शिकोह अलबदर
किसी जगह की आर्थिक-सामाजिक स्थिति और वहां के लोगों की जरूरतों को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम उस जगह को अच्छी तरह घूमें और जानें. मुङो रिपोर्टिग के सिलसिले में संताल परगना के सुदूरवर्ती इलाकों में जाने का मौका मिला. वहां समाज में सेवाओं-सुविधाओं से पूरी तरह कटे लोगों से रू-ब-रू होने का मौका मिला. इस दौरान यह अहसास हुआ कि जो लोग सरकार के कार्यक्रमों व विकास योजनाओं से किसी न किसी रूप में जुड़ गये हैं, उनके जीवन में धीमी गति से ही सही बदलाव आ रहा है. लेकिन जिन लोगों तक सरकारी कार्यक्रम या योजनाएं नहीं पहुंची हैं, वे अब भी काफी बुरे हाल हैं. इस दौरे में यह बात भी मैंने महसूस की कि बिना इनके विकास के अपने प्रदेश का विकास भी संभव नहीं है.
पूरी रात सफर करने के दौरान अहले-सुबह दुमका से पाकुड़ जाने के दौरान उन जंगलों और सड़कों से गुजरना हुआ जो नक्सल प्रभाव वाले हैं. गहरे घने जंगलों के बीच टूटी-फूटी सड़कों पर से गुजरने के दौरान इस बात का अहसास हो चुका था कि यह इलाका पिछड़ा है. सड़क यात्र करते हुए ड्राइवर किशोर ने वह जगह भी दिखलायी जहां पर पाकुड़ एसपी अमरजीत बलिहार की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी.
पाकुड़ जाने के क्रम में एक जगह ट्रकों की लंबी लाइन दिखी. किशोर से पूछने पर कि यह जाम क्यों है, उसने बताया कि जिस सड़क से हमलोग गुजर रहे हैं, वह माइंस रोड कहलाता है. यहां पर कोयला की एक खदान है, जहां से कोयले की ढुलाई होती है. इस मार्ग से गुजरने पर ट्रकों पर से आदिवासी युवक-युवतियां कोयला उतारते दिखे. पूछने पर पता चला कि इनकी आजीविका का यही साधन है. कोयला लदे ट्रकों को जबरदस्ती रोकते हैं और जब तक मन करता है कोयला उतारते हैं. यदि किसी ड्राइवर ने विरोध किया तो ट्रक का शीशा फोड़ देते हैं. सड़कों पर कांटी लगा लंबा बांस रख देते हैं और इससे भयवश ड्राइवर गाड़ी आगे नहीं बढ़ाये. धूल-धक्कड़ से भरे इस रोड पर यहां के लोग सपरिवार, जिनमें छोटे बच्चे भी शामिल हैं, सुबह से शाम तक काम करते हैं और इस क्षेत्र में टीबी के मरीज नहीं हो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है. किशोर दुमका के रहने वाले हैं और इस क्षेत्र को लेकर उनकी पुख्ता जानकारी से मैं प्रभावित था. इस बीस किलोमीटर तक के दृश्य को देख कर रास्ता तो कट गया, लेकिन यह प्रश्न दिमाग में उलझ कर ही रह गया कि ऐसा क्यों है कि ये युवा समाज की मुख्यधारा से अलग जिंदगी बिता रहे हैं. इनके लिए स्थापित और सम्मानित रोजगार की सरकार क्यों व्यवस्था नहीं कर सकी है.
मन में उलङो कई सवालों के बीच हकीकत से रू-ब-रू होने का मौका मिला, लेकिन इसका जवाब नहीं मिल सका था. होटल के कमरे में पहुंचने पर कुछ देर आराम किया. चूंकि हमें फिर जिले के दूसरे ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण करना था इसलिए बिना देर किये हम फिर से क्षेत्र में निकल गये. माइंस रोड से एक बार फिर गुजरते हुए हम सभी जिले के महेशपुर प्रखंड पहुंचे. यहां थोड़ा वक्त गुजारने के बाद हमने पाकुड़िया प्रखंड का रूख किया. गांव में पहुंचने के लिए हमारी गाड़ी ने कच्ची सड़क का सहारा लिया और हम पाकुड़िया प्रखंड के जाैका गांव जा पहुंचे. इस गांव के दो टोले हैं. सितुम टोला में घुमने के दौरान कुछ पुरुष एक पेड़ के नीचे आपस में बातचीत करते मिले. चूंकि हमारे साथ उस क्षेत्र में झारखंड राज्य आजीविका मिशन के साथ काम करने वाले महमूद थे, इसलिए संताल परगना के इस ग्रामीण क्षेत्र में हमें संवाद में कोई कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा. टोले में महिलाओं से मिलने पर पता चला कि इन पुरुष के पास कोई रोजगार नहीं है. जिस महिला से भी हमने पूछा कि उनके पति क्या करते हैं, उनका जवाब होता था – कुछ नहीं करते हैं. बातचीत से यह बात साफ समझ में आ गयी थी कि अधिकतर पुरुष के पास रोजगार का कोई मजबूत विकल्प नहीं है. वे कभी मजदूरी कर, तो कभी खेतों में काम कर जीवन का गुजारा कर लेते हैं लेकिन यह बात बिल्कुल साफ थी कि अधिकांश समय वे घरों पर ही रहते हैं, ताश खेलते हैं और जो कुछ कमाई हुई, तो उसका शराब पी जाते हैं. इसके लिए वे पत्नी की कमाई का भी सहारा लेते हैं.
महमूद बताते हैं कि इस गांव की सबसे बड़ी समस्या नशापान है. गांव में पुरुष वर्ग के पास काम नहीं होता है.
शिक्षा की भी कमी है. मजडीहा टोला में 27 परिवार हैं जिनमें मात्र एक महिला है सोनी मुमरू जो इंटर तक पढ़ी है. वह इस गांव की बहू है. इन दोनो टोलों में किसी घर में शौचालय नहीं है. पुरुष-महिला सभी शौच के लिए बाहर जाते हैं. पता चला कि दोनों टोलों में गांव में दो ही चापाकल हैं, जिनमें से एक खराब है. सड़क के नहीं होने के कारण बरसात के दिनों में प्रखंड से यह पूरी तरह कट जाता है. स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता की भी कमी होने के कारण इसका बहुत बुरा व असर लोगों पर पड़ता है.
इस गांव में महिलाएं आर्थिक रूप से ज्यादा मजबूत हैं. कारण- जीविका के लिए विभिन्न माध्यमों का इस्तेमाल करना और घर परिवार की जिम्मेदारी को गंभीरता से लेना. इस काम के लिए उन्हें आजीविका मिशन का भी काफी सहयोग मिल रहा है. टोले में महिलाओं के समूह बने हैं और ये महिलाएं समूह से रोजगार और घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए ऋण ले रही हैं. वंचित समुदाय से संबंध रखने वाली इन महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा अधिक कर्मठता और पारिवारिक जिम्मेदारियों को लेकर गंभीरता थी. महिलाओं ने अपने पति की पीने की आदत को लेकर शिकायत भी की और नाराजगी भी जतायी.
वंचित समुदाय के गांवों में घूमने के दौरान सरकारी योजनाओं के घोर अभाव का संकेत साफ मिलता है. साफ-सफाई को लेकर भी ग्रामीण जागरूक नहीं है और स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी शायद ही इस गांव की और रूख करते हैं. बच्चे नजदीक के स्कूल जाते हैं और गांव में ही आगंनबाड़ी केंद्र हैं. इस गांव में जिस तरह महिलाएं आर्थिक रूप से मजबूत हो रही हैं वह सराहनीय है. महिलाओं के प्रयास से इस गांव में विकास की कुछ संभावनाएं मुङो जरूर दिखने को मिलती है.