हमारे यहां स्कूल स्तर पर सामान्यत: तीन भाषाओं को पढ़ाने का चलन है. ये तीन भाषाएं कौन-सी होंगी? यह प्रश्न विवादित ही रहा है. ज्यादातर स्कूलों में हिंदी, अंगरेजी और एक अन्य भाषा को पढ़ाया जाता है. यह अन्य भाषा कोई क्षेत्रीय भाषा या अंतरराष्ट्रीय भाषा हो सकती है.
हालिया विवाद इस बात का है कि सरकार द्वारा केंद्रीय विद्यालयों को जर्मन के स्थान पर संस्कृत पढ़ाने का आदेश दिया गया है. इस विवाद को राज्य की ‘आइडियालॉजी’ को थोपने और व्यावसायिक दृष्टि से गैर महत्वपूर्ण भाषा को पढ़ने के लिए मजबूर किये जाने के रूप में उभारा जा रहा है. इस ज्वलंत मुद्दे पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति प्रो गिरीश्वर मिश्र से ऋ षभ कुमार मिश्र ने बातचीत की. प्रो मिश्र का मानना है कि इस मुद्दे पर विवाद किसी के हित में नहीं है. संस्कृत दूसरी भाषाओं के विकास में भी सहायक है. इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए. प्रस्तुत है प्रो मिश्र से बातचीत का अंश जो आज के परिवेश में स्कूल स्तर पर संस्कृत शिक्षण के औचित्य पर प्रकश डालता है.
स्कूल स्तर पर सीखने-सिखाने की प्रक्रि या में ‘भाषाओं’ की क्या भूमिका होती है?
भाषा प्रतीकों की एक कृत्रिम रचना है, पर ऐसी और इतनी समर्थ रचना जिसका कोई जवाब नहीं. वह अपने आपको और अपने पास और दूर की दुनिया को देखने-सुनने, समझने-समझाने का एक लचीला औजार या उपकरण है. इस रूप में भाषा बच्चे के जीवन में एक महान आश्चर्य के रूप में प्रवेश करती है, जो उसकी दुनिया को हमेशा के लिए बदल डालती है. भाषा की शक्ति पाकर बच्चा भावना और ज्ञान दोनों से ‘डील’ करने और व्यक्त करने में सक्षम हो जाता है. वह भाषा के सहारे मूर्त व्यवहार की भौतिक सीमा के पार जाकर अमूर्त स्तर पर भी काम करने लगता है. साथ ही सोचने और भविष्य की कल्पना भी उसके लिए सुकरता से संभव हो जाती है. पर सबसे बड़ी बात यह है कि विभिन्न विषयों का ज्ञान भाषा में ही संजोया गया है और उस तक पहुंचना केवल भाषा के सहारे ही संभव हो पाता है. इस तरह भाषा हमारे लिए संभावनाओं के अनंत द्वार खोलती है. वह अपने में व्यवहार भी है और व्यवहार करने का माध्यम भी. इन दोनों ही भूमिकाओं में उसका कोई विकल्प नहीं. बाद में भाषा व्यक्ति और समाज के अस्तित्व से जुड़ कर, उसकी पहचान से एकाकार हो जाती है. स्कूल में भाषा का अध्ययन ज्ञान मार्ग पर यात्र में आगे बढ़ने के लिए आवश्यक तैयारी के साथ-साथ देश, उसकी संस्कृति, परंपरा और पहचान से भी जुड़ा हुआ है. समाज के अंग बनाने के लिए उसकी भाषा में जीना जरूरी है और भाषा छीन कर या नयी या परायी भाषा देकर हम संस्कृति को भी बदल सकते हैं.
आपने अभी जिन भूमिकाओं की चर्चा की क्या संस्कृत भाषा उसमें से फिट बैठती है? यदि हां तो किस प्रकार से?
हर भाषा का अपना इतिहास होता है और ज्ञान के विस्तार और समावेश की दृष्टि से उसकी सामथ्र्य का विस्तार भी अलग-अलग होता है. इस तरह देखें तो संस्कृत भाषा के ज्ञान-लोक में बहुत कुछ मौजूद है. उदाहरण के लिए महाकाव्य, नाट्य शास्त्र, दर्शन, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, योग, व्याकरण, साहित्य, गणित, नीति शास्त्र आदि अनेक विषयों में ऐसा प्रचुर ज्ञान का स्रोत विद्यमान है, जो मात्र सैद्धांतिक न हो कर उपयोगी भी है. इसकी ओर पूरे संसार की नजर लगी है. भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत की कल्पना इनके बिना नहीं की जा सकती. इसे संजोना सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व है. संस्कृत के माध्यम से हम ज्ञान की इस समृद्ध दुनिया में प्रवेश पा सकते हैं. भाषा की दृष्टि से भी संस्कृत अपने व्याकरण के लिए विश्वप्रसिद्ध है. साथ ही भारत की अनेक भाषाओं के साथ इसका बड़ा गहरा रिश्ता है और आंतरिक एकसूत्रता का आभास होता है. संस्कृत का अध्ययन अनेक भाषाओं के अध्ययन के लिए लाभप्रद है. शब्द भंडार और उच्चारण आदि के लिए भी संस्कृत भाषा का संस्कार उपयोगी है. संस्कृत न जानते हुए हम बहुत कुछ जो अच्छा है उससे वंचित हो जायेंगे. तमाम तरह की विविधताओं के बावजूद वह विशाल भारतीय समाज को जोड़ती है. इसे खोना भारतीय होने की दृष्टि से ही नहीं संपूर्ण मानवता की दृष्टि से भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा क्योंकि संस्कृत में चिंतन की प्रबल परंपरा है जो उदारता, पूरी सृष्टि पर ध्यान, परस्पर अनुपूरकता और विचार की गंभीरता पर बल देती है.
प्राय: संस्कृत को ‘ब्राह्मणों की भाषा’, ‘जटिल भाषा’, ‘मृत हो रही भाषा’, ‘व्यावसायिक दृष्टि से गैर महत्वपूर्ण’ के रूप में देखा जाता है. संस्कृत से जुड़े इन आग्रहों को आप किस प्रकार देखते हैं?
ये आरोप नासमझी के चलते लगाये जाते हैं और केवल आधे सच का ही बयान करते हैं. संस्कृत को सिरे से खारिज कर इस तरह के दुराग्रह उस ‘आइडियालॉजी’ के कारण हैं जो बिना विचार किये आरोप मढ़ती है कि भारत का भाव अनुपादेय है और पश्चिम से ली गयी आधुनिकता में ही भविष्य देखती है भले ही वह दृष्टि वहीं पर क्यों न खारिज हो चुकी हो. वह आत्म-संशय से ग्रस्त है. मेरी दृष्टि में संस्कृत एक समृद्ध भाषा है, भारतीय संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा है और उसमें रचा-बसा ज्ञान संपदा का कोष भी है. इसमें बहुत कुछ ऐसा है जिस पर देश को गर्व होना चाहिए और जो विश्व की धरोहर है.
संस्कृत भाषा को पढ़ाया जाना सीखने के लिए किस प्रकार का अवसर देगा?
संस्कृत की पढ़ाई सांस्कृतिक रूप से संपन्न और व्यापक नजरिये को स्थापित करने में सहायक होगी. वह मनुष्यता के अर्थ को समझने में भी सहायक होगी और अपने संपूर्ण परिवेश से जुड़ने के लिए प्रेरित करेगी. जो अशिव है उसके प्रतिकार के लिए सक्षम बनायेगी. साथ ही वह भारतीय साहित्य, संगीत और कला का रस ग्रहण करने के लिए उत्सुक भी बनायेगी. संस्कृत का पाठ्यक्र म इसी दृष्टि से बनाना चाहिए.