।। रवीश कुमार ।।
वरिष्ठ पत्रकार
क्या बिहार में मंडल के रास्ते कमंडल का रास्ता रुकेगा?
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस व कई क्षेत्रीय दलों को करारी शिकस्त मिली है. अन्य दलों का नेतृत्व अभी नयी स्थितियों के आकलन में ही लगा है, तो वहीं नीतीश कुमार ने बड़ा फैसला कर डाला है. उन्होंने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना कर बिहार में भाजपा की चुनौती से निबटने के लिए दलित-पिछड़ा की एकजुटता का रास्ता खोला है. क्या नीतीश इस सोशल इंजीनियरिंग से भाजपा को मात दे पायेंगे, पढ़िए इस पर एक विश्लेषण :
नीतीश कुमार के बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के फैसले को कई प्रकार से देखा जा रहा है. मगर, इन देखनेवालों को आप भी एक प्रकार से देख सकते हैं.मीडिया या सोशल मीडिया पर नीतीश के आलोचकों के सरनेम देखिए. आप समझ सकेंगे कि क्यों इनमें ‘जात-पात से ऊपर उठ चुके’ अपर कास्ट की बहुलता अधिक है.
धरातल पर कुछ तो हुआ होगा, जो अगड़ी जातियों को नागवार गुजर रहा है. अगर ऐसा है तो नीतीश इस तबके को अब वापस नहीं ला सकते हैं. आखिर क्यों अगड़ी जातियों को बिहार का देखा हुआ विकास नहीं पचा और गुजरात का सुना हुआ जंच गया. लोकसभा के चुनाव में बिहार ने नीतीश को अस्वीकार किया है. नीतीश का समावेशी विकास का मॉडल उन्हीं के शब्दों में सांप्रदायिक एकीकरण के आगे नहीं टिक सका. शायद इसलिए भी कि उनके इस मॉडल में विचारधारा का तत्व मोदी के मॉडल की तुलना में बेहद कमजोर था या था ही नहीं.
कई लोग कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का औपचारिक स्वागत करना पड़ता इसलिए कुरसी छोड़ कर भाग गये. मेरे फेसबुक पेज पर ऐसा लिखनेवालों और एसएमएस भेजनेवालों में सवर्ण ज्यादा हैं. जिस तरह से सवर्ण लोग नीतीश को जातिवादी ठहरा रहे हैं, मुङो जात-पात के समाप्त हो जाने के स्वर्ण युग का भ्रम होने लगा है. खैर, मोदी के स्वागत के डर से इस्तीफे की दलील में झोल है.
नीतीश कुमार ने कहा है कि एक साल तक पार्टी का काम करके उसे मजबूत करेंगे और बहुमत प्राप्त करेंगे. जदयू ने भी कहा है कि अगला चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ा जायेगा. मेरे ख्याल से नरेंद्र मोदी तब तक तो प्रधानमंत्री रहेंगे ही! अगर यही डर होता तो नीतीश राजनीति से संन्यास ले लेते. कहीं नीतीश के डर से ज्यादा भाजपा नेताओं का सपना तो नहीं था कि स्वागत करा कर नीतीश के चेहरे की लाली देखने का मजा लिया जायेगा.
इसका मतलब यह नहीं कि नीतीश का इस्तीफा बहस योग्य नहीं है. नीतीश से इस्तीफा मांगा गया, तो दे दिया. राजनीति में नैतिकता प्रतीकात्मक ही होती है. कोई संदेश देने के लिए ही दंगों के बाद भी इस्तीफा नहीं देता है और कोई दुर्घटना हो जाने पर दे देता है.
मोदी और अखिलेश यादव ने दंगों की नैतिक जिम्मेदारी तो ली, मगर इस्तीफा नहीं दिया. बिहार विधानसभा के चुनाव में एक साल रहते इस्तीफा देना आसान नहीं है. हो सकता है कि अरविंद केजरीवाल की तरह एक दिन इस फैसले पर अफसोस करना पड़ जाये, लेकिन यह कदम इतना भी खोखला नहीं है. इससे पहले के दो लोकसभा चुनावों में जब भारत की जनता यूपीए को समर्थन दे रही थी, तब गुजरात की जनता नरेंद्र मोदी के साथ खड़ी रही. उसके इस फैसले में सिर्फ विकास नहीं, छह करोड़ गुजरातियों के नाम पर किया गया एकीकरण या ध्रुवीकरण भी था. लेकिन बिहार की जनता ने नीतीश का साथ नहीं दिया. अहं की लड़ाई का तत्व तो मोदी बनाम सोनिया में भी था. एक पत्रकार टीवी चैनल पर कह रहे थे कि आज बिहार का सबसे बड़ा नेता एक गुजराती है.
नीतीश इस्तीफा नहीं देते तो उनकी सरकार की स्थिरता के बारे में क्या-क्या नहीं कहा जाता या क्या-क्या नहीं कहा जा रहा था. इस्तीफे की मांग तो की ही जा रही थी. कहा जा रहा था कि बगावत हो जायेगी, भाजपा छोड़ेगी नहीं आदि-आदि. यह साफ है कि दोनों के बीच अहं का टकराव है और दोनों तरफ से है. वैचारिक टकराव को भी स्वीकार किया जाना चाहिए. इसलिए बिहार में सत्ता बदलनी ही थी. नीतीश दो सौ रैलियां करके भी बिहार को थाम नहीं सके. लेकिन अब बात, इस्तीफा क्यों दिया से आगे निकल कर देने के बाद जो किया उस पर होनी चाहिए.
मुसहर जाति राज्य और देश की सबसे गरीब जातियों में से एक है. इस जाति का ज्यादातर हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे और भूमिहीन है. चूहा खानेवाली इस निर्धनतम जाति की दुर्दशा पर क्या-क्या नहीं कहा गया है. इस जाति के जीतन राम मांझी को नीतीश ने मुख्यमंत्री बनाया है. प्रतीक के स्तर पर यह एक साहसिक फैसला है. भाजपा को रिमोट कंट्रोल की बात से इतना गुरेज होता तो वह संघ के दरवाजे नेता से लेकर मंत्री के चयन तक के लिए नहीं जाती. भारतीय राजनीति में रिमोट एक सच्चाई है.
यह सच्चाई भाजपा से लेकर हर दल में है. क्या बादल या पासवान की पारिवारिक पार्टी में रिमोट कंट्रोल नहीं है. क्या प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी का गुजरात में नये नेता के चुनाव में दखल नहीं था? नरेंद्र मोदी खुद अपने चाय बेचने और पिछड़ी जाति की पृष्ठभूमि के प्रतीकों का इस्तेमाल जम कर करते रहे हैं. इसलिए प्रतीक के स्तर पर ही सही, जीतन राम मांझी का मुख्यमंत्री बनना ऐतिहासिक है. वे हारे हुए हैं, मगर हार जाने से ही राजनीतिक उपयोगिता और अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाते. इस लिहाज से अरुण जेटली भी हारे हुए हैं और उन्हें मंत्री नहीं बनना चाहिए. यही क्या कम है कि भाजपा नीतीश पर जातिवादी राजनीति करने का आरोप नहीं लगा पा रही है.
इस फैसले ने पार्टी पर नीतीश की पकड़ को स्थापित किया ही है, उनका आत्मविश्वास भी जाहिर किया है. एक ऐसे समय में जब दिल्ली में प्रतिकूल और आक्र ामक सत्ता हो, अपनी कुरसी किसी और को सौंपने का भरोसा करना सिर्फ एक कमजोर चाल नहीं है. एक पार्टी के रूप में जदयू का इस फैसले को स्वीकार करना भी कम बड़ी बात नहीं है. जितने भी विधायक हैं और जब तक इस फैसले के साथ हैं, इस चुनाव में मिली भयंकर हार के बाद अपनी पार्टी की विचारधारा और नेता में भरोसा रखना बता रहा है कि राजनीति में सबकुछ खरीद-बेच कर नहीं किया जा सकता. और बगावत हो भी जाये, तो जिस राज्य में रघुवंश प्रसाद सिंह जैसा बेहतरीन सांसद हर जाए वहां इसमें कोई हैरानी की बात भी नहीं.
एक ऐसे समय में जब पूरे देश में नरेंद्र मोदी की प्रचंड कामयाबी के बाद विपक्ष मनोवैज्ञानिक रूप से बिखर गया है, नीतीश सत्ता छोड़ कर विपक्ष बनाने के लिए संघर्ष करने जा रहे हैं. हार कर भी उसी रास्ते पर चलने का जोखिम उठा रहे हैं. लालू यादव जेल जाने पर हर बार सत्ता और पार्टी अपने परिवार को ही सौंपते रहे हैं. मुलायम और मायावती भी जो नहीं सोच सकते, नीतीश ने करके दिखा दिया. रिमोट के नाम पर ही सही, वे पार्टी में किसी और का भी नेतृत्व स्वीकार कर सकते हैं.
अब यहां सवाल कुछ और भी हैं. क्या नब्बे के दशक की तरह कमंडल को रोकने की ताकत मंडल में बची है? क्या मोदी के हिंदुत्ववादी, जातिवादी और विकास के बहुआयामी राजनीतिक पैकेज का मुकाबला जातिगत अस्मिता, दलित-पिछड़ा एकता, समाजवादी धारा और विकास की राजनीति के पैकेज से किया जा सकता है? क्या इस चुनाव का यह जनादेश भी है कि सवर्ण जातियां दलित-पिछड़ी जातियों के साथ स्वाभाविक रूप से कभी नहीं रह सकतीं? कभी विकास, तो कभी हिंदुत्व के बहाने अलग होती रहती हैं.
लिहाजा इसकी जगह दलित-पिछड़ों की एकता कायम की जाये. उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने मुलायम को मुख्यमंत्री बना कर कमंडल को रोक दिया था. बाद में यह प्रयोग तुच्छ राजनीतिक चालबाजियों की भेंट चढ़ गया. क्या मायावती, मुलायम एक होंगे? क्या नीतीश, लालू एक होंगे? भाजपा ने भी तो इस चुनाव में भ्रष्टाचार के मुद्दों को किनारे कर येदियुरप्पा से लेकर पासवान तक से हाथ मिला कर जातियों का बेहतर गंठबंधन करके दिखा दिया. क्या लालू, नीतीश, मुलायम, मायावती अपना अस्तित्व बचाने के लिए ऐसा कर पायेंगे?
यह सब इतना आसान नहीं है. नीतीश वो करने निकले हैं जिसे करने में लंबा रास्ता तय करना पड़ सकता है. एक और हार मिल सकती है. लालू और नीतीश इसी बात पर बिखर जायेंगे कि नेता कौन होगा. जब तक बिखरे रहेंगे, भाजपा या पिछड़े नरेंद्र मोदी की जातिगत और हिंदुत्व की व्यूह रचना से मात खाते रहेंगे. सामने के पाले में एक पिछड़ा प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचा है, उसके खिलाफ कोई भी जातिगत गंठबंधन की रणनीति दलित, पिछड़े तबके में रोचक और अप्रत्याशित राजनीतिक संघर्ष और बिखराव को जन्म देगी.
इसके लिए जरूरी है कि मंडल के दौर के बाद दलित और पिछड़ों में तैयार हुआ मध्यमवर्ग इस प्रयोग में साथ आये. वो तो तब भी बीजेपी के साथ गया जब रामदेव और सीपी ठाकुर जैसे नेता जाति के आधार पर आरक्षण का विरोध कर रहे थे. संजय पासवान जैसे नेता आरक्षण पर श्वेत पत्र लाने की बात कर इसे आर्थिक आरक्षण में बदलने की बात कर रहे थे. भाजपा ने प्रोन्नति में आरक्षण का संसद में खुला विरोध किया था. इसके बाद भी भाजपा को दलितों-पिछड़ों का साथ तो मिला ही. इसलिए जीतन राम मांझी कांग्रेसी दौर के प्रतीक की तरह बन कर न रह जायें, यह नीतीश को देखना होगा.
नीतीश को देर से ही सही संगठन की जरूरत का ख्याल आया है. नरेंद्र मोदी ने भाजपा, संघ और अन्य धार्मिक और योग सिखानेवाली पेशेवर संस्थाओं के संगठन का खूब लाभ उठाया. यह नीतीश की सबसे बड़ी कमजोरी रही कि उन्होंने जदयू को बिहार के युवाओं की पार्टी नहीं बनाया. विकास की अमूर्त राजनीति के साथ-साथ वे अपनी पार्टी को फेसबुक और ट्विटर जनरेशन के लिए खोलते या जोड़ते तो नतीजा कुछ और हो सकता था. बिहार के विकास को नीतीश ने कटी पतंग की तरह छोड़ दिया, जबकि मोदी ने पूरे गुजरात को अपने प्रति विरोध और विकास की राजनीति में सहयात्री बना लिया. गुजराती अस्मिता के नाम पर पहचान की राजनीति की नयी पैकेजिंग की. नीतीश गत्ते की पैकेजिंग के भरोसे रह गये, बिहारी अस्मिता नहीं उभार पाये. नीतीश को ध्यान रखना चाहिए कि सिर्फ वैचारिक लड़ाई से मोदी को नहीं रोक सकते.
अगर मोदी चार किलोमीटर सड़क बनाते हैं, तो मुलायम और नीतीश को दस किलोमीटर सड़क बनानी होगी. अपनी सरकार के काम की रफ्तार इतनी बढ़ा देनी होगी कि लोग उसे होता हुआ देख सकें. नीतीश घूम-घूम कर राहुल गांधी की तरह अध्ययन न करें तो अच्छा रहेगा, बल्कि सरकार की कमियों को वहीं का वहीं दुरुस्त करा दें तो ज्यादा विश्वास हासिल कर सकेंगे. लोगों को लगना चाहिए कि बिहार की सरकार वाकई बुलेट ट्रेन हो गयी है और नीतीश उसके ड्राइवर नहीं, पायलट हैं. इंजीनियर नीतीश कुमार को सोशल के साथ-साथ इस इंजीनियरिंग में भी कमाल दिखाना होगा. जितना किया है उससे ज्यादा करना होगा और उससे भी ज्यादा प्रचार तो करना ही होगा.