लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी और एनडीए को मिली बड़ी सफलता ने न केवल विरोधी दलों को बल्कि बीजेपी एवं आरएसएस को भी चौंकाया था. व्याख्याकारों के बीच इस जीत की समीक्षा जारी है.
दरअसल 2014 के लोकसभा चुनाव के दिनों में बिहार एवं उत्तर प्रदेश के स्थानीय अख़बारों में ये ख़बरें छप रही थीं कि किस प्रकार चुनाव के दिनों में बड़ी संख्या में प्रवासी, रेलगाडि़यों में लदकर वोट देने अपने घर आ रहे थे. ये प्रवासी न केवल स्वयं वोट देने बल्कि अपने घर, अपने आस-पास, अपनी पट्टी अपने गांव के मतदाताओं के वोट देने के निर्णय को प्रभावित कर रहे थे.
ये प्रवासी गांव में ‘नौकरियां करने वाले’, ‘पैसा कमाने वाले’ होते हैं. यही वजह है कि गांव के लोगों पर उनकी राय का प्रभाव पड़ता है. मोदी इस सच्चाई को समझते थे, अतः उत्तर प्रदेश एवं बिहार के अपने भाषणों में वे ऐसे प्रवासियों से लगातार अपने को कनेक्ट कर रहे थे.
अब देखना यह है कि ‘पूरे देश को गुजरात जैसा विकसित बनाए जाने की’ प्रवासियों की यह चाह कहां तक पूरी होती है?
आगे पढ़िए विश्लेषक बद्री नारायण का पूरा आलेख
लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी और एनडीए को मिली बड़ी सफलता ने न केवल विरोधी दलों को बल्कि बीजेपी एवं आरएसएस को भी चौंकाया था.
मोदी के पक्ष में ‘लहर’ बनने के कारणों की समीक्षा राजनीतिक व्याख्याकार विभिन्न संचार माध्यमों में कर रहे हैं.
इनमें प्रायः जाति, मध्य वर्ग, विकास की चाह, साम्प्रदायिक संचेतना, कांग्रेस के ख़िलाफ़ जनता की नाराज़गी जैसे पारंपरिक एवं सतह पर दिखने वाले कारण ही प्रभावी रहे हैं.
सामाजिक विकास के क्रम में बनने वाली नई कोटियां, नई प्रक्रियाएं इन व्याख्याओं में अनदेखी रह जा रही हैं. ऐसी ही एक कोटि है प्रवासियों की. उत्तर प्रदेश विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से सतत प्रवासन जारी है.
उत्तर प्रदेश एवं बिहार के भोजपुरी क्षेत्रों के प्रवासन का इतिहास बताता है कि मध्य काल से ही सामंतों, स्थानीय राजाओं की सेवा में नौकरी के लिए जाने का चलन इस क्षेत्र में रहा है.
औपनिवेशिक काल में बढ़ते अकाल, सन् सत्तावन के आंदोलन से उत्पन्न अराजकता और अंग्रेजी दमन, अंग्रेजी सरकार की नीतियों के कारण बढ़ती ग़रीबी ने इस क्षेत्र से प्रवासन की प्रक्रिया को और तीव्र किया.
गिरमिटिया मज़दूर
इसके परिणाम स्वरूप ‘गिरमिटिया मज़दूर’ के रूप में 1833 से 1922 तक इस क्षेत्र से 12 लाख लोग मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी, त्रिनिदाद आदि देशों में गए.
आज़ादी के बाद भी यहां से प्रवासन की प्रक्रिया जारी रही. यहां से लोग कलकत्ता, मुम्बई, असम जैसी जगहों पर काम की तलाश में जाते रहे.
साठ के दशक में यहां के लोग ‘नौकरी की तलाश में ग़ाजियाबाद, फ़रीदाबाद, मुंबई, सूरत, अहमदाबाद बड़ी संख्या में जाने लगे.
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के आधार पर इन क्षेत्रों से प्रवासन की बढ़ती गति को समझा जा सकता है. खाड़ी देशों में जहां पहले केरल से ज़्यादा प्रवासी जाते थे, वहीं अब बिहार के प्रवासियों की संख्या सबसे ज़्यादा हो गई है.
विदेश में प्रवासन से ज़्यादा देश के भीतर दूसरे राज्यों में इन क्षेत्रों से प्रवासी काम की तलाश में जा रहे हैं.
1992 में बिहार के सामाजिक सुरक्षा विभाग का आंकड़ा बताता है कि उत्तरी बिहार के आरा, छपरा, मुज़फ़्फ़रपुर आदि आठ ज़िलों में प्रवासियों की संख्या 1,02,744 के करीब थी. जो आज कम से कम दोगुना तो हो ही गई होगी.
रेल में गुणगान
2014 के लोकसभा चुनाव के दिनों में बिहार एवं उत्तर प्रदेश के स्थानीय अख़बारों में ये ख़बरें छप रही थीं कि किस प्रकार चुनाव के दिनों में बड़ी संख्या में प्रवासी रेलगाडि़यों में लदकर वोट देने अपने घर आ रहे थे.
प्रवासी डेस्टिनेशन से उत्तर प्रदेश एवं बिहार जाने वाली ट्रेनों जैसे कि साकेत एक्सप्रेस, काशी एक्सप्रेस, गोदान एक्सप्रेस, कामायनी एक्सप्रेस, मुरी एक्सप्रेस, नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस में चुनाव चर्चा में मोदी का गुणगान साफ़ सुना जा सकता था.
हालांकि वे अपने को साक्षात मोदी के कार्यों का दृष्टा बताते थे, लेकिन कुरेदने पर पता चलता था गुजरात के प्रवासियों को छोड़ अन्य में मोदी जी का प्रशंसा भाव टीवी, रेडियो, अख़बारों से आया है.
सूरत, अहमदाबाद और मुंबई से आने वाली ट्रेनें मोदी को वोट देने की चाह रखने वाले प्रवासियों से भरी पड़ी थी. ये प्रवासी न केवल स्वयं वोट देने बल्कि अपने घर, अपने आस-पास, अपनी पट्टी अपने गांव के मतदाताओं को वोट देने के निर्णय को प्रभावित कर रहे थे.
मनोवृत्ति और चुनाव
पूर्वी उत्तर प्रदेश में जौनपुर एवं बनारस के आस-पास के गांवों में चुनाव के दिनों में इन प्रवासी विचारों का असर ग्रामीण जनमत पर साफ़ दिखाई दे रहा था.
बनारस के अनई, दलीपुर जैसे गांवों में सूरत से आए प्रवासी मोदी द्वारा गुजरात में किए गए विकास की चर्चा चाय की दुकानों, चौपालों में करते दिखाई पड़ रहे थे.
वहां की सड़कें, वहां की बिजली, पानी की सुविधा का वर्णन कर कहते, "मोदी जी उत्तर प्रदेश में भी वह सब कर देंगे जो उन्होंने गुजरात में किया है."
जौनपुर के हसरौली गांव में मुंबई से लौटे प्रवासी भी मोदी में नई आशा देख रहे थे एवं अपने गांव-घर वालों को अपना मंतव्य बता रहे थे.
प्रवासी मनोवृत्ति यह होती है कि वह कार्यस्थल पर हुए अपने दुख, अपने अपमान का बयान न कर, वहां अपने ‘अच्छे जीवन’ का वर्णन करता है. इस प्रक्रिया में अपने ‘जन्म स्थल पर’ वह अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करता है.
मनोविज्ञान की राजनीति
कोई प्रवासी नहीं चाहता कि उसके साथ मुंबई या महाराष्ट्र में हुए अपमानों का वर्णन उनके इलाक़ों में किया जाए. उनके इस मनोविज्ञान में मोदी की राजनीति फिट बैठ रही थी.
वहीं राहुल गांधी लगातार मुंबई इत्यादि में उनके साथ हो रहे दुर्व्यवहार को चुनावी मुद्दा बना रहे थे. हालांकि वह ‘कर्मस्थल’ पर उनकी हक़ीक़त थी, परन्तु वे उससे बचते नज़र आते हैं.
ये प्रवासी गांव में ‘नौकरियां करने वाले’, ‘पैसा कमाने वाले’ होते हैं. यही वजह है कि गांव के लोगों पर उनकी राय का प्रभाव पड़ता है.
मोदी इस सच्चाई को समझते थे, अतः उत्तर प्रदेश एवं बिहार के अपने भाषणों में वे ऐसे प्रवासियों से लगातार अपने को कनेक्ट कर रहे थे. बिहार में जब वे एक प्रवासी परिवार से फ़ोन पर बात कर रहे थे, तो उनसे थोड़ी देर बाद गुजराती में बात करने लगे.
अब देखना यह है कि प्रवासियों की यह चाह कहां तक पूरी होती है? उनके वृत्तांत सिर्फ ‘हवाबाजी’ न बनकर सच में कितना बदलते हैं, यह चिंता मोदी को करनी है. इससे गांव समाज में प्रवासियों की प्रतिष्ठा भी बचेगी एवं मोदी की भी.
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