हमारे यहां सुचिंतित, सोद्देश्य, समाजोन्मुख और प्रयोगधर्मी रंगमंच के अभाव में नियमित दर्शक या कलाप्रेमी समाज की कोई अवधारणा अब तक बन ही नहीं पायी है, इसलिए निर्देशकों एवं आयोजकों को यह सुविधा है कि उन पर कहीं से कोई रचनात्मक या सामाजिक दबाव पड़ने की संभावना ही नहीं है.
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रंगकर्म में मूल्यहीनता के अंधानुकरण के दौर में विरोधाभासों का हिंदी रंगमंच
हमारे यहां सुचिंतित, सोद्देश्य, समाजोन्मुख और प्रयोगधर्मी रंगमंच के अभाव में नियमित दर्शक या कलाप्रेमी समाज की कोई अवधारणा अब तक बन ही नहीं पायी है, इसलिए निर्देशकों एवं आयोजकों को यह सुविधा है कि उन पर कहीं से कोई रचनात्मक या सामाजिक दबाव पड़ने की संभावना ही नहीं है. रंगकर्मी एक मुर्दा कौम बन […]
रंगकर्मी एक मुर्दा कौम बन चुका है. उसमें न मूल्य बचे हैं, न सामाजिकता बची है, न ईमान बचा है और न संवेदना. हां, इनका आडंबर जरूर दिखायी पड़ता है. कुछ अपवादों की बात न करें, तो हिंदी के ज्यादातर ‘बड़े‘, ‘राष्ट्रीय’, ‘पुरस्कृत’, ‘स्थापित’ और ‘संपन्न’ रंगकर्मी रंगकर्म को सत्ता, पैसा और सुविधाएं जुटाने की सीढ़ी मानते हैं. उनमें से अधिकतर चाहते हैं कि किसी तरह अकादमी पुरस्कार मिल जाये, भारत रंग महोत्सव में दो-एक बार नाटक लग जाये, बस- जीवन का कलात्मक मकसद पूरा. अब वे भारतीय रंगमंच के उस क्लब के सदस्य बन जाते हैं, जिसमें कुछ करने-धरने की जरूरत नहीं है.
हमारे यहां सुचिंतित, सोद्देश्य, समाजोन्मुख और प्रयोगधर्मी रंगमंच के अभाव में नियमित दर्शक या कलाप्रेमी समाज की कोई अवधारणा अब तक बन ही नहीं पायी है, इसलिए निर्देशकों एवं आयोजकों को यह सुविधा है कि उन पर कहीं से कोई रचनात्मक या सामाजिक दबाव पड़ने की संभावना ही नहीं है. आपको बस खुद को सक्रियभर रखना है रंगमंच में. तरह-तरह के मौके, मलाईदार महोत्सव, तरह-तरह की सुविधाएं अपने पैरों चल कर आती है. आप महानता के एक फुत्कारी भाव के साथ उनको ऐसे अंगीकार करते जाइये, जैसे आपने यह सब बड़े त्याग और तप से अर्जित किया है.
आज हिंदी में ऐसे वरिष्ठ रंगकर्मी या निर्देशक ढूंढना भूसे के ढेर में सूई तलाशने जैसा काम है, जिनके अंदर थियेटर बच रहा हो. कोई दृष्टि नहीं, कोई नयापन नहीं, कोई रचनात्मकता नहीं, कोई कल्पनाशीलता नहीं. बीस साल पहले जो काम किया, उसे ही घसीट रहे हैं और युवा पीढ़ी की तमाम संभावनाओं पर कुंडली मारे बैठे हैं. खुद ही अपनी प्रस्तुतियों को सर्वश्रेष्ठ कहकर प्रचारित करते हैं, और मित्रों या लाभार्थियों की अतिरंजित प्रशंसाओं को अपने गर्वोन्नत भाल पर सजा लेते हैं. महानता का यह कृत्रिम आभामंडल उन्हें सत्ता-केंद्रों और नवांकुर रंगकर्मियों के बीच महत्वपूर्ण बनाये रखता है.
हमारे महान और वरिष्ठ रंगकर्मी थियेटर की किसी भी बुनियादी समस्या पर कभी बात नहीं करते. वे अपने निजी विकास तक सीमित रह कर भी सम्मानित रंगकर्मी बने रहना चाहते हैं. रंगमंच में बुनियादी संरचना के निर्माण के लिए, उसमें काम करनेवाले लोगों की जीवन-दशाओं में बदलाव के लिए, रंगमंच में व्याप्त भयावह सांस्थानिक भ्रष्टाचार को, भाई-भतीजावाद को और निर्देशकों के अनैतिक आर्थिक वर्चस्व को समाप्त करने के लिए, नाटककारों और अभिनेताओं को उनकी सम्मानजनक जगह दिलाने के लिए, हमारी लोक और पारंपरिक कलाओं को सम्मान और संरक्षण दिलाने के लिए, या रंगमंच के सरकारी संसाधनों के समुचित वितरण के लिए, उनके विकेंद्रीकरण के लिए कभी कोई आवाज उठाये बगैर भी सम्मानित रंगकर्मी बने रहना हिंदी के अलावा और किसी भाषा में शायद ही संभव हो.
दुखद स्थिति तो यह है कि नौजवान पीढ़ी का बहुत बड़ा हिस्सा आज इस मूल्यहीनता का अंधानुकरण करने लगा है. वह समाज से निरपेक्ष होकर अधिकतम सुविधाओं के जुगाड़ में तल्लीन होता जा रहा है. जब वह स्थापित रंगकर्मियों का रंग-व्यवहार देखता है, तो उसे रंगकर्म की सामाजिक-राजनीतिक भूमिका की बात से चिढ़ होती है.
वह एक असामाजिक प्रोफेशनल बनना और सफल होना चाहता है, चाहे इसके लिए कोई भी रास्ता अपनाना पड़े. उसे मालूम है कि यह सफलता पैसा (ग्रांट), पुरस्कारों और खर्चीले महोत्सवों से मिलती है. इस व्यापार पर जिनका वर्चस्व है, उनकी चाकरी जरूरी है. उनका संरक्षण और आशीर्वाद जरूरी है. निश्चित रूप से यह वर्चस्व हमारी वरिष्ठ सम्मानित पीढ़ी का है. यही इस पीढ़ी की प्रासंगिकता है. रंगमंच का वर्तमान-भविष्य इनकी ही मुट्ठियों में कैद है.
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