पराजय की पीड़ा कैसा कठिन बोझ बनाती है, ये देखना हो तो विश्व कप फुटबॉल के फ़ाइनल मुक़ाबले के बाद मैदान से लौटते मेसी को देखिए.
ये एक अवर्णनीय तक़लीफ़ है. इसमें न आंसू हैं न स्तब्धता न मुड़ा-तुड़ा चेहरा न फैली हुई आंखें.
हार के सामने ये एक दमकती हुई ग्लानि है. इसे समझने के लिए बहुत ध्यान से मेसी को देखने की जरूरत है.
ऐसे खिलाड़ी को जो इस समय फ़ुटबॉल खेल का सबसे बड़ा जादूगर माना जाता है. मैदान से लौटते मेसी के चेहरे पर जादू के न चल पाने का गहरा मलाल भी नहीं था.
वह एक दुख था जो उनके चेहरे पर अपना चेहरा लगाकर बैठ गया था. ऐसी अर्थपूर्ण भावहीनता और ऐसी सपाटता थी.
एक गहरी विरक्ति से भरा चेहरा जो उम्मीद, स्वप्न और इतिहास के भार से दबे व्यक्ति का ही हो सकता है. इस विरक्ति की दीवार से निकलते हुए मेसी कमरे में गए होंगे.
वहां शायद फूटफूट कर रोए हों. लेकिन जितनी देर वो समारोह चला मेसी जैसे पत्थर बने रहे. धीरज का ऐसा बुत बेमिसाल है. इसके लिए कड़ा आंतरिक इम्तिहान चाहिए.
मेसी की खेल शख़्सियत अपने समकालीनों और अपने पूर्ववर्तियों से अलग ढंग की अलग है. पांच गुण ऐसे हैं जिनमें मेसी सबसे विलक्षण बताए गए हैं. गति, संतुलन, सूक्ष्मता, ज्ञान और धैर्य.
गेंद झपटने के लिए वो हमला नहीं करते वो न जाने कैसे एक शांत स्थिरता लगभग ख़ामोश चपलता से विपक्षी डिफ़ेंस के पांवों में फंसी गेंद को अपनी कलात्मकता की दर्शनीय उलझन में ले आते हैं.
वो डिफ़ेंस को तितरबितर नहीं करते हैं. उनका जादू इसीलिए कहा जाता है कि उसे देखने के लिए जहां के तहां ठिठक जाना होता है.
लेकिन कलाएं और जादू भी छिटकते रहते हैं, बूटों से सदा चिपके रहने वाला टोटका तो वे हैं नहीं. और मेसी भी आख़िर इंसान ही तो हैं.
भीषण बाजार और मुनाफे के अंधड़ के बीच लातिन अमरीकी फ़ुटबॉल में जो थोड़ी बहुत लय, कविता और करिश्मा बचा रह गया है, वो मेसी जैसे कुछेक खिलाड़ियों का ही है.
इसलिए उनके चाहने वालों को इंतज़ार करना चाहिए. लोग कहते हैं कि माराडोना से मेसी की तुलना व्यर्थ है. वो एक कप लाए और एक फ़ाइनल तक ले गए.
मेसी को वहां तक पहुंचना होगा. हम तो बस आख़िरकार यही चाहेंगे कि लियोनल मेसी एक महान खेल के एक समृद्ध संपन्न शक्तिशाली उपनिवेश बनकर न रह जाएं.
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