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पुराने व्यंजन नये अवतार

भारतीय व्यंजनों को विदेशी पोशाक पहनाकर फ्यूजन की शैली में परोसने का काम कई हुनरमंद नक्काल-बक्काल शेफ अरसे से करते आ रहे हैं. यह पेशकश फिरंगी पर्यटकों को भले ही कुछ समय के लिए रिझा ले, लेकिन हिंदुस्तानी शौकीनों की जुबान पर अपना जायका कभी नहीं चढ़ा सकती. जानिए पुराने जायकों के कुछ नये अवतारों […]

भारतीय व्यंजनों को विदेशी पोशाक पहनाकर फ्यूजन की शैली में परोसने का काम कई हुनरमंद नक्काल-बक्काल शेफ अरसे से करते आ रहे हैं. यह पेशकश फिरंगी पर्यटकों को भले ही कुछ समय के लिए रिझा ले, लेकिन हिंदुस्तानी शौकीनों की जुबान पर अपना जायका कभी नहीं चढ़ा सकती. जानिए पुराने जायकों के कुछ नये अवतारों के बारे में.
पुष्पेश पंत
हाल ही में पटना के पड़ोस में हाजीपुर स्थित होटल प्रबंधन संस्थान जाने का मौका मिला. यह छोटा-सा प्रवास इसलिए यादगार बना रहेगा, क्योंकि यहां बेकरी विभाग की परमिंदर मित्तर ने अनेक पारंपरिक बिहारी व्यंजनों के नये इक्कीसवीं सदी वाले अवतारों के दर्शन कराये.
ठेकुआ, मालपुआ, लिट्ठी और अनरसा को उन्होंने गहरा तल कर नहीं, बल्कि ओवन में बेक (सेंक) कर पेश किया. इनके आकार को भी उन्होंने छोटा कर दिया, नतीजतन इन्हें नफासत के साथ अंगुली से उठाकर एक लजीज निवाले में निबटाया जा सकता है- एक के बाद दूसरा निवाला खानेवाले को इनके नायाब जायकों का आदी बनाने लगता है.
जाहिर है कि तले की तुलना में सिका भोजन हमारी सेहत के लिए बेहतर है और पश्चिमी चिप्स और नाचो की तरह इन्हें साथ ले जाया जा सकता है. बरसों पहले कॉकटेल समोसा और कोलकाता क्लब कचौरी ईजाद की गयी थीं. उसके बाद प्रकट हुए मिनी इडली और नन्हीं मट्ठियां. झालमूढ़ी और चना जोर गरम जैसा देहाती चबैना भी हाल के वर्षों में शहरियों के खाने का हिस्सा बनने लगा है.
भारतीय व्यंजनों को विदेशी पोशाक पहनाकर फ्यूजन की शैली में परोसने का काम भी कई हुनरमंद नक्काल-बक्काल शेफ अरसे से करते आ रहे हैं.
यह पेशकश फिरंगी पर्यटकों को भले ही कुछ समय के लिए रिझा ले, लेकिन हिंदुस्तानी शौकीनों की जुबान पर अपना जायका कभी नहीं चढ़ा सकती. गुलाब जामुन की ताजपोशी आप आईसक्रीम से करते रहिये, मगर पूरब-पच्छिम का मिलन गंगा-जमनी संगम की तरह नहीं हो पाता. मन तरसता रह जाता है कुल्फी की कुदरती मलाइयत के लिए! इसकी शुरुआत की थी देश की राजधानी दिल्ली में मनीष मेहरोत्रा ने अपने इंडियन एक्सैंट नामक रेस्तरां में, जिसकी शाखाएं आज लंदन और न्यूयार्क में खुल चुकी हैं, पर अब तक उनके चखने-चखानेवाले मेनू का विकास नहीं हो सका है. दिखावटी सजावट पर ही उनके पदचिन्हों का अनुसरण करनेवाले जोर देते आ रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि परमिंदर के निरंकारी परिवार की ही तरह मनीष के घरवाले भी देश के विभाजन के साथ शरणार्थी के रूप में बिहार पहुंचे और आज इस प्रदेश को ही अपना घर मानते हैं.
प्रयोगधर्मी साहसिकता के साथ एक और बात पारंपरिक व्यंजनों को नया कलेवर देने को इन्हें प्रेरित करती रही है. वो यह कि परमिंदर का विवाह एक बंगाली शेफ से हुआ है और घर के खाने का अखिल भारतीयकरण उनके लिए नयी चीज नहीं है. दरअसल, अपने छोटे लड़के को कचरा खाने (जंक फूड) से विमुख करने के लिए उनकी मां अपने पेशेवर ज्ञान और कौशल का उपयोग करती रही हैं.
हाजीपुर में न केवल लिट्टी को बेक किया गया था, बल्कि उसे स्वादिष्ट सत्तू से भरकर रोल की शक्ल दी गयी थी, जो कुछ-कुछ महाराष्ट्र की नमकीन खटमिट्ठी बाकरवडी की याद दिला रही थी. मेज पर जिन और पारंपरिक मिठाइयों की नुमाइश सजी थी, उनमें गाजा, खाजा और बिलग्रामी शामिल थे. यह अपने पारंपरिक रूप में ही थे. हमें पूरा भरोसा है कि निकट भविष्य में यहां की बेकरी में इनका भी कायाकल्प होगा!
चलते-चलते एक बात और. पीठा हो, खाजा हो या खीर का स्थानीय नुस्खा, यह अनायास ही पड़ोसी बंगाल और ओडिशा की साझी विरासत की याद दिला देता है. बेकार की सर फुटौव्वल से बचें- मिल-बांटकर खायें और गंगा नहायें!
रोचक तथ्य
हाजीपुर में न केवल लिट्टी को बेक किया गया था, बल्कि उसे स्वादिष्ट सत्तू से भरकर रोल की शक्ल दी गयी थी, जो कुछ-कुछ महाराष्ट्र की नमकीन खटमिट्ठी बाकरवडी की याद दिला रही थी.
पीठा हो, खाजा हो या खीर का स्थानीय नुस्खा, यह अनायास ही पड़ोसी बंगाल और ओडिशा की साझी विरासत की याद दिला देता है.

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