इस विजयादशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो प्रचारक देश को संबोधित कर रहे थे. एक आकाशवाणी पर. दूसरा दूरदर्शन पर.
एक आम चुनावों में जीत कर धमाकेदार तरीके से प्रधानमंत्री के पद पर आया है.
दूसरे उस संगठन के प्रमुख हैं जो खुद को सांस्कृतिक संगठन बताता है (और भारतीय जनता पार्टी उसकी राजनीतिक विंग है).
आधुनिक भारत की राजनीति और इतिहास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भूमिका और योगदान महज सांस्कृतिक नहीं रही है.
उनके बारे में अलग-अलग राय हैं.
संघ की छाप
कोई राष्ट्र निर्माण में उनका महत्व बताते नहीं थकता, कोई उन्हें विभाजनकारी प्रवृतियों का सूत्रधार बताता है.
पिछले चुनावों में आरएसएस ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी की दावेदारी को पूरा समर्थन दिया था और अब जब ऐसा हो गया है, तो यह देखने वाली बात है कि संघ और भाजपा के बीच के समीकरण किस तरह आगे बढ़ेंगे.
ये वक़्त देश और यहां रहने वाले हिंदुओं के लिए इसलिए दिलचस्प है कि पहली बार भारतीय जनता पार्टी अकेले अपने बूते केंद्र में सरकार बनाने में सफल हुई है.
अखंड भारत और हिंदू राष्ट्र का सपना संजोये आरएसएस के लिए ये बहुत राहत की बात है क्योंकि इस मिट्टी पर इससे पहले संघ की इतनी बड़ी छाप नहीं दिखाई दी.
अब क्या होगा, ये सवाल सबके ज़हन में है.
कई सवाल हैं?
बीबीसी हिंदी की टीम ने आरएसएस का अर्थात समझने की कोशिश की है. उसकी परिकल्पनाएं कैसी हैं? और परिभाषाएं कैसी? आरएसएस के अपने क्या सवाल हैं?
और आरएसएस को लेकर क्या? क्या रिश्ता है संघ का केंद्र सरकार से? कैसे देखते हैं देश के अल्पसंख्य वर्ग उसे? संघ अतीत को कैसे देखता है और भविष्य को कैसे?
वहां नारीवाद का क्या स्थान है और हाशिए के लोगों का क्या? उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष वर्ग इसे किस तरह से देख रहा है?
इस सीरीज़ में संघ के भीतर और बाहर के लोगों से बातचीत, उन पर नज़र रखने वाले विश्लेषकों की राय और उनके साहित्य में खोजबीन की गई है.
इस वक़्त की राजनीति, समाज और देश को समझने के लिए आरएसएस को समझना जरूरी लगता है.
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