इंटरनेट दुनियाभर में किस तरह हर किसी की जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन रहा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सात अरब से कुछ ही अधिक आबादी वाली इस दुनिया में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या करीब तीन अरब हो गयी है. आज के नॉलेज में डालते हैं नजर इंटरनेट के आविष्कार से लेकर इसके अब तक के सफर पर.
इंटरनेट आज बहुत से लोगों की जिंदगी में इस कदर पैठ बना चुका है कि इसके बिना रोजमर्रा की जिंदगी की कल्पना मुश्किल लगने लगी है. यह किस तेजी से दुनियाभर में फैल रहा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि करीब सात अरब आबादी वाली दुनिया में इंटरनेट का उपयोग करनेवालों की संख्या तीन अरब से अधिक हो गयी है. ‘इंटरनेट लाइव स्टेटस डॉट कॉम’ पर 30 नवंबर, 2014 को दुनिया में इंटरनेट यूजर्स की संख्या 3,01,85,00,000 यानी तीन अरब से अधिक बतायी गयी है. इससे पहले, इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन (आइटीयू) की हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि इस वर्ष के आखिर तक दुनियाभर में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या तीन अरब के आंकड़े को पार कर जायेगी. रिपोर्ट में पिछले वर्ष के मुकाबले इस संख्या में 6.6 फीसदी की बढ़ोतरी होने की उम्मीद जतायी गयी है. इंटरनेट यूजर्स की संख्या में होने वाली वैश्विक बढ़ोतरी की दर सभी देशों में एक समान नहीं है. विकासशील देशों में इनकी बढ़ोतरी दर ज्यादा है और तकरीबन दो-तिहाई इंटरनेट उपभोक्ता इन्हीं देशों में रहते हैं.
इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के मामले में भारत फिलहाल तीसरे नंबर पर है, जबकि चीन और अमेरिका क्रमश: पहले और दूसरे स्थान पर हैं. इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आइएएमएआइ) और आइएमआरबी इंटरनेशनल द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित रिपोर्ट ‘भारत में इंटरनेट- 2014’ में बताया गया है कि भारत में इस साल दिसंबर तक इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 30.2 करोड़ पहुंच जायेगी. यह संख्या सालाना 32 फीसदी की दर से बढ़ रही है. रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या एक करोड़ से 10 करोड़ पहुंचने में एक दशक से भी ज्यादा का समय लगा, लेकिन 10 करोड़ से 20 करोड़ पहुंचने में तीन साल और 20 करोड़ से 30 करोड़ पहुंचने में मात्र एक साल का वक्त लगा. रिपोर्ट के मुताबिक अक्तूबर, 2014 में भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 27.8 करोड़ थी. इसमें शहरी भारत में 17.7 करोड़, जबकि ग्रामीण भारत में 10.1 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे थे.
ग्रामीण इलाकों में पहुंच कम
ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट की पहुंच कम होने के कारण ज्यादातर ग्रामीण आबादी को अभी यह सुविधा पूरी तरह से मुहैया नहीं हो पायी है. जानकारों का कहना है कि पोस्ट ऑफिसों और पुस्तकालयों में मुफ्त इंटरनेट मुहैया कराते हुए ग्रामीण इलाकों में भी इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है. इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन (आइटीयू) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में मात्र 10 फीसदी डाक घरों में ही अब तक इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध हो पायी है. यदि इस फीसदी को बढ़ा कर 45 तक कर दिया जाये तो ग्रामीण आबादी का कम से कम एक -तिहाई हिस्सा इंटरनेट इस्तेमाल कर पाने में सक्षम होगा.
सफरनामा इंटरनेट का
इलेक्ट्रिक बल्ब और टेलीफोन जैसी परिवर्तनकारी तकनीकों की भांति इंटरनेट का आविष्कार भी किसी एक ‘आविष्कारक’ ने नहीं किया है. बल्कि इसका विकास क्रमिक तौर पर हुआ. ‘हिस्ट्री डॉट कॉम’ की रिपोर्ट के मुताबिक, इंटरनेट के आविष्कार की शुरुआत आज से करीब आधी सदी पहले उस समय हुई, जब अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध की स्थिति शुरू हुई. दरअसल, अमेरिकी सरकार मौजूदा इंटरनेट की भांति किसी तकनीक का आविष्कार करना चाहती थी, जिसे वह शीत युद्ध में हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सके. हालांकि, तमाम वैज्ञानिक व शोधकर्ता वर्षो से आपस में आंकड़ों का आदान-प्रदान करते रहे हैं और आज इंटरनेट हमारी जिंदगी में इतना घुसपैठ कर चुका है कि हम उसके बिना रह पाने के बारे में सोच भी नहीं सकते.
स्पुतनिक से सतर्क हुए अमेरिकी
4 अक्तूबर, 1957 को पूर्व सोवियत संघ ने दुनिया के पहले मानव-निर्मित सेटेलाइट को अंतरिक्ष की कक्षा में भेजा. हालांकि, स्पुतनिक नामक यह सेटेलाइट अपने मकसद में पूरी तरह सफल नहीं रहा, लेकिन धरती पर रेडियो सिगनल भेजने में इसे जरूर कामयाबी मिली. इसके बाद तो अमेरिका में खलबली मच गयी और अमेरिकी कर्ता-धर्ताओं के कान खड़े हो गये. अमेरिका में यह महसूस किया गया कि भले ही उनके पास वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की भारी फौज हो, जो बड़ी कारों और बेहतर टेलीविजन का निर्माण करने में तो सक्षम हैं, लेकिन सोवियत संघ ने ऐसी दुर्लभ जीच का आविष्कार कर लिया है, जो उसे शीत युद्ध में जीत दिला सकता है.
इस घटना के बाद अमेरिका में विज्ञान और तकनीक के बारे में गंभीरता से विचार किया जाने लगा. कॉरपोरेशंस यानी निगमों को सरकारी सहायता दी गयी, जिनका इस्तेमाल वे वैज्ञानिक शोधकार्यो में करने लगे. स्कूलों में केमिस्ट्री, फिजिक्स और कैलकुलस जैसे विषयों को शामिल किया गया. रॉकेट, आधुनिक हथियारों और कंप्यूटर जैसी अंतरिक्ष-युग की तकनीकों के विकास के लिए अमेरिकी फेडरल गवर्नमेंट ने नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) और डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंसेज एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी (अर्पा) जैसी एजेंसियों का गठन किया.
टेलीफोन सिस्टम पर हमले की आशंका
दरअसल, अमेरिकी वैज्ञानिक और सैन्य विशेषज्ञ इस बात से आशंकित थे कि राष्ट्रीय टेलीफोन सिस्टम पर सोवियत संघ के हमले से कैसे निपटा जा सकता है. उन्हें इस बात की चिंता थी कि लंबी दूरी की संचार सेवाओं को केवल एक मिसाइल के हमले से ध्वस्त किया जा सकता है. एमआइटी व अर्पा के वैज्ञानिक जेसीआर लिक्लाइडर ने 1962 में इसका उपाय खोजा और कंप्यूटरों के ‘गैलेंटिक नेटवर्क’ का इजाद किया, जिसके जरिये संवाद कायम किया जा सके. इस सिस्टम को कुछ इस तरह से विकसित किया गया था ताकि सोवियत संघ द्वारा टेलीफोन सिस्टम को नष्ट करने की दशा में भी अमेरिकी नेतृत्व आपस में इस माध्यम से संवाद जारी रख सके.
स्विच पैकेटिंग
1965 में एमआइटी के वैज्ञानिकों ने एक कंप्यूटर से दूसरे में आंकड़ों को भेजने के लिए एक तकनीक विकसित की, जिसे ‘पैकेट स्विचिंग’ कहा गया. पैकेट स्विचिंग आंकड़ों को अन्यत्र भेजने से पहले उन्हें ब्लॉक्स या पैकेट में बांट देता था. इस प्रकार सभी पैकेट को सही तरीके से भेजना आसान हो गया. मौजूदा अर्पानेट के नाम से प्रचलित यह सरकारी कंप्यूटर नेटवर्क उस दौर में टेलीफोन सिस्टम पर हमला होने के बावजूद संचालित होने में सक्षम था. अर्पानेट ने इसी क्रम में एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर में 1969 में पहला संदेश भेजा. इनमें से एक कंप्यूटर यूसीएलए के रिसर्च लैब में, जबकि दूसरा स्टैनफोर्ड में था. यूसीएलए के रिसर्च लैब से पहला संदेश ‘लॉगइन’ भेजा गया, लेकिन नेटवर्क में खामी होने की वजह से स्टैनफोर्ड स्थित दूसरे कंप्यूटर में केवल दो अक्षर ही पहुंच सके.
अर्पानेट से जोड़े गये चार कंप्यूटर
1969 के आखिर तक महज चार कंप्यूटरों को ही अर्पानेट से जोड़ा गया था, लेकिन 1970 के दशक में इसमें तेजी आयी. वर्ष 1971 में इसे यूनिवर्सिटी ऑफ हवाई के एलोहनेट व उसके दो वर्ष बाद लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज और नॉर्वे के रॉयल राडार एस्टेब्लिशमेंट से जोड़ा गया. अभी भी पैकेट स्विच्ड कंप्यूटर नेटवर्क से आंकड़ों को भेजने में काफी दिक्कतें आती थीं.
मौजूदा इंटरनेट की ईजाद
1970 के दशक के आखिर में कंप्यूटर वैज्ञानिक विंटन सर्फ ने कंप्यूटरों को दुनिया के मिनी-नेटवर्क से जोड़ने की दिशा में कामयाबी पायी. उन्होंने अपने आविष्कार को ‘ट्रांसमिशन कंट्रोल प्रोटोकॉल’ नाम दिया, जिसे आगे चल कर ‘इंटरनेट प्रोटोकॉल’ का नाम दिया गया. सर्फ के प्रोटोकॉल को ही इंटरनेट के प्रारूप में परिवर्तित करते हुए दुनियाभर में इसका नेटवर्क कायम किया गया. 1980 के दशक में शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने आंकड़ों और फाइलों को एक कंप्यूटर से दूसरे में भेजने के लिए इसका इस्तेमाल किया.
वर्ल्ड वाइड वेब की ईजाद
1991 में इंटरनेट में एक बार फिर से पूरी तरह से बदलाव आया. स्विट्जरलैंड के कंप्यूटर प्रोग्रामर टिम बर्नर्स ली ने ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ (डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू) की ईजाद की. वर्ल्ड वाइड वेब से न केवल फाइलों को भेजना आसान हो गया, बल्कि आज हम जिस इंटरनेट को जानते हैं, उसकी रचना भी बर्नर्स ली द्वारा ही की गयी थी. उसके बाद से इंटरनेट में कई तरीके से बदलाव आया है.
आधुनिक वेबसाइट का विकास
यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनॉइस के छात्रों के एक समूह और शोधकर्ताओं ने 1992 में सोफिस्टिकेटेड ब्राउजर का विकास किया, जिसे मोजैक नाम दिया गया. बाद में इसका नाम नेटस्केप हो गया. मोजैक ने वेबसाइट पर सर्च के आसान तरीके उपलब्ध कराये. इसने लोगों को पहली बार पेज पर शब्दों और चित्रों को देखने व स्क्रॉलबार के इस्तेमाल से उस पर क्लिक करने के लिए लिंक मुहैया कराया. अमेरिकी सरकार ने उसी समय यह फैसला लिया कि वेब को कारोबारी मकसद से इस्तेमाल में लाया जा सकता है. नतीजन, कई कंपनियां अपना वेबसाइट बनाने में जुट गयीं और कारोबारियों ने सीधे ग्राहकों को सामान बेचने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल शुरू कर दिया.