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विश्व सिनेमा में हंगरी का दखल
अजित राय संपादक, रंग प्रसंग, एनएसडी हंगरी के दो फिल्मकारों ने इस समय विश्व सिनेमा में अपनी खास जगह बनायी है. ये हैं- कोरनेल मुड्रूजू और लाज्लो नेमेस. कोरनेल मुंड्रूजू की फिल्म ‘जुपिटर मून’ एक तरह से उनकी पिछली फिल्म ‘ह्वाॅइट गॉड’ की अगली कड़ी है. ‘ह्वाॅइट गाॅड’ को कान फिल्म समारोह के अन सर्टेन […]
अजित राय
संपादक, रंग प्रसंग, एनएसडी
हंगरी के दो फिल्मकारों ने इस समय विश्व सिनेमा में अपनी खास जगह बनायी है. ये हैं- कोरनेल मुड्रूजू और लाज्लो नेमेस. कोरनेल मुंड्रूजू की फिल्म ‘जुपिटर मून’ एक तरह से उनकी पिछली फिल्म ‘ह्वाॅइट गॉड’ की अगली कड़ी है. ‘ह्वाॅइट गाॅड’ को कान फिल्म समारोह के अन सर्टेन रिगार्ड खंड में (2014) बेस्ट फिल्म का अवाॅर्ड मिल चुका है.
मुंड्रूजू सिनेमा में बिना राजनीतिक हुए कला के माध्यम से परेशान करनेवाले सवाल उठाते रहे हैं. इंगमार बर्गमान की तरह उनका मुख्य विषय है- धार्मिक आस्था.
लाज्लो नेमेस की फिल्म ‘सन ऑफ साउल’ को ऑस्कर (2016) मिलने के बाद हंगरी का सिनेमा एक बार फिर फोकस में आया है. नेमेस को प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह (2016) में जूरी का सदस्य बनाया गया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक नाजी कैंप में एक यहूदी पिता द्वारा अपने मृत पुत्र के अंतिम संस्कार करने की जानलेवा और जोखिम भरी जद्दोजहद की दिल दहलानेवाली दास्तान दर्शकों को विचलित कर देती है.
‘जूपिटर मून’ में आर्यन दाशनी को सीरिया से अवैध रूप से सीमा पार करते समय गोली लगती है और पिता से बिछड़कर वह हंगरी के शरणार्थी शिविर में पहुंच जाता है. उसे यह पता चलता है कि वह उड़ सकता है.
उसकी इस अतिंद्रीय शक्ति से पैसा कमाने की लालच में डाॅ स्टर्न, जो एक नास्तिक है, उसे वहां से भगाकर अपने घर लाता है. इमीग्रेशन अधिकारी लाज्लो उनका पीछा करता है. आगे की फिल्म चूहा-बिल्ली के खेल की तरह चलती है. जादुई यथार्थ से भरी इस फिल्म में घटनाएं वास्तविक तरीके से घटती हैं.
बुडापेस्ट शहर की सड़कों, इमारतों, मेट्रो, दफ्तरों और शरणार्थी शिविर के दृश्य वास्तविक तरीके से फिल्माये गये है, सिवाय आर्यन के उड़ने के. अंतिम दृश्य में उसे सातवें आसमान में उड़ते हुए दिखाया गया है. यह फिल्म आज की शरणार्थी समस्या की पृष्ठभूमि में वैश्विक सवालों से टकराती है कि मनुष्य का एक विश्वास ऐसा होगा जो देश, काल, धर्म, समाज से ऊपर होगा.
मुंड्रूजू की ‘ह्वाईट गॉड’ विश्व सिनेमा में एक अविस्मरणीय फिल्म है, जिसमें कुत्तों के माध्यम से लगातार हिंसक और पशुवत होती मानवीय सभ्यता को आईना दिखाया गया है. भोर के झुटपुटे में हंगरी की मुख्य सड़कों पर कुत्तों की सेनाओं का मार्च पास्ट हैरतअंगेज है. एक तेरह साल की बच्ची लिली से उसका हाईब्रीड कुत्ता हागेन अलग कर दिया जाता है, क्योंकि लिली के पिता उसे साथ रखने को राजी नहीं है.
हागेन कई यात्राएं करता हुआ एक धूर्त और लालची कुत्तेबाज के चंगुल में फंस जाता है, जो उसे यातनाएं देकर हिंसक बनाता है, ताकि कुत्ता युद्ध के लाइव शो में वह दूसरे कुत्तों को मार सके. यहां से हागेन की एक खतरनाक यात्रा शुरू होती है, जो अंत में पूरे शहर को विनाश के कगार पर ला खड़ा करती है. सैकड़ों हिंसक आदमखोर कुत्तों की सेना बनाकर हागेन शहर पर आक्रमण कर देता है. संगीत की छात्रा लिली ही अंतत: संगीत के जादू से हागेन को वापस अहिंसक बनाती है.
मुंड्रूजू अपनी फिल्मों में हमेशा नये प्रयोगों के साथ दार्शनिक सवाल खड़े करने के लिए जाने जाते हैं. उनका मानना है कि यदि हम नहीं सुधरे, तो अंतहीन लालच और अन्याय पर आधारित हमारी पूंजीवादी सभ्यता अंतत: मनुष्य जाति का ही विनाश कर देगी. ‘ह्वाइट गॉड’ में उन्होंने कुत्तों को माध्यम बनाया, क्योंकि वे किसी देश या नेता या राजनीतिक-आर्थिक विचारधारा को खलनायक नहीं बनाना चाहतेंं थे.
‘जुपिटर मून’ में उन्होंने जादुई यथार्थवाद के माध्यम से बेघर-बार शरणार्थी लोगों के प्रति यूरोपीय सोच को चुनौती दी है, जिसके लिए उन्होंने मनुष्य की अतिंद्रीय शक्ति को माध्यम बनाया है. उनकी पिछली फिल्में भी कुछ ऐसे ही असुविधाजनक सवाल उठाती हैं कि हमारी दुनिया में इतना अन्याय और शोषण क्यों है?
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