* संदर्भ : चिटफंड घोटाला
।। डॉ शैबाल गुप्ता ।।
सदस्य सचिव, आद्री : सारधा समूह और इसके प्रधान सुदीप्त सेन का उत्थान और बाद में उनका पतन फिल्मी कहानी जैसा लगता है. कहानी उद्यमिता संबंधी घबराहट को दुहराती है, जो पूर्वी भारत के साथ ऐतिहासिक रूप से जुड़ी है. इस समूह की पहुंच सिर्फ पश्चिम बंगाल तक सीमित नहीं थी. इसका विस्तार पुराने बंगाल प्रांत के सभी राज्यों तक था. पूर्वी भारत के क्षितिज पर सारधा समूह के अभ्युदय के काफी पहले वैध होने का भ्रम पैदा करनेवाली अनेक धोखेबाज संस्थाओं, नॉन बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं ने भोले-भाले जमाकर्ताओं से करोड़ों रुपये हड़प लिये.
खासकर दो संस्थाएं पहुंच और लूट के मामले में सबसे अधिक बदनाम हुईं-पश्चिम बंगाल में संचिता और संयुक्त बिहार में जेवीजी. विडंबना है कि निम्न हैसियत वाले लाखों परिवार ही धोखाधड़ी के शिकार नहीं हुए, बल्कि इन संस्थाओं की धोखाधड़ी का पता चलने के बाद इन संस्थाओं के उत्तरदायित्वविहीन जमीनी कार्यकर्ताओं के कारण संबंधित राज्यों में कानून-व्यवस्था की स्थिति भी खतरे में पड़ गयी.
प्रामाणिक नियामक प्राधिकरण की अनुपस्थिति में अतिचर्चित नामों के अलावा जिला या प्रखंड स्तर पर कार्यरत अनेक छोटे खिलाड़ियों ने भी ग्राहकों को लगातार ठगा.
यह नहीं पूछा जा सकता है कि इस प्रकार की संस्थाएं सामान्यत: पूर्वी, उत्तरी और हिंदीपट्टी के राज्यों में ही क्यों फलती-फूलती हैं. इसका एक संभावित कारण यह है कि सामान्यत: उद्यमिता और उद्योग के साथ जुड़ी ‘समता की संस्कृति’ के अभाव में इन क्षेत्रों में जमा से भारी प्रतिफल की आशा ललचाने वाला विकल्प देती है. इसीलिए नॉन बैंकिंग संस्थाएं उच्च प्रतिफल के लालच की लोगों की भावना का फायदा उठाने में सक्षम होती हैं, जहां समाज में मुख्यत: प्रोत्साहन ढांचे की अनुपस्थिति में अर्थव्यवस्था लगभग गतिरुद्ध है.
यह हर्षद मेहता के इतिहास के बिल्कुल विपरीत है, जिसका नाम इतिहास में स्टॉक के महान घोटालेबाज के रूप में दर्ज है, जिसने कम-से-कम छोटे इक्विटी धारकों को तो नुकसान नहीं पहुंचाया था. उसकी इनसाइड ट्रेडिंग के कारण शेयर की कीमतों में आयी कृत्रिम उछाल ने उसे पूजनीय व्यक्ति बना दिया था.
उसकी प्रतीकी हैसियत की माप इस तथ्य से की जा सकती है कि मुंबई की मलिन बस्तियों में गणपति के साथ उसकी भी पूजा की जाती थी. जहां धीरूभाई अंबानी ने स्टेडियम में शेयर धारकों की बैठक कर पूंजीवाद का लोकतंत्रीकरण किया था, वहीं हर्षद मेहता ने इक्विटी की संस्कृति को भारत के पश्चिमी हिस्से में जनांदोलन के स्तर तक उठा दिया था.
इसीलिए सीमित गड़बड़ी के रूप में हर्षद मेहता के घोटाले का जब सबसे पहले पता चला, तो बंबई में स्टॉक एक्सचेंज काम करते रहे और भारतीय औद्योगिक पूंजीवाद को मुश्किल से ही कोई धक्का लगा. उच्च सोपान पर हर्षद के सहअपराधी रहे कुछ लोगों के सिर ओखली में गये, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत झटका नहीं झेलना पड़ा. इसीलिए इसमें कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि गुजरात और महाराष्ट्र अब भी देश में शेयर के दलालों और सीएनबीसी चैनल देखनेवालों (इक्विटी के उतार-चढ़ाव पर नजर रखने के लिए) की सर्वाधिक संख्या वाले राज्य बने हुए हैं.
पूर्वी भारत के विपरीत पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों में इक्विटी की संस्कृति के विकास की लंबी ऐतिहासिक परंपरा है. आजादी के काफी पहले ही ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन ने न केवल क्षेत्रीय पहचान को बल नहीं दिया, बल्कि पूंजीवादी रूपांतरण और औद्योगीकरण के साथ उसका विकल्प भी दिया.
सामाजिक न्याय की विचारधारा के अलावा नवजात पूंजीवाद देशज बैंकिंग संस्थाओं और स्टॉक एक्सचेंज के बूते फला-फूला. मसलन, महाराष्ट्र में शाहूजी महाराज ने बंबई प्रांत के महाराष्ट्रवाले भाग में एक ओर ब्राह्मणवाद विरोधी संघर्ष की गाथा लिखी, तो दूसरी ओर चीनी सहकारी समितियों की नींव भी रखी.
सामाजिक-आर्थिक विकास में सहयोग के लिए डीआर गाडगिल गोपनीय अर्थशास्त्री ही नहीं बने रहे, बल्कि उन्होंने पुणो स्थित गोखले संस्थान के परिसर से सहकारिता आंदोलन के कल-पुरजे भी दुरुस्त किये. बाद में जब बंबई प्रांत महाराष्ट्र और गुजरात में बंट गया, तो महाराष्ट्र में वाइवी चौहान और गुजरात में मोरारजी देसाई ने औद्योगिक पूंजीवाद का विशाल ढांचा खड़ा किया.
इसी प्रकार का परिवर्तन कामराज ने मद्रास प्रांत के औद्योगिक क्षेत्रों में लाया. उन्होंने अन्य सीमांत समूहों को उद्यमिता की दिशा में बढ़ने के लिए उत्साहित किया. पूंजीवाद को दक्षिणी और पश्चिमी भारत में पहले से मौजूद स्टॉक एक्सचेंज और देशज प्रायोजित बैंकों की संस्थाओं के जरिये फैलाया गया.
इसी प्रकार, मद्रास प्रांत के आंध्रप्रदेश वाले हिस्से में आंध्र बैंक की भूमिका राज्य में औद्योगिक कायापलट की लोककथा का अंग थी. कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव में सुभाष चंद्र बोस से पराजित गांधीजी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारामैया द्वारा प्रवर्तित इस बैंक ने राज्य में पूंजीवाद की आधारशिला रखने में कठोर परिश्रम किया.
अब भी आंध्र बैंक के अध्यक्ष, जब आंध्रप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों के भ्रमण का फैसला करते हैं, तो उनके सामने हजारों उद्यमी और उद्योगपति हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हैं, क्योंकि बैंक ने उनका छोटा-बड़ा साम्राज्य खड़ा करने में उनकी मदद की है. आंध्रप्रदेश में चावल, तंबाकू और फिल्म उद्योग आंध्र बैंक के सहयोग के बिना अपने विशाल अनुपात तक नहीं पहुंचा होता. बैंक के अधिकारी निजी तौर पर गर्व से कहते हैं कि पहली पीढ़ी के उद्यमी जीएमआर उनकी कृति रहे हैं.
हालांकि, पुराने बंगाल प्रांत में स्वदेशी आंदोलन 1905 में शुरू हुआ, लेकिन वह राज्य में प्रामाणिक पूंजीवाद का आरंभ नहीं कर सका. कुछ व्यावसायिक और औद्योगिक उद्यमियों ने शुरुआत की, कुछ का आरंभ टैगोर परिवार ने किया गया,लेकिन निवेश के अवसरों के अभाव में इक्विटी की संस्कृति स्थापित नहीं की जा सकी.
दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों के विपरीत पूर्व में निवेश के रास्ते सीमित थे, क्योंकि बंगाल प्रांत ब्रितानी उपनिवेशवाद का पहला स्थान था. जबरदस्त विऔद्योगीकरण और ‘स्थायी बंदोबस्ती’ की रैयती व्यवस्था ने मिल कर औद्योगीकरण की सारी संभावनाओं का गला घोंट दिया. आजादी के बाद की अवधि में ‘भाड़ा समानीकरण’ पूर्व के उद्यमिता विकास के ताबूत में आखिरी कील था.
आश्चर्य है कि जहां ‘स्वदेशी आंदोलन’ बंगाल प्रांत में उद्यमों को चमकाने में असफल रहा, वहीं टाटा इस्पात कंपनी के शेयर की खरीद के लिए उसने बड़ी संख्या में खरीदारों को उसके बंबई कार्यालय में गोलबंद कर दिया. स्वदेशी आंदोलन बंग भंग की लॉर्ड कजर्न की योजना का विरोध करने का आर्थिक एजेंडा था. विभाजन के प्रयास के समापन से बंगाल को राजनीतिक लाभ मिलने से आंदोलन सफल हुआ, लेकिन इसके आर्थिक लाभ की फसल पश्चिमी भारत ने काटी.
बिहार में सामंतवाद की प्रधानता के बावजूद एक उल्लेखनीय संक्षिप्त आंदोलन हुआ था, जब महान किसान नेता स्वामी सहजानंद ने बिहटा चीनी मिल के शेयर खरीदने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया था. 30 के दशक के उत्तरार्ध में उसके बोर्ड में राजेंद्र प्रसाद जैसे प्रसिद्ध लोग मौजूद थे.
बिहार में चीनी उद्योग का बहुत अच्छा रिकॉर्ड था, लेकिन भाड़ा समानीकरण और अन्य आर्थिक बाधाओं के कारण वह कमजोर पड़ गया. यहां तक कि 90 के दशक के पूर्वार्ध में मगध स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना भी औद्योगिक संस्कृति की दिशा में कोई बदलाव नहीं ला सकी. अचर्चित और अरोदित एक्सचेंज संस्था के अंदर उग्र संघर्ष के कारण जन्म के कुछ समय बाद ही बंद हो गया. इक्विटी और औपचारिक बैंकिंग की खाली जगह पर भारी मुनाफा के वादे के जरिये जमा आधरित संगठनों ने कब्जा जमा लिया.
बंगाल में सारधा समूह ने कई हजार करोड़ रुपये इकट्ठा किये और बंगाल में आर्थिक कायापलट के शीर्ष पर जाता दिखा. शासक दल के खुले संरक्षण में सारधा समूह लगभग सरकार समर्थित संस्था के बतौर उभरा. सिंगुर में टाटा के औद्योगिक उपक्रम का विरोध करनेवाले नेताओं ने इस आशा में सारधा समूह में उदारतापूर्वक रकम जमा की कि राज्य में आर्थिक पुनरुत्थान का मार्ग जमा आधरित संस्थाओं के जरिये ही प्रशस्त होगा.
सारधा ने गुजरात के रिलायंस इंडस्ट्रीज का ही स्वरूप लगभग अख्तियार कर लिया था, जहां उच्च स्टॉक के कारण सुखानुभूति कारक ही नहीं, राजनीतिक निरंतरता भी सुनिश्चित होती थी. अब खबर मिली है कि सारधा समूह का भांडा फूट जाने के बाद शासक दल ‘पंचायत’ चुनाव कराने में हिचकिचा रहा है.
पश्चिम बंगाल में इक्विटी, औद्योगिक और पूंजीवादी संस्कृति किसी-न-किसी कारण लंबे समय से उतार पर है, जिसमें स्थावर संपदा की संस्थाओं और जमा आधरित संस्थाओं ने आर्थिक क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है.
हालांकि, स्थावर संपदा ने मूल्य निर्माण किया है, लेकिन जमा आधारित संस्थाओं ने वित्तीय संत्रस ही पैदा दिया है. अगर बाजार की अर्थव्यवस्था को पूर्वी क्षेत्रों में सफल होना है, तो वेबरवादी (मैक्स वेबर प्रेरित) पूंजीवाद की संस्कृति को बढ़ावा देना होगा.