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महाराष्ट्र: बहुमत परीक्षण का अंतरिम आदेश दे सकता है सुप्रीम कोर्ट?: नज़रिया

<p>अदालतों में होने वाली बहसें कई बार सियासी दलों के असल ख़यालात से पर्दा हटाती हैं. क्योंकि वो हलफ़नामे या दूसरे दस्तावेज़ों में तो दूसरी बातें कहते हैं. मगर, हक़ीक़त में उनकी नीयत कुछ अलग ही होती है.</p><p>ये बात सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान साफ़ तौर पर दिखी. जब बीजेपी की तरफ़ से वक़ीलों […]

<p>अदालतों में होने वाली बहसें कई बार सियासी दलों के असल ख़यालात से पर्दा हटाती हैं. क्योंकि वो हलफ़नामे या दूसरे दस्तावेज़ों में तो दूसरी बातें कहते हैं. मगर, हक़ीक़त में उनकी नीयत कुछ अलग ही होती है.</p><p>ये बात सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान साफ़ तौर पर दिखी. जब बीजेपी की तरफ़ से वक़ीलों ने अपना पक्ष अदालत के सामने रखा. </p><p>इस दौरान, एक तरफ़ तो, राज्यपाल, महाराष्ट्र सरकार और केंद्र सरकार की तरफ़ से वक़ीलों ने तमाम दलीलें दीं. </p><figure> <img alt="महाराष्ट्र" src="https://c.files.bbci.co.uk/C487/production/_109811305_gettyimages-1184128156.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>वहीं दूसरी तरफ़, शिवसेना और कांग्रेस के वक़ीलों ने भी अपना पक्ष सर्वोच्च अदालत के सामने प्रस्तुत किया. मैंने पिछले वाक्य में जान बूझकर एनसीपी का ज़िक्र नहीं किया. क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट और बाक़ी लोगों की तरह ही मुझे भी इस बात का यक़ीन नहीं है कि आख़िर वो हैं किस की तरफ़.</p><p>सुनवाई शुरू होते ही ये साफ़ था कि दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट से चाहते क्या हैं. कांग्रेस और शिवसेना चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट देवेंद्र फड़णवीस की अगुवाई वाली बीजेपी-एनसीपी गठबंधन सरकार को जल्द से जल्द विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए कहे. </p><figure> <img alt="महाराष्ट्र" src="https://c.files.bbci.co.uk/8C3D/production/_109810953_gettyimages-1184128135.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>वहीं, बीजेपी की ख़्वाहिश है कि सर्वोच्च न्यायालय बहुमत साबित करने के लिए उन्हें राज्यपाल के तय की हुई मियाद यानी 30 नवंबर या उससे भी आगे का वक़्त दे, तो बेहतर हो. कांग्रेस और शिवसेना चाहती हैं कि सुप्रीम कोर्ट कर्नाटक के मामले में अपने रुख़ की ही तरह महाराष्ट्र में भी सरकार को अगले 24 घंटे में बहुमत साबित करने का आदेश दे. </p><p>वहीं, बीजेपी ये सवाल उठा रही है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को संविधान के तहत ये अधिकार है कि वो बहुमत परीक्षण का अंतरिम आदेश दे सके?</p><figure> <img alt="महाराष्ट्र" src="https://c.files.bbci.co.uk/3E1D/production/_109810951_15d053da-515a-4091-9d58-61c950a977d1.jpg" height="976" width="976" /> <footer>BBC</footer> </figure><p>कांग्रेस और शिवसेना के पक्ष में पहले के कई उदाहरण मौजूद हैं. 1998 से लेकर अब तक कम से कम चार बार ऐसा हो चुका है. फिर चाहे 1998 में उत्तर प्रदेश का जगदंबिका पाल बनाम भारत सरकार का मामला हो या फिर बाद में गोवा और झारखंड के मामले हों. </p><p>सबसे हालिया मिसाल कर्नाटक की है, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विधानसभा का विश्वास किस दल या नेता में है, ये जानने के लिए तुरंत विधानसभा में बहुमत परीक्षण कराया जाए.</p><p>ऐसे आदेशों की बुनियाद सुप्रीम कोर्ट का 1994 का एस आर बोम्मई बनाम भारत सरकार का केस है. जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार बनाने का प्रयास कर रहे एक या दूसरे दल के प्रति राज्यपालों के पक्षपात पर पूर्ण विराम लगाने की कोशिश की थी. </p><figure> <img alt="जेडीएस कांग्रेस" src="https://c.files.bbci.co.uk/E599/production/_107777785_gettyimages-959285464.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>तब सर्वोच्च अदालत ने अपने फ़ैसले में साफ़ तौर से कहा था कि अगर इस बात पर ज़रा भी संशय है कि जनता ने चुनाव में किस पार्टी को सरकार बनाने का जनादेश दिया है, तो इसका फ़ैसला विधानसभा में बहुमत परीक्षण के माध्यम से विधानसभा के अंदर होना चाहिए.</p><p>बीजेपी का तर्क ये है कि संविधान के तहत अदालत को ऐसा आदेश देने का अधिकार ही नहीं है. क्योंकि, संविधान का अनुच्छेद 212 ये कहता है कि विधानसभा की कार्यवाही को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है. </p><figure> <img alt="सुप्रीम कोर्ट" src="https://c.files.bbci.co.uk/13EE9/production/_109214618_1d357a28-92ac-4dc7-8d22-6ee79bff4e03.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>साथ ही कोई अदालत इसलिए भी ऐसा आदेश नहीं दे सकती क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 361 ये कहता है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति अपने किसी फ़ैसले के लिए अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे. इन सवालों के जवाब बेहद आसान हैं. </p><p>अनुच्छेद 212 के तहत विधानसभा की कार्यवाही को तब कोई संरक्षण नहीं मिल सकता अगर ये कार्यवाही ही असंवैधानिक हो. और, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड के मामले में ख़ुद ही स्पष्ट किया था, राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का राज्यपाल का फ़ैसला, संविधान के इस अनुच्छेद के तहत अदालत की समीक्षा के दायरे बाहर नहीं है. </p><p>इसी तरह, अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल या राष्ट्रपति भले ही अपने फ़ैसले के लिए अदालत के प्रति जवाबदेह न हों. लेकिन, अदालतें इस बात की समीक्षा तो कर ही सकती हैं कि राज्यपाल का कोई फ़ैसला संविधान सम्मत है या नहीं. क्योंकि सरकार तो राज्यपाल या राष्ट्रपति के हर फ़ैसले का बचाव ही करेगी. इसलिए, उनके फ़ैसलों की समीक्षा तो अदालतों का काम है ही.</p><p>बीजेपी के तर्क ठीक वैसे ही हैं, जैसी चिंता जस्टिस के रामास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट के बोम्मई बनाम केंद्र सरकार के फ़ैसले में जताई थी. जब उन्होंने अदालत के बहुमत के फ़ैसले से अलग अपना विचार रखा था.</p><p>जस्टिस के रामास्वामी का मानना था कि अगर राज्यपाल के किसी फ़ैसले से संवैधानिक संकट पैदा होता है, तो उस स्थिति में संवैधानिक अदालतों को इस बात का अख़्तियार नहीं है कि वो राज्यपाल के फ़ैसले की संवैधानिक दृष्टि से समीक्षा कर सकें. ये काम संसद का है, जो संविधान के अनुच्छेद 356 में संशोधन कर के ऐसे हालात से निपटने का संवैधानिक कर्तव्य निभा सकती है. </p><p>यहां जस्टिस रामास्वामी के तर्क राज्यपाल के फ़ैसले के ग़लत या सही होने की समीक्षा को लेकर नहीं थे. बल्कि, उन्होंने राज्यपाल के फ़ैसलों की समीक्षा को लेकर अदालतों के अधिकार के बारे में अपने विचार रखे थे. </p><p>मतलब ये कि जस्टिस रामास्वामी का बेंच के बहुमत से अलग दिया गया फ़ैसला इस बात पर था कि अदालतों को कोई काम करना चाहिए या नहीं.</p><h1>बोम्मई केस</h1><p>एसआर बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में तर्क दिया था कि किसी संवैधानिक व्यवस्था में, जनता की राय राज्यपाल से नहीं, बल्कि राज्य की विधानसभा के माध्यम से ज़ाहिर होती है. और, ऐसे किसी भी मामले में किसी भी असंवैधानिक कार्य को होने से रोका जाना चाहिए. </p><figure> <img alt="महाराष्ट्र" src="https://c.files.bbci.co.uk/170D/production/_109810950_gettyimages-1184128164.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>विधानसभा में बहुमत परीक्षण का आदेश देकर अदालत सिर्फ़ ये सुनिश्चित करती है कि जनता ने चुनाव के माध्यम से अपनी राय जिस भी पार्टी या नेता के पक्ष में दी है, वो संवैधानिक संस्थाओं के माध्यम से स्पष्ट हों. और राज्यपाल, जनादेश के साथ खिलवाड़ न कर सकें. </p><p>इस नज़रिए से देखें, तो, कर्नाटक और महाराष्ट्र के हालात में कोई ख़ास फ़र्क़ नज़र नहीं आता है. ऊपरी तौर पर देखें, तो राज्यपाल ने राज्य के सबसे बड़े दल को विधानसभा के भीतर बहुमत साबित करने का आदेश देकर कुछ ग़लत नहीं किया है. लेकिन, कर्नाटक का मामला हो, या फिर महाराष्ट्र का, राज्यपाल ने ऐसा करने के लिए जो तरीक़ा अपनाया, सवाल उस पर उठे हैं. दोनों ही मामलों में संबंधित राज्यपालों ने एक पार्टी के नेता को आनन फानन में शपथ दिला दी और फिर उन्हें बहुमत साबित करने के लंबा समय दे दिया.</p><p>दोनों ही मामलों में ऐसा दिखता है कि राज्यपाल का एक ही लक्ष्य था कि उनकी पसंद की पार्टी (और जिस ने उन्हें राज्यपाल नियुक्त किया), वो उनके माध्यम से फ़ायदा उठा कर सरकार बना ले. ऐसे हालात में ये तर्क गले नहीं उतरता है कि अदालतें अपने उन नियम क़ायदों को भी लागू कराना न सुनिश्चित करें, जो ख़ुद न्यायालय ने ही दिए हैं. और इसकी जगह अदालतें ख़ामोश बैठी रहें और सिर्फ़ एक पवित्र उम्मीद जताने को ही अपना कर्तव्य मान लें.</p>

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