अशोक भौमिक समकालीन भारतीय चित्रकला में एक जाना-पहचाना नाम हैं. जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे हैं. इनकी देश-विदेश में एक दर्जन से ज्यादा एकल चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन हो चुका है. ‘मोनालीसा हंस रही थी’, ‘शिप्रा एक नदी का नाम है’ उपन्यासों और ‘बादल सरकार व्यक्ति और रंगमंच’ , ‘समकालीन भारतीय चित्रकला : हुसैन के बहाने’ के लेखक के तौर पर प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत.
आप अपने चित्रों में क्या व्यक्त करना चाहते हैं?
चित्र के साथ हम प्राय: ‘समझना’,‘कहना’ आदि शब्दों का ठीक उसी प्रकार से प्रयोग करते हैं, जैसा कि कहानी और निबंध के साथ करते है, जो गलत है! चित्र किसी एक बात को व्यक्त लिए नहीं करते, हम प्राय: चित्र के संदर्भ को चित्र समझ लेते हैं. मेरी कभी लैंडस्केप बनाने में बहुत रुचि नहीं रही, मैं मॉडल को भी चित्रित नहीं करता था, लेकिन शुरुआती दिनों में एक दृश्य से मैं अत्याधिक प्रभावित हुआ था. तब मैं कानपुर में बीएससी कर रहा था, वहां नयी सड़क पर लेबर चौराहे में सुबह पांच बजे से एक कतार में बड़ी संख्या में मजदूर बैठे रहते थे, जिन्हें लोग घर के छोटे-मोटे निर्माण कार्य या रंग-रोगन के लिए दिहाड़ी पर ले जाते थे. अधिकतर के पास खाने का छोटा सा डिब्बा होता था और कुछ के पास औजार भी. शायद वो आस-पास के गांव से तड़के जाग कर आये होते थे इसलिए उकड़ूं बैठे ऊंघते रहते थे. बगल में कुत्ता भी सो रहा होता. मैं रोज जल्दी जागकर उन्हें स्कैच करने जाता था. मेरे लिए यह एक नया अनुभव था. इस पर ‘डेली बेसेज’ शीर्षक से मैंने चित्र तो बनाये लेकिन मैं जो देख रहा था, वो नहीं बना. अगर मैं उन चित्रों की व्याख्या न करूं तो शायद आपको लगे कि कुछ लोग बैठे भर हैं. ऐसे में ‘संदर्भ’ चित्र से कट जाता है. इसलिए बाद के दिनों में मैं अपने चित्रों का सरल बनाने की कोशिश करने लगा. यानी चित्र को इतना सहज होना चाहिए कि आठ साल का बच्चा हो या अस्सी वर्ष के बुजुर्ग, शिक्षित हो या अशिक्षित, सभी इसे अपने अपने ढंग से अनुभव कर सकें. विश्व में धर्म और राज सत्ता ने इन्हीं ‘संदर्भों’ के जरिये कला को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया है, आज इस कला को इन जंजीरों से मुक्त करने का समय है. मैं एक लंबी प्रक्रिया से गुजर कर चित्र बनाता हूं लेकिन ये जरूरी नहीं कि दर्शक भी इस लंबी प्रक्रिया से गुजरे. मैं अपने चित्रों में केवल हाशिये पर रह रहे लोगों का जिक्र करना चाहता हूं जिन्हें समाज में हम नहीं देख पाते हैं या कि देखने से चूक जाते हैं
कलारंभ का कोई खास क्षण?
मेरी मां बहुत ही अच्छे चित्र बनाती थीं. लेकिन जैसा कि भारतीय समाज में होता है महिलाओं को घर की जिम्मेदारी को ही प्राथमिकता में रखना पड़ता है. मैं अपने रुझान की बात करूं, तो एक क्षण याद आता है. शाम का वक्त था. मां काले रंग का शॉल ओढ़ कर बैठी थीं. मैंने तब स्कूल जाना नहीं शुरू किया था और अपने भाई साहब की कॉपी लेकर उसमें पेंसिल से मां की शॉल पर बने डिजाइन उकेर रहा था. मुङो लगता है कि वही मेरी पहली चित्र रचना थी. वह बिल्कुल वैसा नहीं बना होगा, पर मेरे बालमन को आनंद मिला. मुङो बचपन की और कोई बात याद नहीं लेकिन यह इत्तेफाक है कि मेरी स्मृति में वो क्षण रह गया.
मैं जब दसवीं कक्षा पास कर चुका था, तब कला पुस्तकों के प्रति मेरी रुचि बढ़ी. पीछे मुड़ कर देखूं तो मैं सिर्फ चित्रकला की शैलियां ही नहीं सीख रहा था, साहित्य के प्रति भी मेरा रुझान भी बढ़ रहा था. आज मुङो लगता है कि एक चित्रकार के लिए चित्रकला के इतिहास को जानना तो जरूरी है ही, साहित्य में भी रुचि होनी चाहिए. खासतौर पर कविता से जरूर प्रेम होना चाहिए. वो कविता लिखे न लिखे, पढ़े जरूर. 1974 में मैं जब क्राइस्ट चर्च कॉलेज कानपुर से वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर कर रहा था, मेरी पहली प्रदर्शनी हुई थी. मैं कभी आर्ट कॉलेज नहीं गया, मैंने चित्र बनाना खुद से ही सीखा. लेकिन मेरा मानना है कि आज भी मैं कला का छात्र हूं.
चित्र की रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं?
अमूमन ईजल के सामने बैठने से पहले चित्र का विषय और संरचना दिमाग में चलते रहते हैं. एकदम भरे हुए दिमाग से मैं कैनवस पर ड्रॉ करना शुरू तो करता हूं, लेकिन जब चित्र पूरा होता है तो पाता हूं कि उसका कोई भी संबंध उससे नहीं है जिसके बारे में मैं ठीक चित्र बनाने से पहले सोच रहा था. यह मेरे साथ बार-बार होता है. मेरे ख्याल से एक के बाद दूसरा चित्र बनाते जाना तभी संभव है, जब यह बात जो समझ से परे है, आपके साथ घटित होती रहे.
आपने चित्रकला, रंगमंच पर लेखन के साथ उपन्यास और कहानियां भी लिखी हैं. लेखन से अपने संबंध को किस तरह देखते हैं?
मेरे घर में पढ़ने-लिखने का माहौल था. कक्षा नौ-दस में मैंने शरतचंद्र को पूरा पढ़ लिया था. बीएससी के दौरान सोमरसेट मॉम की एक किताब अचानक हाथ लगी, उन्हें पढ़ना शुरू किया और तय किया कि उनकी सारी किताबें पढ़ डालूंगा. उसी समय मैं बांग्ला लेखक शंकर को भी पढ़ रहा था. तुरंत बाद काफ्का, कामू , गोर्की आदि पढ़ने को मिले. लेकिन मैंने लिखना बहुत देर में शुरू किया और क्यों शुरू किया इसका तो उत्तर नहीं दे सकता लेकिन मैं नियमित लिखने वाला लेखक नहीं. अंदर से जब भावनाएं आती हैं, तो लिखता हूं . चित्रकला और नाटक के बारे में लिखना मेरी ‘जिम्मेदारी’ है, एक जरूरत है. मेरे लिए मेरा हर कलाकर्म सत्ता संस्कृति के खिलाफ एक प्रतिरोध की संस्कृति के निर्माण के उद्देश्य से किया गया हस्तक्षेप है. शायद इसीलिए मेरे लिए सरकारी, गैरसरकारी पुरस्कारों और सम्मानों का कोई महत्व नहीं है.
आपकी नयी किताब ‘अकाल की कला और जैनुल आबेदिन’ के बारे में बताएं?
चित्रकला में अकाल की अभिव्यक्ति को आज की पीढ़ी भूल ना जाये, इसलिए भी मैंने इसे लिखा. अकाल आज भी जारी है, अकाल 1947 के पहले भी था. शोषित चाहे किसी भी मुल्क के हों, उनका अपना परचम है, जिसे जैनुल आबेदिन जैसे चित्रकार आगे लेकर चल रहे हैं. अभी मैं एक और किताब लिख रहा हूं चित्रप्रसाद के चित्रों और जीवन पर. इन किताबों कों केवल साहित्य मान लेना ठीक नहीं, इनका एक सुस्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य है.
चित्रकला, लेखन,सामाजिक सरोकारों से जुड़े कार्यक्रमों के बीच कैसे सामंजस्य बिठाते हैं?
मैं पेंटिंग कर रहा हूं और अगर जंतरमंतर में प्रदर्शन है तो मेरे पास वहां न जाने का कोई विकल्प नहीं है. मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि कहानी, कविता या चित्रकला में सामाजिक परिवर्तन की बात करना कतई पर्याप्त नहीं है. हमें सीधे-सीधे हस्तक्षेप करना होगा. सड़क पर उतरना होगा. और सीधे हस्तक्षेप का अर्थ हर आदमी को अपने-अपने ढंग से समझना होगा.
चित्रकार, जिनसे आप प्रभावित रहे हैं?
बचपन से मुङो पिकासो प्रभावित करते रहे हैं. पिकासो का मूल कार्यकाल दो महायुद्धों के बीच का है. उनके चित्र अपने समय को, समाज को बड़ी ईमानदरी से प्रतिबिंबित करते हैं. इसी वजह से भारतीय चित्रकला में मुङो चित्रप्रसाद भी इतना ही प्रभावित करते हैं.