काले धन का मुद्दा पिछले कुछ सालों से भारतीय राजनीति में छाया हुआ है. इसकी मात्रा और वापसी को लेकर दावों और इन दावों पर सवाल उठाने का दौर लगातार जारी है.
आख़िर क्या है यह काला धन, इसका इतिहास और कैसे वापस आ सकता है यह काला धन?
विश्लेषण- ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल के आशुतोष मिश्रा:
काला धन क्या है?
काला धन दरअसल, वह आय है जिस पर टैक्स की देनदारी बनती है, लेकिन इसकी जानकारी इनकम टैक्स विभाग को नहीं दी जाती.
ऐसा धन न केवल इस मायने में घातक है कि यह विदेशों में जमा हो, बल्कि इसका इस्तेमाल आतंकवाद, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने और आने वाले समय में राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता पैदा करने के लिए हो सकता है.
भारत में काले धन का इतिहास
भारत में काला धन 1970 के दशक से ही सुर्खियों में बना रहा है. 80 के दशक में बोफ़ोर्स घोटाले के बाद इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाया जाने लगा. इसके बाद, हर चुनाव में राजनेता काले धन के बारे में बात करते रहे हैं.
2009 और 2014 के आम चुनावों में भाजपा ने इस मुद्दे को पूरी ताक़त से उठाया और उसे इस पर बाबा रामदेव समेत समाज के कई तबक़ों से समर्थन मिला.
राजनीतिक फ़ायदा उठाने के लिए इस मुद्दे को आसान भाषा में लोगों के सामने पेश किया गया, लेकिन यह उतना आसान नहीं है, जैसा कि दिखता है.
काले धन के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका डाली गई, हिचकिचाहट के बावजूद न्यायपालिका के आदेश पर सरकार को इस मुद्दे पर विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन करना पड़ा.
अब सरकार ने विदेशी बैंकों के 627 खातेधारकों के नाम सुप्रीम कोर्ट को बताए हैं. कुछेक खाताधारकों को छोड़कर सरकार ने सूची में शामिल लोगों के नाम उजागर नहीं किए हैं और इसकी वजह वही बताई है जो कि यूपीए सरकार ने बताई थी.
डीटीएए पर रुख़ सही नहीं
सरकार का कहना है कि खातेधारकों का नाम उजागर करने से अंतरराष्ट्रीय दोहरा कराधान बचाव संधि (डीटीएए) का उल्लंघन होगा. लेकिन हक़ीक़त यह नहीं है.
ये नाम सरकार को फ़्रांस और जर्मनी की सरकारों से मिले हैं न कि डीटीएए के माध्यम से. हर आज़ाद देश को अधिकार है कि उन नामों को उजागर करे जिन्होंने कर चोरी की है.
पूर्ववर्ती और मौजूदा सरकारों ने विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के संजीदा प्रयासों के बजाय इसे राजनीतिक भभकी के रूप में इस्तेमाल किया है.
काले धन के स्रोत का पता लगाना इसका निवेश या इसे बैंकों में जमा करना काफ़ी जटिल मुद्दा है.
पता लगाना मुश्किल
स्विटज़रलैंड और लिचटेंस्टीन में जमा काले धन का पता लगाना बहुत मुश्किल है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में निवेश की दिशा में बदलाव आया है और इसका रुख़ मध्य पूर्व देशों और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की तरफ़ हो गया है.
क्योंकि काले धन की जानकारी किसी को नहीं है, इसलिए यह कितना होगा, इसका पता लगाना बहुत मुश्किल है.
इसकी वजह यह है कि यह संबंधित देशों के रुख़ पर निर्भर करता है और यह भी सारे विदेशी खातों को ग़ैरक़ानूनी खातों की सूची में नहीं डाला जा सकता.
रणनीति का अभाव
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार के पास काले धन पर अंकुश लगाने की कोई रणनीति नहीं है. यहां तक कि भारत में काले धन के निवेश पर भी. चाहे यह बैंकों में रखा गया हो या रियल एस्टेट यानी प्रॉपर्टी में लगाया गया हो.
घरों की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी काले धन का ही परिणाम है.
कई स्टिंग ऑपरेशंस में भी इस बात का ख़ुलासा हुआ है कि काले धन को किस तरह से भारतीय बैंकों, शेयर बाज़ार और उद्योगों में लगाया गया है.
इस समस्या से निपटने के लिए लंबी अवधि की रणनीति बनाए जाने की ज़रूरत है. इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि हम काले धन के स्रोतों को ख़त्म नहीं कर सकते.
इसका सबसे अच्छा तरीक़ा कर सुधार और मौजूदा क़ानूनों को प्रभावी तरीक़े से लागू करना होगा. पश्चिमी देशों के मुक़ाबले भारत में क़ानून लागू करना हमेशा से ही मुश्किल रहा है.
‘बीमारी’ का इलाज
इस बीमारी के इलाज के लिए लंबी अवधि की रणनीति की ज़रूरत है और इसे केवल राजनीतिक मजबूरी नहीं मान लेना चाहिए.
भारत ने संयुक्त राष्ट्र की भ्रष्टाचार निरोधी संधि का हस्ताक्षर किए हैं. लेकिन अब तक इस संबंध में कोई क़ानून नहीं बने हैं.
पिछली सरकार ने जिन विधेयकों का प्रस्ताव दिया था, वो कभी भी संसद के दोनों सदनों में पेश नहीं हो सके.
भारत को उस काले धन को रोकने की ज़रूरत है जो क़ानूनी ख़ामियों के चलते बन रहा है.
यदि ऐसा नहीं होता तो भारत विदेशी बैंकों ही ध्यान लगाता रहेंगा और कर चोर इस काले धन को किसी और बाज़ार या देश में ले जाना शुरू कर देंगे.
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