दलित समाज की चुनौतियाें से मुठभेड़ करने के लिए दलित साहित्य की तरह दलित रंगमंच की जरूरत है. दलित रंगमंच दलित जीवन-स्थितियों पर लिखा और प्रस्तुत किया जानेवाला रंगमंच है. किंतु दलित रंगमंच को जब हम केवल दलितों द्वारा किया जानेवाला रंगमंच मान लेते हैं, तो उसका उद्देश्य बाधित हो जाता है.
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हिंदी में एक दलित रंगमंच की जरूरत : रंगमंच
दलित समाज की चुनौतियाें से मुठभेड़ करने के लिए दलित साहित्य की तरह दलित रंगमंच की जरूरत है. दलित रंगमंच दलित जीवन-स्थितियों पर लिखा और प्रस्तुत किया जानेवाला रंगमंच है. किंतु दलित रंगमंच को जब हम केवल दलितों द्वारा किया जानेवाला रंगमंच मान लेते हैं, तो उसका उद्देश्य बाधित हो जाता है. यद्यपि साहित्य या […]
यद्यपि साहित्य या रंगमंच की सामाजिकता किसी वर्ग-विशेष की सामाजिकता नहीं होती है, रंगमंच को अखिल मानवता के हित में, उसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए. कुछ अपवादों को छोड़कर इतिहास में ऐसा कोई काल नहीं रहा, जिसमें साहित्य सबके लिए लिखा गया हो, या रंगमंच में सबके हितों का बराबरी से पक्ष लिया गया हो. आधुनिक दौर में भी साहित्य और रंगमंच की मुक्ति-चेतना बहुसंख्यक जनता को सामाजिक-सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति नहीं दिला सकी. दलित समाज आज भी संपूर्ण सामाजिक और ऐतिहासिक परंपरा में स्वयं को अलग-थलग पाता है.
भारतीय सामाजिक जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ वर्ण-व्यवस्था और उससे उत्पन्न पीड़ा मुख्यधारा के रंगमंच में आज भी नहीं आ पायी है. वह स्वयं भी आज सत्ता और सुविधा केंद्रित होकर इतना मार्गभ्रष्ट और संकटग्रस्त हो चुका है कि अब वहां समकालीन जीवन और मनुष्य के यथार्थ की सार्थक और गहरी अभिव्यक्ति संभव नहीं हो पा रही. शिल्प-शैली, तकनीक और प्रौद्योगिकी के स्तर पर चाहे जितने चमत्कार पैदा किये जा रहे हों, पर वस्तुस्थिति यही है कि उसके पास कहने को ज्यादा कुछ नहीं है और एक गंभीर किस्म की जड़ता, विचारहीनता, अमूर्त्तता, लक्ष्यविहीनता और ब्राह्मणवादी दंभ तथा पाखंड की उसमें प्रधानता है.
वह असुविधाजनक सामाजिक-राजनीतिक सवालों के प्रति उदासीन है. ऐसे में हिंदी में दलित रंगमंच की एक ऐतिहासिक और अपरिहार्य जरूरत पैदा हो गयी है, जो मानव-मुक्ति के संघर्ष को आगे ले जाये. अच्छी बात है कि हिंदी में दलित रंगमंच की एक कमजोर और उपेक्षित ही सही, किंतु एक धारा और परंपरा मौजूद है, जिसे दलित साहित्य आंदोलन की तरह संगठित करने और उसकी एक ठोस वैचारिकी निर्मित करने की जरूरत है.
भारतीय संदर्भ में दलित रंगमंच का अर्थ है वर्ण-व्यवस्था का विरोध करके एक समरस समाज की स्थापना के साथ-साथ मानव मात्र की गरिमा को स्थापित करना. दलित रंगमंच निस्संदेह दलित जीवन-स्थितियों पर लिखा जानेवाला और प्रस्तुत किया जानेवाला रंगमंच है. किंतु दलित रंगमंच को जब हम केवल दलितों द्वारा किया जानेवाला रंगमंच मान लेते हैं, तो मानव-मुक्ति का उसका उद्देश्य बाधित, सीमित और संकुचित हो जाता है.
दलित रंगमंच का केंद्रीय स्वर भी वही है, जो दलित साहित्य का है- यानी जातिवाद का विरोध, ब्राह्मणवाद का विरोध और अपने जिये जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति. आज मुख्यधारा का रंगमंच खामोश है, या मुखर होकर विरोध नहीं कर पा रहा, तो निश्चित रूप से दलित रंगमंच को इस ऐतिहासिक भूमिका को निभाने के लिये आगे आना ही होगा, और वह धीरे-धीरे मुखर हो भी रहा है. वह मुख्यधारा के बीच भी है और उसके समानांतर भी. विगत कुछ वर्षों में ‘आउटकास्ट‘, ‘जहाजी‘ (निर्देशक- रणधीर कुमार, राग, पटना), ‘मृत्युंजय‘, ‘जूठन‘ (निर्देशक- ईश्वर शून्य, एलटीजी रंगमंडल, दिल्ली) और ‘अक्करमाशी‘ (निर्देशक- लोकेश जैन, दिल्ली) जैसी सशक्त नाट्य-प्रस्तुतियां साहसिक छलांग हैं. इन नाटकों में दलितों के सामाजिक उत्पीड़न के सवाल केंद्रीयता के साथ उभरकर आ रहे हैं.
हिंदी में दलित रंगमंच बहुत पहले से मौजूद रहा है, पर उसे वैसी पहचान-स्वीकृति नहीं मिल सकी है, जैसी महाराष्ट्र और कर्नाटक में मिली है. दलित मुद्दों को अब रंगमंच से बाहर नहीं रखा जा सकता. दलित रंगमंच लगातार मजबूत होता जायेगा, जितना ही उसे खारिज करने की कोशिश होगी.
राजेश चंद्र, वरिष्ठ रंगकर्मी
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