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तभी एनडीए को मिलेगी मजबूती

।। राकेश सिन्हा ।।(राजनीतिक विश्लेषक) गंठबंधन के दौर में दो ध्रुवों में बंटी है देश की राजनीतिभाजपा-जदयू का 17 वर्ष पुराना गंठबंधन टूटने के बाद अब यह आंका जा रहा है कि आखिर चूक कहां हुई और गलती किसकी थी. हालांकि, राजनीति में ऐसे गंठबंधन बनते-बिगड़ते रहते हैं. वैसे भी यह दोस्ती विचारों पर आधारित […]

।। राकेश सिन्हा ।।
(राजनीतिक विश्लेषक)

गंठबंधन के दौर में दो ध्रुवों में बंटी है देश की राजनीति
भाजपा-जदयू का 17 वर्ष पुराना गंठबंधन टूटने के बाद अब यह आंका जा रहा है कि आखिर चूक कहां हुई और गलती किसकी थी. हालांकि, राजनीति में ऐसे गंठबंधन बनते-बिगड़ते रहते हैं. वैसे भी यह दोस्ती विचारों पर आधारित नहीं, बल्कि इसका आधार बिहार की राजनीति में लुप्त होता हुआ विकास के कार्यक्रम को गति देना और बढ़ते हुए जंगलराज को समाप्त करना था.

भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना है कि राजनीतिक दल बुनियादी मुद्दों को छोड़कर महत्वाकांक्षा की लड़ाई लड़ते हैं. जदयू और भाजपा का गंठबंधन टूटना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.

निश्चित रूप से 17 वर्ष पुराना यह गंठबंधन विचारों पर आधारित नहीं, बल्कि इसका आधार बिहार की राजनीति में लुप्त होता हुआ विकास के कार्यक्रम को गति देना और बढ़ते हुए जंगलराज को समाप्त करना था. इस पैमाने पर गंठबंधन एक सफल प्रयोग था.

राष्ट्रीय स्तर पर देश की राजनीति गंठबंधन के दौर में दो ध्रुवों में बंटी हुई है, जिसमें से एक ध्रुव का नेतृत्व कांग्रेस और दूसरे का भाजपा करती आयी है. लेकिन जिस वैचारिक प्रश्न पर गंठबंधन टूटा, वह सिर्फ राजनैतिक महत्वाकांक्षा को ढंकने का मुखौटा मात्र है. गंठबंधन टूटने का कारण नरेंद्र मोदी की शख्सीयत को बताया गया.

वर्ष 2002 के दंगे को सामने रखकर नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी को उसी तरह बिहार से बाहर रखना चाहते थे, जैसे अमेरिका मोदी को वीजा देने से कतराता रहा है. हालांकि यूरोप के अधिकांश देश एवं स्वयं अमेरिका के सीनेट ने भी अपने निर्णय को बदलने का काम किया है, जबकि जदयू का दुराग्रह इस हद तक था कि बिहार में भाजपा के लोग मोदी का नाम तक न लें.

मोदी के प्रति सहमति या विरोध का भाव न तो अनैतिक है और न ही अवैधानिक. लोकतंत्र में ऐसा होता है, होना भी चाहिए. लेकिन विरोध जब दुराग्रह का रूप ले लेता है तब लोकतंत्र की मर्यादाओं का हनन होता है. क्या कोई भी राजनीतिक दल इस बात को सहन कर सकता है कि उसके ही सहयोग से चल रही राज्य सरकार उसके किसी चुने हुए मुख्यमंत्री को राज्य में आने से प्रतिबंधित कर दे.

भाजपा की सबसे बड़ी गलती तब हुई, जब वर्ष 2010 में नरेंद्र मोदी के कारण पूरी कार्यसमिति को दिये गये भोज का निमंत्रण नीतीश कुमार ने रद्द कर दिया. यहीं से मतभेद का बीज दोनों दलों के जमीनी कार्यकर्ताओं में पनपने लगा.

इसकी परिणति इस गंठबंधन के टूटने के रूप में हुई. आज की परिस्थिति में गैर कांग्रेसवाद की आवश्यकता सिर्फ इसलिए नहीं थी कि कांग्रेस को विस्थापित किया जाये. बल्कि जिन बुनियादी प्रश्नों पर 1967 में कई राज्यों में गैर काग्रेसी सरकारें बनीं, 1977 में जनता पार्टी का गठन हुआ, और 1989 में जनमोरचा के साथ वामपंथी और दक्षिणपंथी दल भी जुड़े. वे सभी प्रश्न विकराल रूप में आज भी खड़े हैं. भ्रष्टाचार, काला धन, संवैधानिक संस्थाओं में गिरावट, आंतरिक सुरक्षा जैसे प्रश्न पर राजनीतिक एकजुटता का प्रतीक एनडीए को मजबूत करने की आवश्यकता थी.

लेकिन इसे नियति कहें या षड्यंत्र का हिस्सा, ये बुनियादी सवाल पृष्ठभूमि में चले गये हैं, और होने वाले प्रधानमंत्री के धर्मनिरपेक्ष चेहरा का विषय देश पर थोप दिया गया है. इसके लिए भाजपा कतई जिम्मेवार नहीं है. जब देश संकट से गुजरता है तो वैचारिक प्रश्नों पर आंख-कान बंद कर लेना चाहिए.

1967 का गंठबंधन इसका उदाहरण है. आज राजनीति में आपद धर्म का काल है, जब कांग्रेस विरोधी राजनीतिक दलों को एकजुटता दिखाने का समय है. आज धर्मनिरपेक्षता का सवाल सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए किया जाता है, जो कांग्रेस के हित को साधता है. कांग्रेस और भाजपा द्वारा किये गये गंठबंधन में गुणात्मक अंतर है. कांग्रेस गंठबंधन के साथियों के अस्तित्व को मिटा देती है, जबकि भाजपा ने वैचारिक प्रश्नों पर मौन साधकर भी गंठबंधन धर्म को निभाया.

जदयू के जाने से भले ही एनडीए में एक घटक की कमी हो गयी है, लेकिन यह भाजपा के संगठनात्मक और वैचारिक हित में नीतीश का भाजपा के साथ धृतराष्ट्र आलिंगन साबित हो रहा था. संभवत: जदयू भाजपा के समर्थन आधार को खत्म कर देती, यदि इसके पीछे आरएसएस का विचार और ताकत खड़ी नहीं रहती. इस गंठबंधन का टूटना भाजपा के वैचारिक अवकाश का समाप्त होने के समान है.

गंठबंधन आवश्यक है, ऐसी परिस्थिति में चुनाव पूर्व व चुनाव बाद स्वत: ध्रुवीकरण होगा. जब गंठबंधन में स्थायित्व आता है तो गंठबंधन संघीय (फेडरल) पार्टी के तौर पर खड़ा होता है. भाजपा एक बड़े आंदोलन का हिस्सा है, जिसके मूल में देश में वैचारिक परिवर्तन का आह्वान है. पार्टी की यह विरासत भी है, वर्तमान भी, और भविष्य भी. इसलिए समानधर्मी पार्टियां अकाली दल व शिवसेना इस गंठबंधन के स्वाभाविक अंग हैं.

जदयू ने समाजवादी आंदोलन और व ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया को तोड़ने का काम किया है. 1967 में लोहिया ने दीनदयाल उपाध्याय से हाथ मिलाकर वैचारिक अस्पृश्यता को नुकसानदायक माना. 1974 में जेपी ने संघ के साथ कंधा मिलाकर वैचारिक सहअस्तित्व की प्रक्रिया शुरू की थी और आगे चलकर जार्ज ने छद्म धर्मनिरपेक्षता को उजागर करते हुए भाजपा और समाजवादियों के बीच सहयोग को प्रगाढ़ किया.

इसी प्रकार संवाद की प्रक्रिया से राजनीतिक विचारधाराओं का स्वस्थ विकास होता है. इसे नीतीश ने मधु लिमये और रघु ठाकुर की भूमिका को पुनर्जीवित कर तोड़ने का काम किया है. भाजपा की राजनीतिक शक्ति जिस अनुपात में बढ़ेगी, उसी अनुपात में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में चुंबकीय प्रभाव भी बढ़ेगा. एनडीए को उन संभावनाओं को तलाशना होगा जो भाजपा को क्षेत्रीय सीमाओं को दूर करने में सहायक सिद्ध हो.

एआइडीएमके और बीजू जनता दल महत्वपूर्ण सहयोगी साबित हो सकते हैं. लेकिन यह चुनाव जनता की उस मनोकांक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकती जो उसकी उप चेतना में पढ़ा जा सकता है. एक लंबे समय से देश की राजनीति में गिरावट एवं अस्थिरता ने एक दल के शासन की इच्छा को जनता की उप चेतना में पुनर्जीवित किया है. इसके कारण यह देश मजबूत गंठबंधन की जगह भाजपा को महत्वपूर्ण शक्ति देगा, जो गंठबंधन के छोटे होते हुए स्वरूप से मुक्त कर देगा.
(बातचीत: संतोष कुमार सिंह)

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