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रजा का देहांत स्मृतियों के साथ हुआ, सपनों के साथ नहीं

मनीष पुष्कले पेंटर इ स 23 जुलाई को महान चित्रकार सैयद हैदर रजा को अनंत में विलीन हुए तीन वर्ष हो गये. वे 1951 से 2011 तक, पूरे 60 वर्षों की अवधि तक फ्रांस में रहे, लेकिन उनका मन हमेशा भारत में ही बसा रहा. जब तक रजा फ्रांस में रहे, उन्होंने वहां पर भारत […]

मनीष पुष्कले

पेंटर
इ स 23 जुलाई को महान चित्रकार सैयद हैदर रजा को अनंत में विलीन हुए तीन वर्ष हो गये. वे 1951 से 2011 तक, पूरे 60 वर्षों की अवधि तक फ्रांस में रहे, लेकिन उनका मन हमेशा भारत में ही बसा रहा. जब तक रजा फ्रांस में रहे, उन्होंने वहां पर भारत का एक ऐसा स्मृति-लोक बना रखा था, जिसे देख कर उनसे मिलनेवाला हर व्यक्ति, चाहे वह भारतीय हो या विदेशी, हतप्रभ ही होता था. उनका देशप्रेम अन्य अप्रवासी भारतीयों से भिन्न इसलिए था, क्योंकि उनके मानस के केंद्र में प्रेम था, दूर रहने की ग्लानी नहीं थी.
उनकी इच्छा यही रही कि अगर उनका देहांत फ्रांस में हो तो उन्हें गोर्बिओ में उनकी पत्नी की कब्र के बगल में दफनाया जाये. अगर उनकी मृत्यु भारत में हो, तो उन्हें मध्य प्रदेश में नर्मदा जी के किनारे बसे मंडला में उनके पिता की कब्र के बगल में सुपुर्द-ए-खाक किया जाये. वे जब भारत आते, तो मंडला जाने की प्रबल इच्छा के साथ ही आते.
वे मंडला में कब्रिस्तान के स्थानीय प्रशासन को अपने पिता की कब्र की देख-रेख के लिए आर्थिक मदद भी देते रहे. इस प्रकार से धरती और मृत्यु के संदर्भ में, दोनों से रजा का संबंध बिलकुल अलग तरह का रहा है. एक तरफ उनके मानस के केंद्र में मातृभूमि रही, तो दूसरी तरफ अपनी विरह में वे सिर्फ उसकी गोद में अपने अंतिम पड़ाव को पालते-पोसते रहे.
यह रजा के अनन्य मित्र अशोक वाजपेयी के अथक प्रयासों का ही परिणाम था कि 2010 दिसंबर में हमेशा के लिए वे रजा को भारत ले आये. इस प्रकार नियति को यही मंजूर था कि रजा गोर्बिओ के बजाये मंडला में विराम लें.
मंडला की ख्याति अभी तक उसकी धार्मिक और पर्यटन की विशेषताओं के कारण थी, लेकिन रजा के देहांत के बाद विगत तीन वर्षों से मंडला अब एक नये उपक्रम के कारण अपनी अलग पहचान की ओर अग्रसर है. यह अशोक वाजपेयी की दूरदृष्टि का ही परिणाम है कि मंडला में अब हर साल की जुलाई में रजा महोत्सव का आयोजन होता है.
इस महोत्सव से जिस प्रकार से इतने कम समय में वहां का समाज जुड़ा है, वह सुखद है. मंडला में एक प्रकार का ‘रजा मंडल’ स्थापित हो रहा है. हमारी संस्कृति की गंगा-जमुनी तहजीब के एक नये उदाहरण को हम प्रकाश में आते देख सकते हैं. ऐसा उपक्रम विशेषकर आज के राजनीतिक-सामाजिक-धार्मिक उन्माद के समय में और महत्वपूर्ण हो जाता है.
साल 2000 में रजा ने अपनी निजी आय से रजा न्यास की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य कला-संस्कृति को बढ़ावा देना है. रजा न्यास ने अब पूरे देश-भर के सांस्कृतिक फलक पर अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है. सादगी और गंभीरता से भरे उसके औचित्यपूर्ण आयोजनों को अब पूरे देश में सम्मान से देखा जा रहा है. रजा न्यास की सामाजिक पहचान और स्वीकृति अब बहुत गहरे और व्यापक स्तर पर है.
न्यास की नीति के तहत रजा महोत्सव इस बात का प्रमाण है कि आज के समय के बड़े शहरों के आडंबर और चकाचौंध में होते अनेकों ग्लैमरस महोत्सवों के बरक्स मंडला जैसे छोटे-से कस्बे के गरिमापूर्ण अंधेरों के अलोक में इस प्रकार का ठोस व सार्थक उपक्रम का होना ज्यादा महत्वपूर्ण है. आज की स्थापित मुख्यधाराओं से दूर जाकर विभिन्न क्षेत्रीय अंचल व लोक को समाहित करना आवश्यक है.
रजा जीवन भर मंडला को नहीं भूले. फ्रांस में वे एक प्रकार से भारत के सांस्कृतिक राजदूत की तरह रहे. उन्होंने फ्रांस में मंडला को प्रसिद्ध किया. रजा न्यास अपने इस आयोजन से एक प्रकार से यह प्रयत्न भी कर रहा है कि मंडला का लोक भी रजा को न भूले.
रजा न्यास ने जिस प्रकार से अपनी आधुनिक चेतना के साथ भारतीय संस्कृति और उसके पारंपरिक विमर्श को एक साथ संभाला है, वह अतुलनीय है. अशोक वाजपेयी ने रजा के स्वप्न को जीवंत किया है. मंडला में रजा का देहांत स्मृतियों के साथ हुआ है, उनके स्वप्नों के साथ नहीं. यह सुखद है और विरल भी.

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