भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) हरियाणा में पहली बार सरकार बनाने जा रही है, वहीं महाराष्ट्र में भाजपा पहली बार सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है.
लोक सभा चुनावों के बाद एक बार फिर नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा को बड़ी चुनावी जीत मिली है.
इन दो राज्यों में मिली जीत के बाद देश की राजनीति में भाजपा और नरेंद्र मोदी का कद पहले से बढ़ गया है.
वहीं, कांग्रेस के हाथ से एक के बाद एक राज्य निकलते जा रहे हैं. करीब छह दशक तक भारत में शासन करने वाली पार्टी अब केंद्र सहित विभिन्न राज्यों में पिछड़ती जा रही है.
पढ़ें गिरिजा शंकर का लेख विस्तार से
हरियाणा व महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों का महत्व सिर्फ इतना नहीं है कि कांग्रेस के हाथ से दो राज्य निकल गए और भाजपा शासित राज्यों की सूची लंबी हो गई. ये परिणाम भारतीय राजनीति में लोकसभा चुनाव के साथ आए बदलाव की प्रक्रिया को मजबूत करने वाले माने जाएंगे.
इन दो राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद जो नए राजनीतिक समीकरण उभरेंगे, उन्हें कुछ इस तरह समझा जा सकता है.
इंदिरा युग की वापसी
भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी उसी तरह उभरे हैं जिस तरह 1971 में इंदिरा गांधी सामने आई थीं.
इंदिरा गांधी के नाम पर कांग्रेस को वोट मिलते थे और देश भर में अपनी पार्टी को जिताने का माद्दा उन्होंने दिखाया था. ठीक वैसा ही करिश्मा नरेंद्र मोदी दिखा रहे हैं.
दोनों की मूल प्रवृत्ति अधिनायकवाद रही है और नरेंद्र मोदी के सारे फैसलों में यह अधिनायकवाद अब अधिक तीव्रता के साथ हावी होगा.
कांग्रेस के उलट भाजपा
भारतीय राजनीति में लंबे समय तक कांग्रेस की पहचान सत्तारूढ़ व भाजपा की पहचान विपक्ष की रही है.
यह पहचान पूरी तरह उलट गई है. राज्यों में सत्ता के विस्तार के साथ भाजपा देश की राजनीति में सत्ता की पार्टी बन गई है तो कांग्रेस विपक्ष की पार्टी.
हालांकि अभी भी देश में ये दोनों ही दल राष्ट्रीय दल के रूप में विद्यमान हैं. अभी भी आधे दर्जन से अधिक राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं लेकिन भाजपा के हाथों उसकी पराजय उसे मुख्य विपक्षी दल के लायक भी नहीं रख रहा.
गठबंधन दौर की समाप्ति
गठबंधन की राजनीति राष्ट्रीय राजनीतिक दल पसंद नहीं करते लेकिन राष्ट्रीय पहचान वाले नेता के अभाव में कांग्रेस व भाजपा दोनों गठबंधन की राजनीति को स्वीकारते रहे.
अब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन की राजनीति से मुक्त हो गई है.
कांग्रेस भी अपने इतिहास के सबसे खराब दौर में गठबंधन से अलग हो रही है. भारतीय राजनीति का आने वाला समय गठबंधन मुक्त राजनीति का दिखता है.
राज्यसभा में लाभ
दो राज्यों में जीत का भाजपा को दोहरा लाभ मिलेगा. एक तरफ राज्यों में उसकी सत्ता का विस्तार हो रहा है तो दूसरी ओर इन राज्यों में विधायकों के बहुमत के चलते राज्यसभा में अपने सदस्यों की संख्या बढ़ाने का अवसर मिल गया.
अभी राज्यसभा में भाजपा अल्पमत में है जिससे उसे अपने विधेयकों को पारित कराने में कठिनाई हो सकती है.
हालांकि भाजपा को यह लाभ 2016 में ही मिल सकेगा.
कांग्रेस की जगह भाजपा
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सिर्फ जीत देखना चाहती और इसे पाने के लिए उसे किसी समीकरण से कोई परहेज नहीं है.
इस रणनीति के चलते लगातार जीत हासिल करते हुए भारतीय राजनीति में अब उसने कांग्रेस का स्थान ले लिया है.
चुनावी राजनीति में पहले कांग्रेस बनाम बाक़ी सब हुआ करता था अब भाजपा बनाम बाक़ी सब का परिदृश्य उभर रहा है.
हिंदूत्व राजनीति का दौर
ऐसा माना जाता रहा है कि देश में विचारधारा की राजनीति ख़त्म हो गई है.
इसी दौर में हिन्दुत्व विचारधारा की राजनीति अपनी जगह बनाती रही जिसका अहसास नरेन्द्र मोदी के अभ्युदय के बाद हुआ.
आज़ादी के बाद पहली बार भारतीय राजनीति पर हिन्दुत्व की विचारधारा का प्रभुत्व उभर आया है.
मतदाताओं की दृष्टि से देखें तो उनके लिए हिन्दुत्व की राजनीति अब परहेज का नहीं, पसंद का सबब बन गया.
संघ और नरेन्द्र मोदी
ऐसा माना जाता है कि भाजपा की रीति-नीति व फैसलों को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रशासित करती है. इसके चलते भाजपा व संघ के नेताओं के बीच टकराव सार्वजनिक भी होता रहा है.
नरेन्द्र मोदी संघ के प्रचारक रहे हैं और हिन्दुत्व की राजनीति के हीरो के रूप में जाने जाते हैं. इसलिए यह तो तय है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दू राष्ट्र ही अवधारणा को मूर्त रूप देने की दिशा में भाजपा आगे बढ़ेगी.
लेकिन मोदी और संघ के बीच टकराव की संभावना नहीं के बराबर है, बावजूद इसके कि नरेन्द्र मोदी हिन्दुत्व को नहीं विकास को अपना एजेंडा बताते हैं.
नरेन्द्र मोदी की चुनावी जीत दिलाने की क्षमता के सामने संघ को नतमस्तक होना पड़ेगा, वह अपनी शर्तें थोपने की स्थिति में नहीं रहेगा.
आने वाले समय में हिन्दुत्ववादी राजनीति का विस्तार नरेंद्र मोदी की शैली में होगा, संघ या विहिप की शैली में नहीं.
नरेंद्र मोदी के चलते संघ को अपने सामूहिक नेतृत्व व संगठन की सर्वोच्चता की सोच बदलकर व्यक्तिपरक राजनीति को स्वीकार करना ही पड़ा है.
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