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‘तो गाँव की हर औरत लखपति होती..’

पी साईनाथ और अनन्या मुखर्जी बीबीसी हिन्दी डॉटकॉम के लिए जॉर्ज मोनबाएट ने कहा है कि अगर धन कठिन परिश्रम और व्यवहार कुशलता का परिणाम होता तो अफ्रीका की प्रत्येक महिला लखपति होती. भारत की अर्थव्यवस्था में गांवों की अहम भूमिका है और गांवों की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका पुरुषों से ज़्यादा है. यानी […]

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जॉर्ज मोनबाएट ने कहा है कि अगर धन कठिन परिश्रम और व्यवहार कुशलता का परिणाम होता तो अफ्रीका की प्रत्येक महिला लखपति होती.

भारत की अर्थव्यवस्था में गांवों की अहम भूमिका है और गांवों की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका पुरुषों से ज़्यादा है.

यानी ग्रामीण महिलाएं भारत की अर्थव्यवस्था की धुरी हैं, लेकिन उनकी मुश्किलों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता. न ही समाज का और न ही सरकार का.

उनकी कामकाजी ज़िंदगी के बहाने उनकी न ख़त्म होने वाली मुश्किलों की पड़ताल विशेष सिरीज़ के तहत तीन पार्ट में कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ और अनन्या मुखर्जी.

साईनाथ और अनन्या के विश्लेषण का पहला पार्ट

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वह करीने से खड़ी है, पत्थरों के तीन टुकड़ों और उस पर रखे लकड़ी के टुकड़े पर. पत्थर बेढंगे हैं, लेकिन लकड़ी के टुकड़े के चलते वह खड़ी हो पा रही है.

ये महाराष्ट्र के यवतमाल ज़िले के एक ग्रामीण परिवार की महिला है जो पानी के टैंक के पाइप से ज़्यादा से ज़्यादा पानी हासिल करने की कोशिश में है.

आश्चर्यजनक धैर्य और संतुलन दिखाते हुए उसने एक बर्तन अपने सिर पर रखा है, उसे भरने के बाद वो ज़मीन पर रखे बर्तन में पानी भर रही हैं.

दोनों बर्तनों के भर जाने के बाद, वो अपने घर जाती हैं. पानी को संग्रह कर फिर लौटती हैं. हर बार वो 15 से 20 लीटर पानी ले जाती हैं और इस दौरान आधे किलोमीटर की दूरी तय करती हैं.

शारदा की मुश्किल

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इसी राज्य के अमरावती ज़िले में, शारदा बादरे और उनकी बेटियां संतरे के पौधों को पानी देने के लिए सालों से मुश्किल का सामना कर रही हैं.

पानी का स्रोत तो महज 300 मीटर की दूरी पर है. गंवई अंदाज़ में कहें तो घर से सटे दूसरे दरवाजे जितना दूर.

लेकिन शारदा बताती हैं कि पौधों में देने के लिए 214 बड़े बर्तन जितना पानी चाहिए होता है.

यानी उन्हें कुल 428 चक्कर लगाने पड़ते हैं. इनमें से आधे बार तो उनके सिर पर पानी से भरा बर्तन होता है.

घर की तीन महिलाओं में प्रत्येक को 40 किलोमीटर से ज़्यादा की दूरी तय करनी होती है.

परिश्रम

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ऐसे में आधे पौधों में शारदा का परिवार सोमवार को पानी डालता है और बाक़ी के आधे पौधों में गुरुवार को.

इनके अलावा उन्हें पूरे दिन खेतों में काम करना होता है. अप्रैल-मई के महीने में तो तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है.

अगर परिश्रम और व्यवहार कुशलता से कोई धनी बन सकता, तो गांवों में रहने वाली प्रत्येक महिला को लखपति होना चाहिए.

इन महिलाओं को दकियानूसी सोच और पिछले दो दशकों के दौरान गांव में आने वाले बदलावों का असर भी झेलना पड़ा है.

पुरुषों से कम नहीं

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आर्थिक विकास में ग्रामीण महिलाओं के योगदान का होना चाहिए आकलन.

इन महिलाओं की मुश्किलों के बारे में हमारे लेखकों को आकलन करना चाहिए कि किस तरह खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण संबंधी मसलों और एकजुट आर्थिक विकास की समस्याओं के निदान में उल्लेखनीय भूमिका निभाने के बाद भी उनकी मुश्किलें बनी हुई हैं.

ग्रामीण इलाकों में पानी का संकट बना हुआ है. एक तो पानी के स्रोत सूखते जा रहे हैं और इसके अलावा अब ज़्यादा पानी उद्योग धंधे और शहरों में भेजा जा रहा है.

ऐसे में बादरे और उनकी बेटियों जैसी लाखों महिलाओं को पानी के लिए काफी ज़्यादा दूरी तय करना पड़ती है.

ग्रामीण इलाकों की गरीब महिलाएं ऐसा हमेशा करती हैं और दुनिया के हर कोने में करती हैं.

ग्रामीण अर्थव्यवस्था

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ग्रामीण इलाकों की कई महिलाएं अपनी ज़िंदगी का एक तिहाई हिस्सा तीन कामों पर खर्च करती हैं- पानी लाने, जलावन एकत्रित करने और चारा जमा करने पर.

इसके अलावा भी वे काफी कुछ करती हैं. ग्रामीण इलाकों में लाखों परिवारों की अर्थव्यवस्था इन महिलाओं की मेहनत पर निर्भर होती है.

केरल के दूरदराज इलाके इदामालाकुडी में 60 महिलाएं एकत्रित हुईं, अपने गांवों में सैकड़ों सोलर पैनल के जरिए बिजली लाने के लिए.

इन महिलाओं ने, सोलर पैनलों को अपने सिर पर रखकर 18 किलोमीटर दूर मुन्नार के पत्तीमुदी से अपने गांव तक की दूरी तय की.

जंगल और जंगली हाथियों के इलाके से गुजरने वाली इन महिलाओं में ज़्यादातर निरक्षर थीं, सभी आदिवासी थीं, लेकिन ये अपने ग्राम पंचायत को ये समझाने में सफल रहीं कि सौर ऊर्जा ज़रूरी है.

महिलाओं पर बढ़ता बोझ

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प्रत्येक सोलर पैनल का वजन 9 किलोग्राम था और प्रत्येक महिला ने दो पैनल उठाए थे.

करीब 40 किलोग्राम की इन महिलाओं के लिए ये अपने से आधे वज़न को ढोना था.

पिछले दो दशक के दौरान ग्रामीण इलाकों में जो बदलाव आए हैं, उसका असर भी इन महिलाओं पर देखने को मिला है.

परिवार के पुरुषों द्वारा पलायन करने पर खेती किसानी के काम का बोझ महिलाओं पर बढ़ा है.

महिलाओं को परंपरागत तौर पर दुग्ध पालन और मुर्गी पालन तो करना ही पड़ता है, अब उन्हें फसल उपजाने में भी लगना पड़ रहा है.

ऐसे में उनके पास अपने मवेशियों के लिए कम वक्त होता है.

श्रम में हिस्सेदारी

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1990 के दशक तक कृषि में बीज बोने वाली महिलाएं 76 फ़ीसदी शामिल थीं, जबकि धान रोपनी में 90 फ़ीसदी महिलाएं शामिल होती थीं.

खेत से घर तक अनाज लाने वाले मज़दूरों में 82 फ़ीसदी हिस्सेदारी महिलाओं की होती थी.

खेती किसानी करने वालों में 32 फ़ीसदी हिस्सा महिला मज़दूरों का था, जबकि दुग्ध पालन में 69 फ़ीसदी महिला मज़दूर शामिल थीं.

अब निश्चित तौर पर महिलाओं के लिए काम का बोझ बढ़ गया होगा.

जॉर्ज मोनबाएट ने कहा है, "अगर धन कठिन परिश्रम और व्यवहार कुशलता का परिणाम होता तो अफ्रीका की प्रत्येक महिला लखपति होती." यह दुनिया भर की गरीब महिलाओं का सच है.

(ग्रामीण इलाकों की कामकाजी महिलाओं की समस्या और उनकी चुनौती पर दूसरा एवं तीसरा पार्ट जल्द ही, बीबीसी हिंदी पर)

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