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ईरान में सुधारों की आस

।। अवधेश आकोदिया ।। (वरिष्ठ पत्रकार) – ईरान में शासन की कमान सर्वोच्च धर्मगुरु (अभी अयातुल्लाह खामेनेई) के हाथों में होती है, फिर भी वहां के राष्ट्रपति चुनाव पर दुनिया की नजर थी. सभी लंबे समय से पश्चिमी दुनिया से दुश्मनी मोल लेकर प्रतिबंधों का सामना कर रहे ईरान की जनता का मूड जानना चाह […]

।। अवधेश आकोदिया ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
– ईरान में शासन की कमान सर्वोच्च धर्मगुरु (अभी अयातुल्लाह खामेनेई) के हाथों में होती है, फिर भी वहां के राष्ट्रपति चुनाव पर दुनिया की नजर थी. सभी लंबे समय से पश्चिमी दुनिया से दुश्मनी मोल लेकर प्रतिबंधों का सामना कर रहे ईरान की जनता का मूड जानना चाह रहे थे. इस चुनाव में उदार छविवाले हसन रूहानी की बड़ी जीत इशारा करती है कि ईरान की जनता अब अधिक खुले माहौल में जीना चाहती है. हालांकि जजर्र आर्थिक हालात, महंगाई और बेरोजगारी से पार पाना रूहानी के लिए आसान नहीं होगा. इसी विषय पर है, आज का नॉलेज. –

तेहरान की सड़कों पर बैंगनी कपड़े पहने हसन रूहानी जिंदाबाद के नारे लगा रहे युवाओं को न तो रोजगार की फिक्र है और न ही कमरतोड़ महंगाई की चिंता. उन्हें उम्मीद है कि नये राष्ट्रपति उनकी ही नहीं, बल्कि मुल्क की तकदीर भी संवार देंगे. युवाओं के इस भरोसे का ही नतीजा है कि हसन रूहानी ने ईरान के राष्ट्रपति चुनाव में ऐतिहासिक जीत हासिल की है. उन्हें करीब एक करोड़ 86 लाख मत मिले, जो कुल मतदान का 50.68 फीसदी है. यानी दूसरे दौर के मतदान के बिना ही रूहानी जीत गये. गौरतलब है कि ईरान में राष्ट्रपति चुनाव में मतदान के दो दौर होते हैं. यदि कोई उम्मीदवार पहले चरण में ही कुल मतदान के 50 प्रतिशत से अधिक वोट प्राप्त कर ले, तो दूसरे चरण की आवश्यकता नहीं होती. देश के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह खामेनाई 3 अगस्त को इस परिणाम की पुष्टि करेंगे, जिसके बाद रूहानी विधिवत रूप से ईरान के राष्ट्रपति बन जाएंगे.

हसन रूहानी की जीत ने ईरान की राजनीति के कई मिथकों को तोड़ा है. जीत का गणित बिठाने के लिए उनके पास न तो सरकारी तंत्र था और न ही सर्वोच्च नेता खामेनेई का वरदहस्त. उनका मुकाबला कुल 6 उम्मीदवारों से था, लेकिन उनके सामने कोई नहीं टिक पाया. राष्ट्रपति चुनाव के लिए कुल 686 उम्मीदवारों में से गार्डियन काउंसिल ने 8 को ही चुनाव लड़ने के योग्य माना गया. गार्डियन काउंसिल ईरानी राष्ट्रपति के चुनाव पर निगरानी रखने वाली सर्वोच्च संस्था है, जिसे राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों को अयोग्यता के आधार पर प्रतिबंधित करने का अधिकार है.

काउंसिल की कवायद ने रूहानी की राह आसान कर दी, क्योंकि जिन नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किया गया उनमें राष्ट्रपति अहमदीनेजाद के करीबी सहयोगी एफसंदार रहीम मशाई और पूर्व राष्ट्रपति हाशमी रफसंजानी सरीखे बड़े नाम भी शामिल थे. मतदान से पहले दो और उम्मीदवारों के मैदान से हटने से उनकी जीत एक तरह से सुनिश्चित ही हो गयी.

मुकाबला किस कदर एकतरफा था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी तेहरान के मेयर मुहम्मद बाकेर कालिबाफ को महज 60 लाख 7 हजार वोट मिले. जबकि तीसरे स्थान पर रहे मौजूदा शीर्ष परमाणु वार्ताकार सईद जलीली को 31 लाख 70 हजार वोटों से ही संतोष करना पड़ा. रिवॉल्यूशनरी गार्ड के पूर्व कमांडर मोहसिन रेजाई, विदेश मंत्री अली अकबर विलायती और मुहम्मद गराजी जैसे उम्मीदवार नाम मात्र के वोट हासिल कर सके.

* रूहानी की बड़ी चुनौतियां
रूहानी की रिकॉर्ड जीत उनके लिए कई चुनौतियां भी लायी हैं. ईरान गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई से गुजर रहा है. जर्जर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना नये राष्ट्रपति के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. इसमें कोई दोराय नहीं कि इस स्थिति के लिए वर्तमान राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद की नीतियां जिम्मेवार हैं. 2005 में जब उन्होंने सत्ता संभाली थी तो वादा किया था कि तेल की कमाई से आया पैसा देश में प्रत्येक घर में खाने की टेबल पर दिखाई देगा.

महंगाई की दर 10 प्रतिशत से नीचे होगी और 20 लाख नयी नौकरियों के अवसर पैदा किए जाएंगे. उस समय विकास की दर 7 प्रतिशत थी और महंगाई दर 12 प्रतिशत. वह चाहते तो चुनाव में किये वादों को पूरा करने की दिशा में काम कर सकते थे, पर उन्होंने तो उल्टी चाल चली. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कट्टर छवि कायम रखने के लिए उन्होंने अनाप-शनाप निर्णय लिये. इसका खमियाजा ईरान को प्रतिबंधों के रूप में ङोलना पड़ा. इन प्रतिबंधों ने ईरान की अर्थव्यस्था छिन्न-भिन्न कर दी. मार्च 2012 से लेकर मार्च, 2013 तक महंगाई 30 फीसदी की दर से बढ़ी है. खाने-पीने की चीजें तो 60 फीसदी तक महंगी हो गयी हैं.

स्थानीय व्यापार पर मुद्रा संकट का बेहद बुरा असर पड़ा है. आर्थिक संकट का असर आवश्यक वस्तुओं की खरीद पर भी पड़ रहा है. देश में दवाओं की भारी कमी है. प्रमुख दवा कंपनियों ने ईरान से अपना व्यापार समेट लिया है. कालाबाजारी करनेवाले इसका फायदा उठा रहे हैं. वे चीन, पाकिस्तान और भारत से दवाइयां लाकर मनमाफिक दामों पर बेच रहे हैं. आर्थिक संकट की वजह से कई फैक्ट्रियां अपने मजदूरों को वेतन नहीं दे पा रहीं, जिसके चलते हड़तालें हो रही हैं.

* कई पदों पर रहे हैं रूहानी
हसन फेरीदून रूहानी का जन्म 13 नवंबर, 1948 को सेमनान प्रांत के सुरखे नगर के एक धार्मिक परिवार में हुआ. 1960 में उन्होंने धार्मिक शिक्षा प्राप्त करना आरंभ किया. एक वर्ष बाद ही वे पवित्र नगर कुम आ गये, जहां उन्होंने कई वरिष्ठ धर्म गुरुओं से उच्च शिक्षा प्राप्त की.

1969 में उन्होंने एलएलबी की पढ़ाई के लिए तेहरान विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया. आगे की पढ़ाई के लिए वे ब्रिटेन के ग्लास्गो केलीडोनियन विश्वविद्यालय गये. यहां से उन्होंने एलएलएम और डाक्ट्रेट की. पढ़ाई पूरी होने के बाद रूहानी शाही शासन के विरुद्ध संघर्ष में कूद पड़े. 1978 में उन्होंने पहली बार इसलामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम खुमैनी के लिए इमाम शब्द का प्रयोग किया. ऐसा करते ही ईरान के शाह की गुप्तचर सेवा उनके पीछे पड़ गयी. उन्हें मजबूर होकर देश छोड़ना पड़ा. वे फ्रांस चले गये और वहां निर्वासन का जीवन बिता रहे इमाम खुमैनी से जा मिले. इसके कुछ महीने बाद ही ईरान से शाही शासन का खात्मा हो गया.

1979 में आम चुनाव हुए तो रूहानी सक्रिय राजनीति में उतरे. वे सांसद निर्वाचित हुए और 2005 तक निरंतर पांच बार चुनाव जीते. इस कालखंड में उन्होंने उप संसद सभापति, प्रतिरक्षा एवं विदेशी मामलों की संसदीय समिति के प्रमुख व उच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिव की जिम्मेवारी संभाली.

1980 से 1988 तक इराक द्वारा ईरान पर थोपे गये युद्ध के दौरान वे उच्च रक्षा परिषद के सदस्य, एयर डिफेंस कमांडर और सशस्त्र सेना के उप कमांडर भी रहे. राष्ट्रपति चुने जाने तक वे उच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह उजमा इमाम खामेनेई के प्रतिनिधि के अलावा इसलामी व्यवस्था की हित संरक्षक परिषद और वरिष्ठ नेता का चयन करनेवाले धर्म गुरुओं की परिषद के भी सदस्य थे. रूहानी को कई भाषाओं का ज्ञान है और वे 100 से ज्यादा पुस्तकें भी लिख चुके हैं.

– मेरी जीत चरमपंथियों पर सुधार समर्थकों की सफलता है. यह बुद्धिमत्ता, आधुनिकता, सुधार और तरक्की की विजय है. मैं सभी सुधार समर्थकों का आह्वान करता हूं कि वे ईरान को आगे ले जाने में मदद करें. जो देश प्रजातंत्र, आपसी सहयोग और स्वतंत्र वार्ता के पक्ष में हैं, उनके साथ ईरान सहयोग करेगा.
– हसन रूहानी, जीत के बाद सरकारी टीवी पर पहले संबोधन में

– नये राष्ट्रपति से नयी उम्मीदें
* भारत के लिए मुफीद रहेंगे!
भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल है, जिसने अमेरिका और यूरोपीय संघ की चेतावनी के बावजूद ईरान से द्विपक्षीय रिश्तों को नहीं तोड़ा. अमेरिका ने तो भारत को यहां तक चेतावनी दे दी थी कि यदि नयी दिल्ली ने ईरान का साथ नहीं छोड़ा तो वह भी प्रतिबंध ङोलने के लिए तैयार रहे. बावजूद इसके भारत ने तेल का आयात जारी रखा. हां, इसमें कटौती जरूर की.

2008 में भारत की कुल जरूरत का 16 फीसदी तेल ईरान से आता था, जो 2012 में घट कर 10 फीसदी रह गया. जब महमूद अहमदीनेजाद सरीखे कड़कमिजाज राष्ट्रपति के साथ भी भारत ने अच्छे संबंध बनाये रखे तो रूहानी जैसे मिलनसार शख्स के शासनकाल में संबंधों के परवान चढ़ने की उम्मीद की ही जा सकती है. भारत की कोशिश रही है कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को इस तरह से चलाये कि वह अमेरिका और यूरोपीय देशों की आंखों को नहीं खटके.

रूहानी इस उम्मीद पर कितने खरे उतरेंगे यह तो वक्त बतायेगा, लेकिन अहमदीनेजाद से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद की जा रही है. गैस पाइपलाइन दोनों देशों के बीच विवाद का बड़ा मुद्दा है. ईरान पाकिस्तान के रास्ते भारत तक गैस भेजने के लिए तैयार है, लेकिन सुरक्षा संबंधी चिंताओं के चलते भारत इसके लिए राजी नहीं है. भारत ने ईरान को सुझाव दिया है कि वह इस परियोजना के बीच में पाकिस्तान को न लाये. अहमदीनेजाद का नेतृत्व इस प्रस्ताव पर सैद्धांतिक रूप से सहमत था, पर समझौते के स्तर तक बात नहीं पहुंच पायी. रूहानी इस औपचारिकता को पूरी कर सकते हैं.

* आजाद होगा इंटरनेट!
अहमदीनेजाद से युवाओं का मोहभंग होने का एक अहम कारण यह भी था कि उन्होंने इंटरनेट पर शिकंजा कसने की कोशिश की. पश्चिमी देशों की कई वेबसाइटों और सोशल मीडिया पर भी पाबंदियां लगायी गयीं. सरकार ने इंटरनेट पर नियंत्रण के लिए हलाल इंटरनेट नाम से एक प्रोजेक्ट भी शुरू किया. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश की 7.5 करोड़ की आबादी में से 2.5 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. इनमें से ज्यादातर युवा हैं, जिन्हें यह कतई रास नहीं आ रहा था कि इंटरनेट के प्रयोग पर पाबंदी लगायी जाये. नये राष्ट्रपति से युवाओं को यह उम्मीद है कि वे इंटरनेट पर कोई पहरा नहीं बिठायेंगे.

* महिलाओं को मिलेगा हक!
हसन रूहानी के राष्ट्रपति बनने से महिलाएं उत्साहित हैं. उन्हें उम्मीद है कि उनके शासनकाल में कुछ सुधार अवश्य होगा. अहमदीनेजाद से तो वे बेहतर ही साबित होंगे, जिनके कार्यकाल में महिलाओं की स्थिति बद से बदतर हो गयी. इस दौरान जिसने भी महिलाओं के हक में आवाज बुलंद की, उसे प्रताड़ित होना पड़ा. आसियेह अमीनी ऐसी ही बदनसीबों में से एक हैं. पेशे से पत्रकार अमीनी ने 16 साल की एक लड़की पर हुए अत्याचारों का परदाफाश किया था.

आतिफेह सलालेह नामक इस लड़की का 10 साल की उम्र से बलात्कार हो रहा था. मुंह बंद रखने के लिए उसे पैसे दिये जाने लगे तो आतिफेह इसे एक काम के तौर पर देखने लगी. एक दिन पुलिस ने उसे वेश्यावृत्ति के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. जज ने उसे पत्थरों से मार-मार कर मौत के घाट उतारने की सजा सुना दी. जब अमीनी ने इस पूरे मामले को तथ्यों के साथ झूठा साबित कर दिया तो सरकार उनकी दुश्मन बन गयी. आतिफेह को तो मौत के घाट उतारा ही, अमीनी और उनके रिश्तेदारों को भी जेल में डाल दिया. उन्हें मानसिक व शारीरिक तौर पर टॉर्चर किया. मामला अंतरराष्ट्रीय मीडिया में आने के बाद सरकार का रुख थोड़ा नरम हुआ.

* परमाणु कार्यक्रम जस का तस
नवनिर्वाचित राष्ट्रपति हसन रूहानी ईरान के परमाणु वार्ताकार भी रहे हैं. ईरान कहता रहा है कि वह भी परमाणु शोध का हक रखता है, हथियारों की होड़ और भय दिखा कर इसे रोका नहीं जा सकता. वहीं, पश्चिमी देश आरोप लगाते रहे हैं कि ईरान का यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम हथियार बनाने के लिए काफी है. ईरान का परमाणु गतिविधियों पर परदा डालने का इतिहास है. वह संयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा संस्था, आइएइए, के निरीक्षकों को अपने संयंत्रों की जांच और दस्तावेज सौंपने से इनकार करता रहा है.

2003 में जरूर उसने निरीक्षकों को अपने संयंत्रों में जाने दिया. जांच में पता चला कि ईरान नातांज नामक स्थान पर एक बड़े परमाणु संयंत्र की तैयारी कर रहा है, जिसमें सेंट्रीफ्यूज संवर्धन सुविधा तैयार हो चुकी है. यह भी सामने आया कि ईरान ने गोपनीय प्रयोगों के लिए चीन से परमाणु सामग्री ली. 2009 में फोरदो नामक स्थान पर भी एक भूमिगत अघोषित यूरेनियम संवर्धन संयंत्र का पता चला.

* पश्चिम नहीं करेगा भरोसा
हसन रूहानी भले ही उदारवारी विचारधारा के नेता हों, लेकिन वे पश्चिमी देशों के लिए भरोसेमंद नहीं हो सकते. ईरान भी इस सच्चाई से वाकिफ है और पश्चिमी देश भी. तभी तो रूहानी को जीत की बधाई देने में सबने कंजूसी बरती. अमेरिका ने तो रूहानी को सीधी बधाई देने की बजाय चुनाव में हिस्सा लेने के लिए जनता की पीठ थपथपायी. साथ ही चुनाव में पारदर्शिता की कमी और सेंसरशिप का सवाल भी खड़ा कर दिया. अमेरिका इससे पहले भी चुनाव की प्रक्रिया पर निशाना साधता रहा है.

चुनाव से पहले विदेश मंत्री जॉन केरी ने कहा था कि ईरान के संविधान की गार्डियन काउंसिल लोकतंत्र प्रक्रिया द्वारा चयनित संस्था नहीं है. वह मौजूदा सरकार के इशारों पर फैसले लेती है, चुनाव प्रक्रिया का अधिकार किसी ऐसी संस्था के हाथ में होना चाहिए जो जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करे. ब्रिटेन और फ्रांस ने जरूर रूहानी से अपील की है कि वो ईरान के नये रास्ते पर ले जाएं और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की चिंताओं पर विचार करें.

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