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कलाओं का संरक्षण : गमलों में सजाने से नहीं बचेंगे कलारूप
राजेश चंद्र, वरिष्ठ रंगकर्मी संगीत नाटक अकादमी और हमारे तमाम क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र कला और संस्कृति के समग्र विनाश के लिए काम कर रहे हैं. यह बात बहुत लोगों को अतिकथन लग सकती है, पर मेरा मानना है कि ये संस्थाएं उन उद्देश्यों से आज पूरी तरह किनारा कर चुकी हैं, जिनके लिए कभी उनकी […]
राजेश चंद्र, वरिष्ठ रंगकर्मी
संगीत नाटक अकादमी और हमारे तमाम क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र कला और संस्कृति के समग्र विनाश के लिए काम कर रहे हैं. यह बात बहुत लोगों को अतिकथन लग सकती है, पर मेरा मानना है कि ये संस्थाएं उन उद्देश्यों से आज पूरी तरह किनारा कर चुकी हैं, जिनके लिए कभी उनकी जरूरत समझी गयी थी.
जिन समुदायों और लोगों ने हमारे लोक कलारूपों एवं संस्कृति का सर्वाधिक संरक्षण किया, आज वे अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं और ऐसे में जीवन तथा अस्तित्व की रक्षा की चुनौती के सामने अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को बचाये रखना लगभग असंभव होता गया है.
तेजी से बदलते हालात में कला के संरक्षण और विकास के लिए जिस दृष्टि, कार्ययोजना और तत्परता की जरूरत थी, उसका कोई आभास भी हमें अपने इन संस्थानों में नहीं मिलता. यह एक सामान्य तथ्य है कि भारत की लुप्त होती सांस्कृतिक संपदा, हमारे लोकजीवन से जुड़े विभिन्न नाट्य-रूप, हमारी कलात्मक विविधताएं शहरों में लाकर उनका तमाशा बनाने या नुमाइश करने से नहीं बचेंगी.
संगीत नाटक अकादमी जैसे संस्थान हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च कर हमारे लोक कलारूपों को ‘बोनसाई’ बनाकर शहरी गमलों में सजाने या उनके ‘फॉसिल’ का म्यूजियम बनाकर उन्हें बचाने का निरर्थक उद्यम करते हैं! वे ऐसे बुनियादी उपायों की तरफ कभी ध्यान ही नहीं देते, जिनसे लोक कलाकारों को उनके पर्यावास में ही रोजी-रोटी और सम्मान का जीवन उपलब्ध हो.
वे ऐसा कोई उपाय करने को समय की, पैसों की बरबादी समझते हैं कि परिवार पालने के भयावह संघर्ष में रात-दिन पिसते हुए एक ग्रामीण कलाकार जिस कलाविधा को प्राणों से सींचकर बचाता आया, वह कला अगली पीढ़ियों को हस्तगत हो, इसके लिए वहीं पर कोई आधारभूत संरचना तैयार हो.
लोक कलाकारों के जीवन की भयावहता देखकर आज नयी पीढ़ी उनकी कला को ही जीवन के लिए अनिष्टकर मानने लगी है. उसे लगता है कि अगर उसने यह कला सीख ली, तो वह आनेवाली कई पीढ़ियों के लिए भूख और अपमान की ही विरासत छोड़कर जायेगा.
स्वयं लोक कलाकार भी आज नहीं चाहते कि उनके बच्चे उन जैसा कठिन जीवन चुनें. सवाल उठता है कि ऐसे में सरकार और उसकी ये अकादमियां क्या कर रही हैं? हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये आखिर किनके पेट में समा रहे हैं? जो लोग खुद को कलाकार कहते हैं और इन अकादमियों की कुर्सियों से चिपके हुए हैं, क्या उनके अंदर जमीर नाम की कोई चीज बची हुई है? अगर वे इस व्यवस्था में कुछ नहीं कर सकते, तो वहां बैठकर क्या कर रहे हैं?
मैंने नहीं सुना कि अब तक किसी पदाधिकारी ने कलाकार होने के नाते शर्मिंदा होकर, अकादमी के भ्रष्टाचार, उसकी दृष्टिहीनता, उसके नाकारेपन का खुलकर विरोध किया हो और पद त्याग दिया हो. इसका एक ही अर्थ है कि आपको लोक कलाओं के विनाश की तिजारत करने और उनके नाम पर मिले संसाधनों से अपना घर भरने की लत लगी हुई है.
सरकार का काम नीति बनाना और उसके कार्यान्वयन के लिए धन की व्यवस्था करना है.यह सही है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे देश में कोई सांस्कृतिक नीति तक नहीं है और न ही कला-संस्कृति के संवर्द्धन के लिए सरकार ने बजट में कोई सम्मानजनक प्रावधान किया है, पर इसके लिए सरकार से अधिक जिम्मेदार हमारे ये संस्थान और वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी तथा कलाकार हैं, जो नहीं चाहते कि कलाओं के उन्नयन के लिए कोई नीति बने. उन्हें डर है कि इससे संसाधनों पर उनका नियंत्रण और एकाधिकार समाप्त हो जायेगा. इस दिशा में आवाज उठाने के लिए नौजवान पीढ़ी को आगे आना चाहिए, तभी कुछ बदलाव संभव होगा.
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