाया था कोठारी को

डॉ नरेंद्र पाठक

समाजवादी चिंतक

राजनीतिक चिंतक प्रो रजनी कोठारी (जिनका हाल ही में निधन हुआ) जैसे समर्पित शिक्षक कर्पूरी ठाकुर के मित्रों में थे. बीएचयू में कर्पूरी ठाकुर पर शोध के दौरान दिसम्बर, 1989 में मैं प्रो रजनी कोठारी से दिल्ली स्थित सीएसडीएस कार्यालय में मिला था. तब उन्होंने कर्पूरी ठाकुर से अपने जुड़ाव को लेकर एक वाकया बताया था, जिसकी चर्चा आज की तारीख में प्रासंगिक है.

1977 में कर्पूरी जी जब मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने प्रो कोठारी को पटना बुलाया था, ताकि यहां शिक्षा के क्षेत्र में कुछ नया प्रयोग किया जा सके. मेरे साथ प्रो कोठारी के मुताबिक, ‘हमलोग एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के गेस्ट हाउस में रुके. मेरे साथ प्रो रामाश्रय राय भी थे जो कर्पूरी जी के इलाके के थे.

कर्पूरी जी को जब मालूम हुआ कि मैं पटना आ गया हूं, तब उन्होंने अपने सहायक लक्ष्मी साहू को मेरे पास भेजा. मेरे रहने-खाने के इंतजाम की जानकारी के बाद लक्ष्मी साहू ने कर्पूरी जी का एक पत्र दिया, जिसमें मुङो बुलाने के उद्देश्य की जानकारी दी गयी थी. उन्होंने यह भी लिखा था कि अभी दो दिन तक वे पटना से बाहर हैं, इसलिए तीसरे दिन भेंट होगी.’ प्रो कोठारी ने आगे कहा, मैंने लक्ष्मी साहू से पूछा कि बिहार में कर्पूरी ठाकुर का दोस्त कौन है और मुख्य विरोधी कौन से जमात, जाति के लोग हैं.

श्री साहू ने बताया कि किसी खास जाति के लोग उनके विरोधी नहीं हैं, लेकिन विधानसभा में सत्ता पक्ष में उनके समर्थकों की संख्या बहुत कम है.रात करीब दस-ग्यारह बजे प्रो कोठारी से मिलने कर्पूरी जी खुद पहुंचे.

प्रो कोठारी ने उस घटना का वर्णन करते हुए बताया था कि भारतीय राजनीति का जो सोशल स्पैन है, उसे और विस्तार देने वाले कुछ ही लोग हुए हैं, जिनमें डॉ लोहिया की सैद्धांतिकी में कर्पूरी ठाकुर का नाम सबसे ऊपर है. जेपी को कई अवसर मिले, लेकिन वे नहीं कर पाये. कर्पूरी जी को बहुत कम अवसर मिला, लेकिन उन्होंने उस अवसर को भी बड़ा कर दिया-गरीब व पिछड़ी जातियों को मानसिक तौर पर सामाजिक हिस्सेदारी पाने की भूख पैदा करके.

उनके एजेंडे में सबलीकरण का अर्थ सिर्फ सरकारी नौकरी में आरक्षण नहीं, बल्कि सामाजिक स्तरीकरण में मौलिक परिवर्तन लाने के लिए जमीन बांटने से भी ज्यादा शिक्षा को मुफ्त और मौलिक बनाना महत्वपूर्ण था. कर्पूरी जी भू-हदबन्दी और समान शिक्षा को लागू करना चाहते थे और इस काम में प्रो कोठारी के माध्यम से देशभर के विद्वानों का समर्थन चाहते थे.

उन्होंने प्रो कोठारी से कहा, मेरी एक ही लालसा है कि बिहार का एक-एक बच्चा शिक्षित हो जाये और जहां तक संभव हो बेघरों को घर के लिए जमीन दे सकूं. प्रो रजनी कोठारी दूसरे ही दिन दिल्ली आ गये और कर्पूरी जी के एजेंडे पर काम शुरू कर दिया. दुर्भाग्यवश, उसके कुछ ही दिनों बाद उनकी सरकार गिरा दी गयी.

अविरल व्यक्तित्व

संघर्षपूर्ण जीवन

कर्पूरी ठाकुर के गांव के पास के रहनेवाले डॉ कृष्णनंदन ठाकुर ने उनकी आर्थिक तंगहाली के विषय में लिखा है कि कई बार ऐसा अवसर आया जब उनके पास परीक्षा शुल्क जमा करने तक के पैसे नहीं थे.

इंटरमीडिएट की परीक्षा के समय जब फीस जमा करने के पैसे नहीं थे, तब कर्पूरीजी के पिता ने पूर्व मंत्री स्व सत्य नारायण सिंह की मदद से फीस जमा की. इस घोर निर्धनता में बढ़े कर्पूरीजी निश्चित रुप से आज के इस समाज में आदर्श और चुनौती भी हैं. उन्हें राजनीति विरासत में नहीं मिली, राजनीति को ही उन्होंने अपने साथ चलना सिखलाया.

पिछड़ों की राजनीति के लिए जमीन तैयार की

बिहार में पिछड़ों और दलितों के ध्रुवीकरण को ज्यादा मुखर करने का श्रेय कर्पूरी ठाकुर को जाता है, जिन्होंने चीनी मिलों के अधिग्रहण से लेकर आरक्षण लागू करने तक में पिछड़े वर्ग की राजनीति के लिए राजनीतिक जमीन तैयार की.

1977 में सत्ता में आने पर कर्पूरी ठाकुर ने आरक्षण का गजट निकाला. कर्पूरी ठाकुर का फामरूला मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों में कुछ संशोधन के साथ प्रस्तुत किया गया. इसके अंतर्गत 26 फीसदी आरक्षण की बात की गयी थी.

इसकी तीन श्रेणियां बनीं गयीं. एनेक्सर -1 में अति पिछड़ी जातियों को रखा गया और उन्हें 12 फीसदी आरक्षण दिया गया. एनेक्सर-2 में उन पिछड़ी जातियों को रखा गया, जो थोड़ी सम्पन्न हैं और उन्हें 8 फीसदी तथा किसी भी वर्ग की महिलाओं एवं उच्च वर्ग के गरीब लोगों को तीन-तीन फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया.

भूमि सुधार के समर्थक

19 मार्च, 1953 को बिहार विधानसभा में ‘उन्मूलन के बाद जमींदारी का प्रबंध’ विषय पर अभिभाषण में कर्पूरी ठाकुर ने कहा था, गांव और भूमि संबंधी समस्या का निराकरण करना है तो उसके लिए एक ही उपाय है, भूमि का समुचित बंटवारा कर दिया जाये. अभी जिस तरह की भूमि की प्रणाली है, उसमें न तो भूमि के सुधार की कोई उम्मीद है और न ही उत्पादन में वृद्धि की गुंजाइश है. अगर ऐसा नहीं होगा तो हमारा प्रांत पिछड़ जायेगा. श्री ठाकुर 1967 में जब बिहार के उप मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने छोटे किसानों की मालगुजारी माफ कर दी.

भाषा को रोटी से जोड़ा

कर्पूरीजी 1967 की संविद सरकार में शिक्षामंत्री थे. उन्होंने परीक्षा पास करने के लिए अंगरेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था. साथ ही राज्य की व्यापारिक संस्थाओं से भी उन्होंने अपील की थी कि वे भाषा-नीति का समर्थन करें. यह उनकी भाषा-नीति तथा भाषा से जुड़ी रोटी के सवाल पर गहरे चिंतन का परिचायक है.

इसका यह कहकर विरोध हुआ कि वे बिहार को अंधे युग में ले जा रहे हैं. लेकिन, उन्होंने विरोधी बयानों का बड़ी विनम्रता से जवाब देते हुए कहा था कि हिन्दी में काम होने से बड़े और छोटे को पढ़ने और समझने में कठिनाई नहीं होगी और तभी गरीब लोग बराबरी के साथ अपना योगदान कर सकेंगे.

अंगरेजी की पढ़ाई होने से केवल बड़े लोग ही सफलता पा सकते हैं. कर्पूरी ठाकुर के शासनकाल में हिन्दी संस्थाओं को जो प्रतिष्ठा, मर्यादा और आíथक सुविधा मिली, वह पहले कभी नहीं मिली थी.

(नरेंद्र पाठक की पुस्तक ‘कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद’ से साभार)

सामाजिक समरसता लाना चाहते थे कर्पूरी ठाकुर

डॉ जगन्नाथ मिश्र

पूर्व मुख्यमंत्री, बिहार

कर्पूरी ठाकुर राज्य एवं राष्ट्रीय राजनीति के एक ऐसे पुरोधा थे, जिनके जीवन की प्रत्येक सांस दलित, पीड़ित, शोषित एवं उपेक्षित जनता के विविधमुखी विकासार्थ सतत निवेदित रही. बिहार के उत्थान की दिशा में उन्होंने आदर्श भूमिका का निर्वहन किया. जब उन्होंने मुख्यमंत्री का पद संभाला, तब बिहार देश के पिछड़े राज्यों में एक था.

उनके सामने राज्य को विकास के राजमार्ग पर गतिशीलता प्रदान करने की बड़ी चुनौती थी. किंतु, अपनी दक्ष प्रशासनिक कौशल से उन्होंने बिहार को प्रगति के मार्ग पर खड़ा करने का अथक प्रयास किया. एक विधायक एवं विपक्ष के नेता के रूप में विधानसभा में उनकी भूमिका अद्वितीय रही.

यह संयोग मुङो और श्री ठाकुर को ही मिला कि जब वे मुख्यमंत्री थे, तो मैं विपक्ष का नेता था और जब मैं मुख्यमंत्री था, तब श्री ठाकुर विपक्ष के नेता रहे. विधायी कार्यो के प्रति सतत जागरूक कर्पूरीजी ने प्रश्न पूछ कर, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव द्वारा समय-समय पर सार्वजनिक हितों के ज्वलंत एवं महत्वपूर्ण विषयों पर अपनी वाणी से प्रदेश की जनता में एक नयी ऊर्जा का संचार किया.

शीर्ष राजनीतिज्ञ होने के बावजूद वे जन-साधारण के प्रिय और जनता से सीधे जुड़े हुए नेता थे. दीन-दुखियों, गरीबों और बेसहारा लोगों की मदद करना अपना धर्म समझते थे. वे अपनी व्यस्तता के बावजूद जनता की पहुंच से कभी दूर नहीं रहे.

कर्पूरी ठाकुर ने सामाजिक समरसता के वैचारिक सिद्धांत के अनुरूप 10 नवंबर, 1978 को आरक्षण अधिसूचना में सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गो के लिए आरक्षण सुनिश्चित करते समय यह प्रावधान किया था कि 26 प्रतिशत में 12 प्रतिशत अतिपिछड़े एवं आठ प्रतिशत अत्यंत पिछड़ों, तीन प्रतिशत गरीब सवर्णो और तीन प्रतिशत सीटें सभी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाये.

उन्होंने आरक्षण के लाभ से उन सभी परिवारों को वंचित किया था जो आयकर की सीमा में थे. जातिगत पिछड़ेपन के साथ-साथ उन्होंने आर्थिक पिछड़ेपन को भी जरूरी समझा था. परंतु यह अत्यंत विस्मयकारी एवं दुखद रहा कि उनके बाद इस आरक्षण नीति को खंडित करते हुए सवर्ण गरीब और सवर्ण महिलाओं को आरक्षण की परिधि से अलग करते हुए आयकर की सीमा भी समाप्त कर दी गयी.

सामाजिक समरसता को फिर से स्थापित करने और बिहार के सर्वागीण विकास के लिए यह समीचीन होगा कि कर्पूरी ठाकुर की आरक्षण नीति को फिर से लागू कर सवर्ण गरीबों के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण और महिलाओं के लिए आरक्षित तीन प्रतिशत में सवर्ण समेत सभी जातियों की महिलाओं को आरक्षण में सम्मिलित किया जाये. आदिवासी के लिए पहले 10 प्रतिशत आरक्षण था, जो झारखंड के बाद अब केवल एक प्रतिशत रह गया है. इसी बचे हुए नौ प्रतिशत से सवर्णो को आरक्षण दिया जा सकता है. आरक्षण व्यवस्था का लाभ सभी जातियों एवं परिवारों तक समान रूप से नहीं पहुंच पा रहा है.

यह आवश्यक है कि आरक्षण का लाभ प्राप्त कराने के लिए पिछड़ों को राष्ट्रीय स्तर पर दो मुख्य वर्गो में अलग-अलग विभाजित किया जाये और उनका स्वरूप इस प्रकार निर्धारित किया जाये कि समान स्तर का लाभ उस प्रकार के संबंधित वर्ग की सभी जातियों के परिवारों को समान रूप से प्राप्त हो सके और संबंधित वर्गो की प्रभावशाली जातियों से इन जातियों के लोग प्रतिस्पर्धा से बच सकें और उन्हें आरक्षण का लाभ प्राप्त करना संभव हो. कर्पूरी ठाकुर का सुनिश्चित अभिमत था कि सामाजिक सामंजस्य एवं सामाजिक समरसता उभर कर समाज में समभाव ला सकती है.

इसलिए सबको याद आते हैं कर्पूरी

पता पूछते सीएम मेरे घर आये

सुशील कुमार मोदी

भाजपा के वरिष्ठ नेता

मेरे निजी जीवन में कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तिव का बड़ा ही प्रभाव है. कर्पूरी ठाकुर दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप मुख्यमंत्री बने. तीनों ही बार भाजपा या जनसंघ शामिल रही. 1967 में जब वह संविद सरकार में उप मुख्यमंत्री बने, तो जनसंघ इस सरकार की हिस्सा थी. 1970 में भी यही परिस्थितियां थी. 1977 में कैलाशपति मिश्र उनकी सरकार में वित्त मंत्री की हैसियत से दूसरे नंबर पर थे. 1977 में जब कर्पूरी जी मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने आधा दर्जन सरकारी समितियों में मुङो मनोनीत किया. इसी दौरान देश के एक बड़े गांधीवादी अर्थशास्त्री प्रो जेपी शेट्टी पटना आये थे. पटना विश्वविद्यालय छात्रसंध की ओर से आयोजित एक समारोह में उन्हें हिस्सा लेना था.

वह मेरे राजेंद्रनगर स्थित घर पर ठहरे थे. उन्होंने कर्पूरी ठाकुर जी से मिलने की इच्छा जतायी. मैंने मुख्यमंत्री आवास पर फोन किया और संवाद दिया कि जब समय मिल जायेगा, मैं उनको लेकर आ जाऊंगा. मुङो आश्चर्य हुआ, कुछ घंटे बाद कर्पूरी जी मेरे घर पर उपस्थित थे. उन्हें मेरे घर का पता मालूम नहीं था. उन दिनों पायलट और स्कॉट भी नहीं होते थे. एक गाड़ी में अकेले सवार कर्पूरी जी जगह-जगह मेरा नाम पूछते हुए राजेंद्रनगर स्थित आवास पर पहुंच गये.

जब उन्होंने कॉल बेल दबाया, तो मेरी भाभी ने घर का दरवाजा खोला. वह मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को पहचानती नहीं थीं. उन्होंने पूछा, आप कौन हैं. सामने खड़े मुख्यमंत्री ने कहा, मैं कर्पूरी ठाकुर हूं, तो वह अवाक रह गयीं. यह उनके सादगी भरे जीवन का उदाहरण था. 1986 में मेरी शादी हुई. वह दूरदराज में किसी कार्यक्रम में थे. सभी कार्यक्रम छोड़ कर वह शादी समारोह में शामिल हुए. कर्पूरी जी के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री बनने में जनसंघ और भाजपा का भी थोड़ा बहुत योगदान रहा है. 1977 में जब उन्होंने आरक्षण की व्यवस्था लागू की, तो इसका विरोध भी हुआ. केंद्र में उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी मंत्री थे. वह पटना आये और विरोध करने वालों को डांट पिलाते हुए कहा कि उनकी पार्टी इस मुद्दे पर कर्पूरी जी के साथ है.

ऊंची जाति का भी था समर्थन

उपेंद्र कुशवाहा

केंद्रीय मंत्री व रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष

कर्पूरी ठाकुर सादगी के प्रतीक थे. उनका रहन-सहन, विचारधारा और काम करने का तरीका भी सादगी भरा था. राजनीति में वह व्यक्तिगत मतभेद को कभी सामने नहीं आने देते. यही कारण था कि सभी दल और वर्गो में उनके प्रशंसकों की संख्या थी. जब उन्होंने आरक्षण की व्यवस्था की तो कटुता बढ़ी थी. लेकिन, इन स्थितियों में भी उंची जातियों का एक वर्ग उनके समर्थन में खड़ा रहा. काजल की कोठरी में रह कर उन्होंने खुद को साफ-सुथरा बनाये रखा.

कर्पूरी ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे. उनके जीवनकाल में राजनीतिक विरोधी आलोचना करते रहे. लेकिन, भ्रष्टाचार का आरोप उन पर कभी नहीं लगा. उन्होंने शराबबंदी का नारा दिया था. गरीबों के वह सच्चे हितैषी थे. उनकी सोच थी कि शिक्षा के बगैर गरीब गुरबों के घर विकास की रोशनी नहीं पहुंचेगी.

इसलिए मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा को फ्री किया. आज केंद्र सरकार मैट्रिक तक की शिक्षा को नि:शुल्क कर रही है, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने उस जमाने में ही इसे लागू कर दिया था. आज की राजनीतिक व्यवस्था की शुद्बि के लिए जननायक कर्पूरी ठाकुर के विचारों को आत्मसात करना जरूरी है. राजनीति में आने वाली नयी पीढ़ी को उनसे सीख लेनी चाहिए.

सरकारी गाड़ी पर सायरन नहीं

पशुपति कुमार पारस

अध्यक्ष, लोक जनशक्ति पार्टी

मेरा कर्पूरी जी से संबंध 1969 से था, जब मैं खगड़िया के कोसी कॉलेज का छात्र था. उस समय रामविलास पासवान अलौली से विधायक थे. विधानसभा चुनाव के दौरान ही कर्पूरी जी अलौली आये थे. उनका रहन-सहन, उनके विचार और गरीब-गुरबों के प्रति प्यार व समर्पण की भावना ने मुङो प्रभावित किया. वह जिस समाज और जाति से आते थे, उनकी संपूर्ण आबादी एक विधानसभा के लायक भी नहीं थी. इसके बावजूद उन्होंने राजनीति में अपना वर्चस्व कायम किया.

आपातकाल के दौरान गिरफ्तारी से बचने के लिए वह रामविलास पासवान के साथ नेपाल चले गये थे. फिर जब जेपी ने गांधी मैदान में सभा की तो वह यहां आये और पकड़ लिये गये. जनता पार्टी का गठन हुआ तो असेंबली के चुनाव में भी पार्टी को अपार सफलता मिली, कर्पूरी जी मुख्यमंत्री बनाये गये. मुख्यमंत्री होते हुए भी वह सामान्य आदमी की तरह ही रहते थे. कभी रिक्शा तो कभी मोटरसाइकिल की सवारी से भी वह परहेज नहीं करते. उनकी सरकारी गाड़ी पर सायरन और साथ में स्कॉर्ट पार्टी नहीं होती थी.

मंत्री को गाड़ी खरीदने से रोका

गजेंद्र प्रसाद हिमांशु

पूर्व उपाध्यक्ष, विधानसभा

मेरे लिए कर्पूरी ठाकुर का होना और नहीं होना बड़ा मतलब रखता है. कर्पूरी ठाकुर आज की राजनीतिक बुराइयों से कोसों दूर थे. वह आजीवन राजा जनक की तरह विदेह बने रहे.

कुरसी जब उनके पास थी और जब नहीं भी थी, उनकी जीवन शैली बदली नहीं. कोई भी घटना होती तो वह अफसर के पहले घटनास्थल पर पहुंच जाते थे. जनता की सेवा करने वाले नेता थे. एक बार हम सबके सामने पटना में उनके घर नहीं होने की चर्चा चली. कर्पूरी जी ने कहा कि हम पटना में गरीबों के घर बनवाने आये हैं या अपना घर बनवाने.

राज्य के किसी कोने में उनका अपना घर या कोठी-बंगला नहीं था. पैतृक गांव में दो भाइयों के हिस्से में उन्हें 13 कट्ठे जमीन मिली थी. वही उनकी संपत्ति थी. उनके कैबिनेट मंत्री थे पूरनचंद. एक बार पूरनचंद ने कार खरीदने के लिए अग्रिम का प्रस्ताव दिया. कर्पूरी जी को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने पूरनचंद को फटकारते हुए कहा कि आप राजनीति में गरीबों की सेवा करने आये हैं या कार खरीदने. पूरनचंद ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया.

सादगी व ईमानदारी का प्रयोग

डॉ रामचंद्र पूर्वे

प्रदेश अध्यक्ष राजद

कर्पूरी ठाकुर का जीवन राजनीतिक साधना का जीवन था. उनके आचार, विचार, व्यवहार और विजन इतने महत्वपूर्ण थे कि उनके दुनिया में नहीं होने के बावजूद आज उतने ही प्रखर और सामयिक हैं जितना उनके जीवन काल में था. बिहार और देश की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर का योगदान को इस बात से ही समझा जा सकता है कि उनके घोर विरोधी रहे राजनीतिक दल भी कर्पूरी जयंती मनाता है. उनकी सोच, समझ और दृष्टिकोण के सभी राजनीतिक दल कायल हैं.

शरीरिक रूप से कर्पूरी ठाकुर अब जीवित नहीं हैं, लेकिन उनके विचार आज भी हैं, चमक रहे हंै. उन्होंने अपने जीवन में सादगी और ईमानदारी का सफल प्रयोग किया. भौतिक जीवन का आकर्षण उनको छू नहीं पाया. समाज के हर वर्ग से उनका प्रेम था. गरीब घर से होने के कारण भले ही वह आक्सफोर्ड जैसे विदेशी विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाये लेकिन उनके विचार बिहार ही नहीं राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज भी प्रासांगिक हैं.

आडंबररहित राजनेता थे

बद्री नारायण लाल

पूर्व राज्य सचिव सीपीआइ

कर्पूरी ठाकुर एक अच्छे राजनेता थे. सबसे बड़ी बात है कि वह ईमानदार व आडंबररहित राजनेता थे. लेकिन विचारधारा के स्तर पर हमारा उनसे हमेशा मतभेद रहा है. कर्पूरीजी अपने आपको समाजवादी कहते थे, लेकिन वह पूंजीवाद के खिलाफ नहीं थे. आज भाजपा भी अपने आपको समाजवादी और गांधी के रास्ते पर चलने वाली पार्टी कहती है.

लेकिन, वास्तव में ऐसा है नहीं है. भारत के संविधान में सोशलिस्ट शब्द है, जिससे हर पार्टी और हर राजनेता अपने को जोड़ने का प्रयास करता है. यही वजह है कि सभी अपने आपको समाजवादी कहते हैं, लेकिन कोई भी पूंजीवाद के विरोध में नहीं बोलता है. कर्पूरीजी की लाख अच्छाइयों के बावजूद विचारधारा के स्तर पर हमारा उनसे मतभेद रहा है.

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