मनीष पुष्कले
पेंटर
पिछले कुछ सालों से विभिन्न शहरों, धाराओं और अनेक तबकों के युवाओं के साथ मेरा संबंध और संवाद बढ़ा है. ये युवा लेखन, नर्तन, रंगमंच, चित्रकला, पत्रकारिता, राजनीति व अन्यान्य क्षेत्रों से रहे हैं.
उनसे हुए संवादों के आधार पर, अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूं कि स्वयं को लेकर जिस प्रकार की गंभीरता हमारे छोटे शहरों, कस्बों या गांव के युवाओं में दिखती है, वह बड़े शहरों के युवाओं में नहीं दिखती. मैंने महसूस किया है कि शहरी युवाओं के मानस में स्वप्नासक्ति और संवेदनशीलता के साथ पराक्रम और साहस का अनुपात घटा है.
यूं तो समय हमेशा से ही अपने साथ नयी-नयी चुनौतियों को लाता है और इतिहास में ऐसे तमाम प्रमाण दर्ज है, जिन्हें पढ़ कर हम किसी काल विशेष की दुरूहता और उसमें रहे युवाओं की चुनौतियों को समझ भी सकते हैं. लेकिन, हमने इतिहास से सीख लेना बंद कर दिया है. यह तो सुखद है कि शहरों से दूर, ग्रामीण या छोटे अंचलों से अब भी अनेक ऐसे युवा लेखक, विचारशील कलाकार उभर रहे हैं, जिनका दृष्टिकोण साफ है. वे आज के दुनियावी परिवर्तनों के प्रति सजग हैं और अपने पारंपरिक बोध से सहज भी.
उनके आचरण में अपनी परंपराओं को लेकर सम्मान है और उसके मूल्यों का उनके वर्तमान में यथायोग्य स्थान भी है. इसके बरक्स मैं महानगरों के अनेक ऐसे युवाओं से भी मिलता रहा हूं, जिनमें आत्मविश्वास तो बहुत है, लेकिन वे दिशा-भ्रम में हैं. उनका आत्मविश्वास, परंपरा और आधुनिकता के बीच उभरी दूरियों में केंद्रित है. विशेषकर चित्रकला के क्षेत्र में तो यह अंतर इसलिए भी बहुत साफ दिखता है, क्योंकि उसमें शास्त्रीयता का व्याकरण वैसा नहीं होता, जैसा अन्य शास्त्रीय कलाओं में होता है. उसमें हर कलाकार को अपनी व्याकरण भी रचनी होती है और उससे अपना मुहावरा भी बनाना होता है.
इसलिए, संभवतः चित्रकला अकेली ऐसी कला है, जिसमें शास्त्रीयता, समकालीन होती है. उसमें कलाकार का मानवीय पक्ष, उसकी सामाजिक चेतना का स्तर उसके बिंबों से साफ प्रकट होता है. संभवतः इसलिए चित्रकला को सभी कलाओं में श्रेष्ठ कहा गया है. कलाएं स्कैनर का काम भी करती हैं, जिससे हम सामाजिक संवेदनाओं को समझ सकते हैं.
बहरहाल, जिस प्रकार से कल्पना और आग्रह का परस्पर संबंध ग्रामीण अंचल से आये आज के कलाकारों की रचनाशीलता में दिखता है, वह शहरी माहौल में रहे कलाकारों की संवेदना से भिन्न है.
भू-मंडलीकरण के इस दौर में वैसे तो हर चीज ही अपने स्थापित उद्देश्य और औचित्य से विलगति नजर आती है, जिसकी छाया में हर मान्यताओं का चलन और प्रचलन स्थगित-सा होता प्रतीत होता है. लेकिन, संक्रमण के इस काल में विभिन्न क्षेत्रों से आते आज के युवाओं से ऐसे साहस की अपेक्षा रखने में कोई बुराई नहीं है, जिससे हमारी पारंपरिक चेतनाएं अक्षुण्ण रह सकें. संयोग से इस अपेक्षा पर ग्रामीण अंचल के युवा ही खरे उतरते प्रतीत होते है. पारंपरिक ज्ञान और शिक्षा की अनुपस्तिथि में आधुनिक शिक्षा पद्धति अपनी पूर्ण विफलताओं की ओर अग्रसर है, जो निरंतर एक निर्भीक और सभ्य नागरिक की जगह अंततः एक डरपोक और असभ्य, लेकिन आधुनिक मनुष्य का निर्माण कर रही है.
युवाओं के इस पक्ष पर विचार करने का कारण मेरे मन में शाह फैसल के उस कदम से उठा है, जिससे मैं बेहद प्रभावित हूं. ये वही कश्मीरी नौजवान हैं, जो साल 2009 में सिविल सर्विसेज टॉपर थे. इन्होंने हाल की राजनीति में कश्मीर की समस्या के प्रति उचित रवैये और पर्याप्त विमर्श के न होने से विचारपूर्वक भारतीय प्रशासनिक सेवा से अपना इस्तीफा दे दिया.
वे अब उसी राजनीति की मुख्यधारा से जुड़ कर अपना अलग रास्ता तलाश रहे हैं. अपने हालिया बयानों से इस समस्या के प्रति विभिन्न सरकारों की कोशिशों और मंतव्यों के बीच उन्होंने अपने विचारों को जिस प्रकार रखा है, वह बेहद प्रशंसनीय है.