।। अनंत विजय ।।
(डिप्टी एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर, आइबीएन-7)
– विराट हिंदू समाज की बात करनेवाली पार्टी द्वारा तेली और पिछड़ों के नाम पर वोट मांगने की रणनीति बनाना उनके असली चाल, चरित्र और चेहरे को भी उजागर करता है. –
यह अकारण नहीं है कि जब देशभर में बीजेपी के नये नायक नरेंद्र मोदी को हिंदुत्व के सबसे ताकतवर प्रतीक के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा रहा है, ठीक उसी वक्त बिहार और उत्तर प्रदेश उन्हें ‘पिछड़ा’ कह कर प्रचारित किया जा रहा है. 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा बिहार और यूपी में जिस रणनीति पर काम कर रही है, उसमें मोदी की जाति को प्रचारित किया जाना बेहद अहम है.
इस काम के लिए दोनों राज्यों में पार्टी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रचार मशीनरी का भी भरपूर फायदा उठाने का फैसला लिया है. इस मशीनरी के तहत दोनों राज्यों में पिछड़ी जातियों के बीच यह बात फैलायी जा रही है कि मोदी तेली जाति से आते हैं, जो पिछड़ी जाति में शुमार होता है. रणनीति यह भी है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में राम मंदिर आंदोलन जैसा पुराना दौर लौटाने के लिए पिछड़ों को लामबंद किया जाये.
मोदी की जाति को प्रचारित कर पिछड़ी जातियों के बीच यह संदेश दिया जाये कि जब एक पिछड़े नेता के प्रधानमंत्री बनने का वक्त आया तो उसी वर्ग के नीतीश कुमार ने उन्हें धोखा दिया और अखिलेश यादव विरोध कर रहे हैं.
इस रणनीति के पीछे पिछड़े वोट बैंक में सेंध लगाने की योजना है और उस वजह से पार्टी ने पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ को मोरचा का दरजा देकर उसे सामाजिक मोरचा का नाम दिया है. तय किया गया है कि यह मोरचा आरक्षण के भीतर अति पिछड़ों को आरक्षण दिलाने के लिए संघर्ष करेगा. इसके अलावा भाजपा ने हर वर्ष 27 सितंबर को ‘सामाजिक न्याय दिवस’ मनाने का ऐलान भी किया है.
हालांकि मोदी को पिछड़े वर्ग का नेता प्रचारित करनेवाली भाजपा के रणनीतिकारों के सामने सबसे बड़ी दिक्कत नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और मुलायम सिंह से मिलनेवाली चुनौती है. इनका वोटबैंक भी पिछड़ी जाति के वोटर हैं. अगर हम बिहार की बात करें, तो राज्य के जातीय समीकरण में अन्य पिछड़ी जातियां यानी ओबीसी और अति पिछड़ी जातियां यानी एमबीसी की अहम भूमिका है.
सूबे में तकरीबन 33 फीसदी ओबीसी हैं, तो एमबीसी भी तकरीबन 22 फीसदी हैं. एमबीसी में पिछड़ी जातियों के 11 फीसदी कोइरी व कुर्मी को जोड़ दिया जाये, तो 33 फीसदी का मजबूत गंठजोड़ बनता है. नीतीश कुमार इसे अपनी ताकत बनाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि करीब साढ़े 14 फीसदी यादव उनके साथ नहीं आयेंगे.
उधर, भाजपा भी नरेंद्र मोदी को तेली जाति का बता कर पिछड़ों को लुभाने में लगी है. बिहार की मौजूदा विधानसभा में भाजपा के 91 विधायकों में से 41 अति पिछड़े और महादलित हैं. उन्हें विधायकों की इस संख्या पर संतोष है, तो इस बात की चिंता भी है कि उनके अति पिछड़े और महादलित विधायक नीतीश कुमार के साथ रहने पर चुनाव जीते थे.
ऐसे में उन्हें अपने पाले में बचाये रखने की गंभीर चुनौती भाजपा के सामने है. भाजपा यह मान चल रही है कारोबारी वर्ग से उनको समर्थन मिलता रहा है. बिहार में सात फीसदी बनिया हैं, जिनके वोट भाजपा को पारंपरिक रूप से मिलते रहे हैं. जातिगत आंकड़ों के इस उलझे हुए राजनीतिक गणित में तकरीबन पौने पांच फीसदी भूमिहार और पौने छह फीसदी ब्राह्मण अहम हो गये हैं. इसलिए आज हर कोई ब्रह्मर्षि समाज की बात कर रहा है. कभी ‘भूरा बाल साफ करने’ का नारा देनेवाले लालू प्रसाद भी अब भूमिहारों को पटाने में लगे हैं.
उधर, नीतीश कुमार को लगता है कि लालू विरोध की वजह से स्वाभाविक रूप से भूमिहार उनके साथ हैं. उन्होंने प्रतीकात्मक तौर पर सूबे में डीजीपी और मुख्य सचिव भूमिहार को बनाया हुआ है. उधर भाजपा भी यह मान कर उत्साहित है कि भूमिहार उनके साथ हैं. राजनीतिक दलों को लगता है कि भूमिहारों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन वे कई सीटों के नतीजों को प्रभावित करते हैं. ब्राह्मण पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के साथ रहे हैं, लेकिन सूबे में कांग्रेस का कोई अस्तित्व ही नहीं बचा तो फिर उनके पास दूसरी पार्टी का रुख करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
इन सबके बीच भाजपा को समझना होगा कि समाज के लोगों का दिल जीतने और उन पर राज करने के लिए उस क्षेत्र विशेष की सामाजिक संरचना को जानना-समझना बेहद आवश्यक है. देश की सामाजिक संरचना का आकलन कर उसे अपने अनुकूल करने के लिए शासक वर्ग हमेशा से रणनीति बनाता रहा है.
इतिहास गवाह है कि किस तरह से अंगरेजों ने भारत की सामाजिक संरचना का बेहतरीन आकलन और इस्तेमाल कर अपनी सत्ता लंबे समय तक कायम रखी. समाजिक संरचना की विषमताएं या जटिलताएं शासक वर्ग को अनुकूल स्थितियां प्रदान करती हैं. यह बात औपनिवेशिक काल से लेकर उत्तर औपनिवेशिक काल तक में कई बार साबित हुई है.
बिहार की राजनीति में जाति का लंबे समय से अहम स्थान है. देश के तकरीबन हर प्रांत में चुनाव के वक्त उम्मीदवारों के चयन में जाति को ध्यान में रखा जाता है, पर बिहार में कई सीटों की उम्मीदवारी सिर्फ और सिर्फ जाति के आधार पर तय होती है. जातिगत आधार पर चुने उम्मीदवार चुनाव जीत कर संसद और विधानसभा में पहुंचते भी रहे हैं.
बिहार में जातिगत आधार पर चुनाव की जड़ें बेहद गहरी हैं. नबंवर, 1926 के काउंसिल चुनावों को अगर हम जातिगत वोटिंग पैटर्न का आधार मानें तो हम देखते हैं कि यह पैटर्न साल-दर-साल और मजबूत होता चला गया. 1927 में बोर्ड चुनाव के बाद तिरहुत के उस वक्त के कमिश्नर मिडलटन ने अपनी रिपोर्ट में इस बात के संकेत दिये थे कि उम्मीदवारों के चयन का आधार सिद्धांत या सामाजिक क्रियाकलाप नहीं है, बल्कि उनकी जाति है.
यह कहना सही नहीं होगा कि बिहार में 86 साल बाद भी हालात बदले नहीं हैं, लेकिन यह कहा जा सकता है कि चुनाव में जाति अब भी एक मुख्य फैक्टर है. अन्य पिछड़ा वर्ग को मंडल कमीशन के तहत आरक्षण देने के फैसले के बाद सूबे में जातीय ध्रुवीकरण हुआ था.
इस ध्रुवीकरण और पिछड़ों की अस्मिता के नाम पर लालू प्रसाद ने बिहार पर डेढ़ दशक तक राज किया. लेकिन लालू राज से त्रस्त लोगों ने विकास के नाम पर नीतीश कुमार को नायक बनाया. पर नीतीश कुमार समझते हैं कि जातिगत वोट बैंक के बिना राजनीति मुमकिन नहीं है. उन्होंने विकास के रास्ते पर चलते हुए अगड़ी जातियों, अति पिछड़ा, महादलित और पसमांदा मुसलमान के गठजोड़ की जमीन तैयार करने की लगातार कोशिश की.
ऐसे जातिगत समीकरणों के बीच मोदी की ‘हिंदू हृदय सम्राट’ और ‘विकास पुरुष’ की छवि को बिहार और यूपी में पेश तो किया जायेगा, लेकिन उनकी जाति को भी इससे जोड़ा जायेगा. दरअसल भाजपा यह मान कर चल रही है कि मोदी के हाल के बयानों के बाद मुसलिम वोटों का ध्रुवीकरण संभव है, लिहाजा मुसलिम वोटरों के बरक्स पिछड़ों का एक नया वोट बैंक तैयार किया जाये. पर विराट हिंदू समाज की बात करनेवाली पार्टी द्वारा तेली और पिछड़ों के नाम पर वोट मांगने की रणनीति बनाना उनके असली चाल, चरित्र और चेहरे को भी उजागर करता है.