देश का सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य, बीमारू का उ, उत्तर प्रदेश फिर ग़लत वजहों से चर्चा में है. कबीर, जायसी, रसखान की प्रेम-भक्ति से सराबोर धरती पर दंगे भड़क रहे हैं.
जिसे गंगा-जमुनी तहज़ीब कहते हैं, उसी गंगा-जमुना का दोआबा सुलग रहा है. शाहहारूनपुर, जिसे आज सहारनपुर के नाम से जाना जाता है, 14वीं सदी में सूफ़ी संत शाह हारून चिश्ती का ठिकाना था, वे प्रेम और भाईचारे का संदेश दे रहे थे.
सहारनपुर के दक्षिण में, शायर जिगर का शहर, पीतल की कारीगरी का शहर, शाहजहाँ के बेटे मुराद बख़्श के नाम पर बसाया गया मुरादाबाद भी झुलस रहा है. मुज़फ़्फ़रनगर के घाव अभी भरे नहीं हैं.
उत्तर प्रदेश जैसा राज्य भारत में कोई नहीं जिसके हर शहर और क़स्बे की अलग पहचान है.
अलीगढ़ के ताले, काकोरी के कबाब, मुरादाबाद की पीतल की कारीगरी, फिरोज़ाबाद की चूड़ियाँ, खुर्जा की पॉटरी, मथुरा के पेड़े, बनारस की साड़ी…ये लिस्ट काफ़ी लंबी है. ऐतिहासिक मंदिर, मस्जिद और दरगाह चप्पे-चप्पे पर हैं.
देश को अनेक प्रधानमंत्री देने वाला उत्तर प्रदेश कितना अहम है इसको समझे बिना नरेंद्र मोदी भी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे. उत्तर प्रदेश वो राज्य है जिसने एक गुजराती को देश का प्रधानमंत्री बनाया है.
संस्कृति का हृदय स्थल
नाच-गान, खान-पान, दस्तकारी, शायरी-क़व्वाली, धर्म-दर्शन से लेकर सियासत तक, जीवन का वो कौन सा हिस्सा है जिस पर उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी संस्कृति की छाप न हो. उत्तर भारत की संस्कृति का हृदयस्थल अगर कोई है तो वह उत्तर प्रदेश है.
जब कोई समाजवादी, सेकुलर, वामपंथी और हिंदू राष्ट्रवादी नहीं था, तब की है ये संस्कृति. गंगा जमुनी संस्कृति का मतलब होता है मिली-जुली संस्कृति. एक साहब पूछ बैठे कि गंगा हमारी पवित्र नदी है, यमुना भी, क्या सोचकर यमुना को आपने मुसलमानों के खाते में डाल दिया?
इसका जवाब देने के बदले मुस्कराना ही बेहतर है.
अवध के नवाब वाजिद अलीशाह ने वसंत के महीने में वृंदावन में भगवान कृष्ण के श्रृंगार के लिए लाखों की भेंट भेजी थी, महारानी अहिल्याबाई ने हज़ारों मुस्लिम जुलाहों को संरक्षण दिया, बनारस में साड़ी का कारोबार फला-फूला, उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार भी किया.
‘माँग के खाइबौ, मसीत पे सोइबौ’
तुलसीदास ने धर्मांध पंडितों की आलोचना से दुखी होकर कहा था- ‘माँग के खाइबौ, मसीत पे सोइबौ’, मस्जिद में सोने की बात करने वाले तुलसीदास रघुवर को ‘गरीबनवाज़’ कहते हैं.
मुसलमान राजाओं के दरबारी हिंदू थे और हिंदू राजाओं के सिपाहसालार तुर्क, अफ़ग़ान और पठान. सब अपना मज़हब मानते थे और दूसरे के रास्ते में नहीं आते थे.
यह सब न तो किसी पॉलिटिकल करेक्टनेस के तहत था, न ख़ुद को सेकुलर साबित करने के लिए, न ही किसी ख़ास तबक़े को ख़ुश करने के लिए. यह ज़िंदगी जीने का ढंग था, ढंग जो उत्तर प्रदेश ने सबको सिखाया.
फैज़ाबाद के खड़ाऊँ-कमंडल बनाने वाले मुसलमान, ताजिया उठाने वाले हिंदू कोई विचित्र जीव या अपवाद नहीं हैं. वे एक सहज मिले-जुले समाज के चलते-फिरते, नाचते-गाते, खाते-कमाते लोग हैं जो पिछले पाँचेक सौ साल से इसी तरह जीते आए हैं, लेकिन पिछले पचास-साठ साल की सियासत के शिकार होकर बिखरते जा रहे हैं.
उत्तर प्रदेश का जितना असर हमारी साझा विरासत और संस्कृति पर है, उसके दरकने-चटकने का असर भी पूरे देश पर होगा. सहारनपुर, मुरादाबाद और मुज़फ़्फ़रनगर न हों इसका क्या उपाय है?
इस सवाल के जवाब में उत्तर प्रदेश फ़िलहाल निरुत्तर प्रदेश है.
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