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मंदिर परिसर में एक कवयित्री

अशोक भौमिक चित्रकार हम सभी जानते हैं कि धर्म और साहित्य का रिश्ता बहुत पुराना है. साहित्य का एक बड़ा हिस्सा एक लंबे समय तक धार्मिक कथाओं और देवी-देवताओं के स्तुतिगान के दायित्व से अपने को मुक्त नहीं कर सका था. धार्मिक मंत्र, वंदना, गीत-आरती से लेकर महाकाव्य तक, सभी धर्म प्रचार को ध्यान में […]

अशोक भौमिक
चित्रकार
हम सभी जानते हैं कि धर्म और साहित्य का रिश्ता बहुत पुराना है. साहित्य का एक बड़ा हिस्सा एक लंबे समय तक धार्मिक कथाओं और देवी-देवताओं के स्तुतिगान के दायित्व से अपने को मुक्त नहीं कर सका था.
धार्मिक मंत्र, वंदना, गीत-आरती से लेकर महाकाव्य तक, सभी धर्म प्रचार को ध्यान में रखकर रचा हुआ साहित्य है. इस साहित्य के समानांतर राजाओं और रानियों की महानता की कथा-कहानियों को पद्य, गद्य और नाट्य रूप में प्रचार करने का काम भी साहित्य ने ही किया. साहित्य के जरिये कई राजा ईश्वर बनने में सफल हुए, तो कई कम ख्यात देवताओं को व्यापक अनुयायी मिले.
धर्म-प्रचार में साहित्य की ऐसी भूमिका के बावजूद, आमतौर पर मंदिरों में किसी कवि की मूर्ति हमें नहीं दिखती है. ऐसे में, तमिलनाडु के तिरुवल्लुर जिले के पोन्नेरी गांव स्थित कैलाशनाथ स्वामी मंदिर में नटराज की मूर्ति के नीचे के हिस्से में भक्तिकालीन शैव कवयित्री अम्मइयार की कृशकाय मूर्ति हमें तीन कारणों से अचंभित करती है.
पहला कारण यह कि हम मंदिरों में हड्डियों के ढांचे में तब्दील हो चुके एक औरत की मूर्ति को देखने की उम्मीद नहीं करते, क्योंकि आम तौर पर मंदिरों में केवल देवदासियों, नर्तकियों, नायिकाओं और अप्सराओं की सुंदर मूर्तियों को देखने के ही हम अभ्यस्त होते हैं.
दूसरा, यह जानकर हमें आश्चर्य होता है कि यह मूर्ति छठी शताब्दी के तमिलनाडु के भक्तिकालीन शैव कवयित्री अम्मइयार की मूर्ति है. छठी शताब्दी में, पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में किसी आम महिला को उनके गुण के लिए इतना बड़ा सम्मान मिलना निश्चय ही कोई सामान्य घटना नहीं हो सकती.
इस मूर्ति के साथ जुड़ा एक और तथ्य हमें आश्चर्यचकित करता है. अम्मइयार की यह मूर्ति केवल पोन्नेरी गांव के कैलाशनाथ स्वामी मंदिर में ही हो ऐसा नहीं है. तमिलनाडु स्थित अनेक मंदिरों में नटराज की मूर्तियों के साथ अम्मइयार की मूर्तियां मिलती हैं.
दक्षिण भारत एक लंबे समय (300 ईसा पूर्व से 1279 ईसवी) तक चोल साम्राज्य के अधीन था. चोल शासनकाल में दक्षिण भारत में कई महत्वपूर्ण मंदिरों का निर्माण हुआ. इतिहासकारों का मानना है कि भक्तिकालीन शैव कवयित्री कराइक्कल अम्मइयार का जन्म छठी शताब्दी के आस-पास हुआ था.
लोककथाओं के अनुसार, अम्मइयार अत्यंत सुंदर महिला थी, जिसने शिव से प्रार्थना करते हुए समस्त सांसारिक मोहमाया जाल से मुक्ति के साथ-साथ अपने शारीरिक सौंदर्य से भी मुक्ति मांगी थी. कहते हैं, कवयित्री अम्मइयार की प्रार्थना शिव ने स्वीकार की थी और उन्हें एक अत्यंत असुंदर वृद्धा में तब्दील कर दिया था. अम्मइयार ने अपना जीवन मंदिरों में नटराज मूर्तियों के नीचे बैठे साधना में बिताया था.
यह लोककथा कई सदियों तक दक्षिण भारत और आस-पास के इलाकों में प्रचलित रही. दसवीं शताब्दी के आस-पास चोल साम्राज्य की राजमाता शेम्बियन महादेवी ने, जिन्हें इतिहास में कला और स्थापत्य के संरक्षक के रूप में जाना जाता है, कई शिव मंदिरों का जीर्णोद्धार किया और कई नये मंदिर भी बनवाये. राजमाता शेम्बियन ने ही तमिलनाडु के अनेक शिव मंदिरों में अम्मइयार की मूर्तियों की स्थापना की.
अम्मइयार की इन मूर्तियों की कल्पना, प्रचलित लोककथाओं को ही आधार मानकर चार सौ साल के बीत जाने के बाद किया गया था. अम्मइयार के इस रूप में हमें सौंदर्य की प्रचलित अवधारणा से हटकर सृजन का साहस दिखायी देता है, जो भारतीय मूर्तिकला का एक विशिष्ट शक्ति रही है.
अम्मइयार की इस असुंदर और लगभग डरावने रूप के बावजूद युगों से उन्हें जनता ने इसी रूप में ग्रहण कर सम्मान दिया. इसी कारण से मूर्तिकार भी अम्मइयार के इस रूप की कल्पना कर उसे रचने का साहस कर सके. अम्मइयार की मूर्तियां एक उन्नत कला चेतना-संपन्न समाज की कृतियां हैं, जहां कलाकार और कला रसिक, समाज के दो अलग हिस्से नहीं लगते हैं.
अम्मइयार की अधिकतर मूर्तियां हालांकि दीवारों पर उभारकर बनायी हुई ‘रिलीफ’ मूर्तियां हैं, पर इसके साथ-साथ हमें बड़ी संख्या में कांसे या अन्य धातुओं से बनी मूर्तियां भी मिलती हैं. अमेरिका के मेट्रोपोलिटन म्यूजियम में 13वीं सदी में बनी ऐसी ही एक मूर्ति संरक्षित है, जो तांबे की मिश्रित धातु से बनी हुई है.
इस मूर्ति में अम्मइयार का सर मुंडा हुआ है और उन्होंने अपने दोनों हाथों में करताल (झांझ) पकड़ा हुआ है. विश्व की कई अन्य प्रसिद्ध संग्रहालयों में अम्मइयार की मूर्तियां प्रदर्शित हैं.

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