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चुनाव और संघर्ष दोनों अलग चीजें हैं

वामपंथी आंदोलन भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण धारा है, लेकिन पिछले कुछ समय से वामपंथी पार्टियां चुनावी अखाड़े में लगातार हाशिये पर जा रही हैं और उनके जन-संगठन भी कमजोर होते जा रहे हैं. इस बार के लोकसभा चुनावों में एक ओर जहां दक्षिणपंथी भाजपा व उसके सहयोगी दलों को भारी जीत हासिल हुई है, […]

वामपंथी आंदोलन भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण धारा है, लेकिन पिछले कुछ समय से वामपंथी पार्टियां चुनावी अखाड़े में लगातार हाशिये पर जा रही हैं और उनके जन-संगठन भी कमजोर होते जा रहे हैं. इस बार के लोकसभा चुनावों में एक ओर जहां दक्षिणपंथी भाजपा व उसके सहयोगी दलों को भारी जीत हासिल हुई है, वहीं वाम मोरचे को गिनती की सीटें मिली हैं. वामपंथी राजनीति के वर्तमान और भविष्य के विभिन्न पहलुओं पर वरिष्ठ वाम नेता अतुल कुमार अंजान से बात की वसीम अकरम ने..

भाजपा की अप्रत्याशित जीत और कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के साथ इस चुनाव में वामपंथी दलों को भी भारी हार हुई है. गरीब-किसानों की पार्टी कहे जानेवाले वाम के जनाधार कम होने के क्या कारण हैं, जबकि देश में अब भी गरीबों की ही ज्यादा संख्या है?

हमारी पार्टी गरीबों और किसानों की पार्टी है, मजदूर और हाशिये पर पड़े लोगों की पार्टी है, अल्पसंख्यकों की पार्टी है, लेकिन अब सिर्फ गरीब-गरीब कहने से ही काम नहीं चलनेवाला है. अब जरूरत है उनके भावनाओं के साथ जुड़ने की. उनके अंदर जो परिवर्तन हो रहा है, उस परिवर्तन को अगर बारीकी से हम नहीं देखेंगे, और उस आधार पर कोई ठोस रणनीति नहीं बनायेंगे, तो वे सिर्फ हमारे नाम के लिए थोड़े हमें वोट देने जायेंगे. डायनॉमिजम और डायनॉमिक्स दोनों अलग-अलग चीजें हैं. हमारे यहां जो डायनॉमिक्स में बदलाव आ रहा है, उसके लिए नये डायनॉमिजम की जरूरत है.

तो किस तरह का होना चाहिए वह डायनॉमिजम?

मोर कनेक्ट टू मोर पीपुल.. यानी गरीबों-किसानों के साथ परस्पर जुड़ाव जरूरी है. उनके साथ सहभागिता और उनके मुद्दों पर गहरी विवेचना करने की जरूरत है. वर्षो से चली आ रही पार्टी की रस्म अदायगी को छोड़ कर उनके एहसास में रच-बस जाने का दौर है. सबसे ज्यादा जरूरी है दीर्घकालिक संघर्ष चलाना.

लेकिन ये सब तो इस चुनाव में होने चाहिए थे. तो आखिर क्यों नहीं किया आपने और आपकी पार्टी ने?

सब हो रहा था, लेकिन उसका इतना असर नहीं पड़ा. अब क्या कीजियेगा! हम लोग मूर्ख नहीं हैं. हमने पूरे आठ साल से संघर्षरत होकर पॉस्को को रोका हुआ है. ये बात और है कि इस चुनाव में उस संघर्ष का प्रतिफलन नहीं हुआ. क्योंकि संघर्ष एक अलग चीज है और चुनाव एक दूसरी चीज है. यह भी अब एक नयी परिभाषा आ गयी है. चुनाव के लिए संघर्ष आपका एक आधार बन सकता है, लेकिन चुनाव में अब जाति, धर्म और संकीर्णताओं की मूख्य भूमिका होने लगी है. धन की भूमिका तो है ही. अब इन तीनों से हम कैसे निपटें? इन तीनों का कम्यूनिस्ट पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है. जिस दिन हम इनसे जुड़ जायेंगे, उस दिन हम कम्यूनिस्ट पार्टी नहीं रह जायेंगे.

भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है. देश ने ऐसा जनादेश विकास के वादों पर दिया है. यदि वादे पूरे नहीं हुए, तो भारतीय राजनीति के गैरकांग्रेसवाद से अब गैरभाजपावाद की ओर रुख करने की भी क्या कोई संभावना है?

इस मामले में कुछ चीजें बहुत महत्वपूर्ण है. उनमें से एक है देश में बदलाव की भावना. कांग्रेस कहती है कि उसने अच्छी-अच्छी नीतियां बनायी, लेकिन वह देश को बता नहीं पायी. तो सवाल है कि आपको किसने कहा था कि आप जनता को मत बताइये. आप कनेक्ट नहीं हो पाये, क्योंकि आप कलेक्ट करते रहे. जनता से कनेक्ट होना आपकी प्राथमिकता में थी ही नहीं. तो जब आप माल कलेक्ट कर रहे थे, तो हम जनता से कनेक्ट कैसे होते? दरअसल, आर्थिक नीति के मामले में भाजपा-कांग्रेस दोनों एक जैसी ही हैं. इन दोनों में कोई फर्क नहीं है, क्योंकि आज से छह साल पहले आडवाणी जी ने कहा था कि भाजपा की आर्थिक नीतियों को कांग्रेस ने चुरा लिया है. इन दोनों पार्टियों के प्रेरणास्नेत विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और एशियन डेवलपमेंट बैंक हैं. अमेरिका का मोदी को वीजा देने न देने का नारा दिखावटी है और मोदी भी दिल से भले हिंदुस्तानी हैं, लेकिन मन से अमेरिकी हैं. फिर भी अभी यह कहना मुश्किल है कि देश की राजनीति अब गैरभाजपावाद की ओर रुख करेगी या नहीं. लेकिन, मैं इतना जरूर कहूंगा कि, उसकी बातों पे न जा कि वो क्या कहता है। उसके पैरों की तरफ देख वो किधर जाता है।।

नरेंद्र मोदी देश के विकास को आंदोलन का रूप देने की बात कहते हैं. क्या लगता है आपको?

उनके भाषण बहुत अच्छे होते हैं, और उनका हाव-भाव भी बहुत ही अच्छा होता है, लेकिन उनका भाषण इल्मी कम और फिल्मी ज्यादा लगता है. क्योंकि अगर इल्मी होता तो वे तक्षशिला को पटना के तट पर न पहुंचा देते. बहरहाल, मैं इतना ही कहूंगा कि अभी उन्हें सरकार चलाना तो शुरू करने दीजिए. आगे देखेंगे. कहा जा रहा है कि तीस साल के बाद पहली बार भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है. ऐसा कहना अटल जी की लिगेसी को किनारे करना है. आप अपनी आत्मश्लाघा में, खुद को महिमामंडित करने में उन तमाम की जड़ों को खोद रहे हैं, जिनके सहारे आप ऊपर चढ़े थे, फिर चाहे केशूभाई पटेल जी हों या पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी जी हों.

बंगाल में लगातार वाम का सिकुड़ता जनाधार, जबकि केरल और त्रिपुरा में बरकरार, ऐसा क्यों है? इस हार के बड़े सबक क्या होंगे?

यही बहस 2004 में भी चली थी कि वाम मोरचे को लोकसभा में 63 सीट कैसे मिलीं. जब हम जीत जाते हैं, तो ज्यादा गुदगुदी नहीं होती, लेकिन हार जाते हैं, तो भारत के वामपंथ-विरोधी ज्यादा सुंदर तरीके से नृत्य पेश करते हैं. कॉरपोरेट घराने के लोग, संघ के लोग, संकीर्ण सांप्रदायिक लोग, साम्राज्यवाद की वकालत करनेवाले उनके अवधूत लंगोटा बांध कर हमको गाली देने के लिए अखाड़े में उतर आते हैं. वही स्थिति अभी फिर होनेवाली है. और हार तो सबक सीखने के लिए ही होती है. हम फिर से मैदान में उतरेंगे और फिर से अपनी वैचारिक लड़ाई को आगे बढ़ायेंगे.

वामपंथी राजनीति की अब क्या संभावनाएं हैं. लोग कहते हैं कि यह सिर्फ विचारों की ही पार्टी है और अब यह हाशिये पर चली जायेगी. आप क्या सोचते हैं?

लड़ाई होगी. हम लड़ते रहे हैं और लड़ते रहेंगे. वामपंथ को इतना कमजोर मत समङिाए. हम सिर्फ विचारों की ही पार्टी नहीं, बल्कि आचार-विचार दोनों की पार्टी हैं. अगर सिर्फ विचारों की पार्टी होती तो आज भी 12-14 सीटें कैसे मिलतीं? अभी हम केरल में हैं, त्रिपुरा में हैं.

इस चुनाव में कई क्षेत्रीय दलों का सफाया हो गया. क्या इनका अस्तित्व अब खतरे में है?

मैं नहीं मानता कि छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व इतना जल्दी खत्म हो जायेगा. क्योंकि छोटी पार्टियां ‘इब्नुल वक्त’ (हवा का रुख पहचाननेवाला) की तरह हैं. एनडीए में शामिल दो दर्जन दल इसकी मिसाल हैं. आज भी प्रतिरोध की शक्तियां अपने वैचारिक प्रतिरोध के आधार पर खड़ी हैं. वे सभी उभरेंगी और जल्द ही उभरेंगी. ज्यों-ज्यों जनता के ऊपर कठिनाइयों का बोझ बढ़ेगा, त्यों-त्यों वे आंदोलन का स्वरूप अख्तियार करेंगी. जब-जब अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की चोट बढ़ेगी, जितनी ही महंगाई का दंश झेलना पड़ेगा, जितना ही बेरोजगारी की समस्या का जबरदस्त छलांग उठेगा, तब-तब वामपंथ ही उभार लेगा, जो लोकतंत्र का मोरचा संभालेगा. लेकिन आज और अभी से ही वामपंथ को एक नये तरीके से सोचना होगा कि कैसे वह इस परिस्थिति से निपटे. हमें एक पंच लाइन लेकर चलना होगा कि आजादी के बाद से जितनी भी नीतियां बनीं, सबके जरिये आज तक जनता में सिर्फ दुखों का बंटवारा हुआ, लेकिन अब यह जनता को ठानना होगा कि आइए हम सब संघर्ष करें, ताकि हमारे बीच सुखों का बंटवारा हो सके.

आपने कहा कि संघर्ष और चुनाव दो अलग-अलग चीजें हैं. कॉरपोरेट के मौजूदा दौर में वाम के संघर्ष का स्वरूप क्या होगा?

मौजूदा दौर में चुनाव आम आदमी का नहीं, बल्कि कॉरपोरेट घरानों का चुनाव है. चुनाव-प्रचार पर, डिजिटल-प्रचार पर, सोशल मीडिया-प्रचार पर यहां तक कि स्टेज बनाने तक पर कॉरपोरेटी दखल है, जिसमें हम पिछड़ गये. हमने इन सब चीजों का इस्तेमाल ही नहीं किया. आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने से हम विरक्त रहे. लेकिन अब यह करना पड़ेगा.

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