बिहार के शेखु पुरा जिला स्थित पहाड़ी इलाके को स्वयंवर पहाड़ कहा जाता है. इसी इलाके में 1864 में बहार हुसैनाबादी का जन्म हुआ था. उनके परिवार के लोग मुगल काल में सल्तनत से जुड़े थे. बहार हुसेनाबादी के परिवार में शायर और विद्वान पैदा हुए. सूफी परिवारों से भी इनका नाता रहा है. 1929 में बहार हुसैनाबादी का निधन हुआ.
जाबिर हुसैन
अबनाए जमाना मुझे कब ढूढ़ेंगे
गर ढूंढ़ने कहिए तो सबब ढूढ़ेगे
ताजीस्त मेरी कद्र न समङोंगे बहार
खो देंगे मुजे हाथ से तब ढूंढ़ेंगे
शहर के दरम्यानी हिस्से में अवस्थित पहाड़ की औसत ऊंचाई सैलानियों को डराती नहीं, फिर भी न जाने क्यों वहां इन दिनों धक्के देनेवाली भीड़ कम ही दिखाई देती है.पुरानी किताबों में इसे पेड़ों से आच्छादित पहाड़ की जगह सख्त पत्थरोंवाला टीला कहा गया है. लेकिन यह इस पहाड़ का मुकम्मल सच नहीं है. इतिहास की गुफाएं गवाह हैं कि किसी जमाने में यहां कोई प्रतापी राजा हुआ करता था, जिसने इस पहाड़ पर अपनी सुंदर कन्या का स्वयंवर रचा था. पर सुंदर कन्या ने तमाम दावेदारों की मांग ठुकराते हुए बरमाला एक शर्मीले चरवाहे के गले में डाल दी थी, जो राजा और उसके अमलदारों के आगे खौफ से कांप उठा था. कहते हैं, यह घटना तो इतिहास की चंद अंधी गुफाओं में दफन हो गयी, मगर पहाड़ का नाम हमेशा-हमेशा के लिए इस ‘स्वयंवर’ से जुड़ गया.
इसी पहाड़ की तराई में अवस्थित दो जुड़वां बस्तियों में से एक में आज से डेढ़ सौ साल क बल उर्दू-फारसी के बाकमाल शायर और प्रखर गद्यकार बहार हुसैनाबादी (1864-1929) का जन्म हुआ. पूरा खानदान अदब और तहजीब की जिंदा मिसाल के तौर पर, पूरे मुल्क, बल्कि इससे बाहर भी, इज्जत की निगाह से देखा जाता था. अदब की तारीखें और शायर-अदीबों के तजकिरे इस खानदान की दास्तानों में भरे-पड़े हैं. खान बहादुर, नवाब बहादुर जैसे खिताबों से अपनी शोभा बढ़ानेवाली कई-कई शख्सीयतें इन जुड़वां बस्तियों में एक-साथ मौजूद रहीं.
बादशाह औरंगजेब, बादशाह हुमायूं, शेरशाह और मीर कासिम जैसे तारीख के कुछ मशहूर चेहरे भी इस खानदान की बहादुरी और वफादारी के किस्सों से बाखबर थे. लेकिन इन किस्सों से बिल्कुल अलग, इस खानदान की तारीख का एक रौशन अध्याय लगभग आठ सौ वर्षो की महान सूफी परंपरा से भी जुड़ा रहा है. इस सूफी परंपरा की कुछ निशानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं.
इनमें से एक हैं, मखदूब शाह शम्सुद्दीन फरियादरस, जिनका जन्म 1270 ई में रूप में हुआ और जो अपने वालिद के इंतकाल के बाद मिस्र, सीरिया, इराक, इरान होते हुए 1278 ई में हिंदुस्तान आकर फैजाबाद में बस गये. इस समय हिंदुस्तान के बादशाह गयासुद्दीन बलवन हुआ करते थे.
शम्सुद्दीन फरियादरस ने शहर अयोध्या में एक खानकाह स्थापित कर इलाके-भर में इल्म की रौशनी बिखेरी. सन 1388 में, 118 साल की उम्र में, उनकी मौत हुई. उनकी मजार अयोध्या के उस समय के एक मशहूर तालाब के किनारे एक बुलंद टीले पर बनी, जो आज भी मौजूद है.
इस परंपरा की दूसरी निशानी शाह मंजन शहीद थे, जो शेरशाह के जमाने में अवध से बिहार आये. जैसा कि उनके नाम से जाहिर है, बिहार आने के रास्ते में कुछ अज्ञात लुटेरों के साथ हुई जंग में उनकी शहादत हुई. परिवार में पत्नी बीवी बतूल उर्फ फूल और दो कमसिन बच्चे, शेख मुस्तफा और शेख जुनैद थे. बेवा मां अपने बच्चों के साथ शेखपुरा आ गयी. बाद में, शेख जुनैद की शादी बीबी रुकन से हुई, जो मखदूम शाह शुएब के बेटे शाह बहाउद्दीन की बेटी थीं.
इल्म की दुनिया शाह मंजन शहीद को रूहानी तालीमात का खजाना मानती है. सूफी परंपरा की एक और बेहद रौशन कड़ी शाह मुल्ला मुहम्मद नसीर थे, जो दरअसल शाह मंजन शहीद की नस्ल से थे. वो मखदूम शाह शुएब के नवासे भी हुए. एक विद्वान लेखक के तौर पर सारी दुनिया उनका लोहा मानती है. बिहार के सूफियों के हालात पर उनकी किताब ‘इल्मुल हकीकत’ को एक सनद का दर्जा हासिल है. उनकी किताबें दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं. सन 1727 में शाह मुल्ला मुहम्मद नसीर का इंतकाल हुआ. उन्हें तब के इजीमाबाद शहर में मुहल्ला बाग पातो में दफन किया गया. इसी सिलसिले के एक रौशन चिराग थे, शाह मुहम्मद हाशिम बहार हुसैनाबादी, जिनका जन्म 1964 ई में हुसैनाबाद बस्ती में हुआ.
13 अक्तूबर, 2014 को उनके जन्म के 150 वर्ष पूरे हो रहे हैं. ‘स्वयंवर’ पहाड़ की तराई में उनकी मौत के लगभग 85 वर्ष बाद, उनकी मजार अतीत की गुमनामी से उभरी है, और उनकी याद में एक ‘आस्ताने’ का निर्माण हुआ है. इतना ही नही उनकी साहित्यिक कृतियों के सुरुचिपूर्ण संकलन और संपादन का काम भी पूरा कर लिया गया है. छह जिल्दों में उनकी रचनाएं उर्दू मरकज अजीमाबाद के सौजन्य से प्रकाशित हो चुकी हैं. उनका उर्दू-फारसी दीवान भी प्रकाशनाधीन है. यहां सिर्फ एक पुस्तक ‘सकरात’ का उल्लेख करना जरूरी है. यह दरअसल बहार हुसैनाबादी की अपनी लिखी जीवनी है. लगभग 750 पृष्ठों की मूल पांडुलिपि मुद्रित होकर तसवीरों सहित 450 पृष्ठों में आयी है.
कहने को यह उनकी जीवनी है, परंतु इसमें पूरे तौर पर 19वीं सदी से लेकर 20वीं सदी के शुरुआती दो दशकों का समाज अपनी ताकत और कमजोरियों के सात उभरता दिखाई देता है. जमीनदारों की जीवन-शैली, उनके पतनशील व्यवहार, उनके द्वंद्व, उनकी आपसी रंजिशें, तालीम के प्रति उनकी बेहिसी, गोया जिंदगी के सारे पहलू, जो बहार साहब की नजरों से गुजरे, इस किताब में उनका किस्सा लिखा है.
बहार साहब चाहते तो अपनी जीवनी में सूफी परंपरा की उन महान शख्सीयतों के हवाले दे सकते थे, जिनका जिक्र मैंने इस आलेख के शुरू में किया है. लेकिन आत्म-स्तुति उनके स्वभाव को छू नहीं गयी थी, इसलिए उन्होंने खुद को अपने ऊपर की दो-तीन पीढ़ियों के उल्लेख-मात्र तक ही समेट कर रखा. किताब के आखिरी हिस्से में जो वंशावली है वो दरअसल संपादक की अपनी दरियाफ्त और मेहनत है. फिलहाल ‘सकरात’ अपने मूल पाठ में आपके सामने है.
(लेखक पूर्व सांसद और बिहार विधान परिषद के पूर्व सभा पति हैं.)