13.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

भारत में लोग अपनी सेहत पर कितना ख़र्च करते हैं?

"नौवां महीना पूरा होने में बस 10 दिन का वक़्त बचा था. सुबह-सुबह पेट में इतना दर्द हुआ, लगा जैसे खड़े होते ही बच्चा निकल जाएगा. इसी हालत में, जैसे-तैसे घर से लगभग 10 किलोमीटर दूर घासड़ा गांव के सरकारी अस्पताल गई. वहां पहुंचते ही डॉक्टरनी बोली, अभी वक्त है शाम तक इंतजार करना पड़ेगा." […]

"नौवां महीना पूरा होने में बस 10 दिन का वक़्त बचा था. सुबह-सुबह पेट में इतना दर्द हुआ, लगा जैसे खड़े होते ही बच्चा निकल जाएगा. इसी हालत में, जैसे-तैसे घर से लगभग 10 किलोमीटर दूर घासड़ा गांव के सरकारी अस्पताल गई. वहां पहुंचते ही डॉक्टरनी बोली, अभी वक्त है शाम तक इंतजार करना पड़ेगा."

दो साल पहले की अपनी प्रसव पीड़ा को याद करते हुए पूनम अचानक आग उगलने लगती हैं.

उसी तेवर में वो आगे कहती हैं, "सारा दिन इंतजार किए हम, शाम को डॉक्टरनी आई और बोली बच्चेदानी का मुंह नहीं खुला है और बच्चे का वज़न भी बहुत ज्यादा है, नूंह जाना पड़ेगा, वहीं होगी डिलिवरी."

दिल्ली से लगभग 60 किलोमीटर दूर मेवात के छोटे से गांव में रहने वाली पूनम अपने गांव की सरपंच है.

उनके तीन बच्चे हैं. सबसे छोटा दो साल का है. लेकिन आखिरी बच्चे की एक डिलिवरी के लिए दो अस्पतालों के चक्कर काटने पर उसे दर्द भी था और गुस्सा भी.

उन्होंने बताया कि आनन फ़ानन में कैसे उनके घर वालों ने जीप का इंतजाम किया.

"एक बार के लिए हर गड्डे पर जब जीप धीमी होती और फिर उछलती तो लगता, बस अब बच्चा निकला न तब… ऊबड़ खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए रात को नूंह के सरकारी अस्पताल पहुंची. लेकिन डॉक्टर ने वहां भी इंतजार करने के लिए कहा." ये कहते हुए पूनम के चेहरे पर उस दिन का दर्द और उसका असर दोबारा साफ़ दिख रहा था.

लेकिन बात दो अस्पताल पर आकर नहीं रूकी. नूंह में भी डॉक्टर ने डिलिवरी के लिए मना कर दिया.

इसके पीछे की वजह बताते हुए पूनम कहती हैं, "वहां ऑपरेशन से बच्चा पैदा करने के पूरे इंतजाम नहीं थे, बच्चे का वजन 4 किलो से ज़्यादा था, इसलिए डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर लिए."

महिलाओं तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच

नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे 2017 के मुताबिक 66 फीसदी भारतीय महिलाओं की पहुंच, अपने पड़ोस के सरकारी अस्पताल तक नहीं है.

यही है देश में पूनम जैसी महिलाओं का असल दर्द.

इस रिपोर्ट में इसके पीछे की वजहें भी गिनाई गई हैं.

कहीं-कहीं घर से सरकारी अस्पताल तक की दूरी इतनी ज़्यादा होती है कि महिलाएं अस्पताल जाने के बजाए घरेलू इलाज का सहारा लेना ज़्यादा पसंद करती हैं.

इसके अलावा सरकारी अस्पताल में महिला डॉक्टर का न होना, डॉक्टर का न होना, दवाइयों की कमी भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिसकी वजह से महिलाएं सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के इस्तेमाल से कतराती हैं.

पूनम के मामले में समस्या, पैसे और दूरी की थी. घर से नज़दीकी सरकारी अस्पताल 10 किलोमीटर की दूरी पर था. लेकिन वहां एक डॉक्टर थी और मरीज़ कई.

पूनम को आखिरकार डिलिवरी के लिए गुरुग्राम के सरकारी अस्पताल जाना पड़ा. लेकिन राहत की बात ये रही कि नूंह के अस्पताल वालों ने अपनी एंबुलेस सेवा के इस्तेमाल की इजाजत दी. पूनम का नूंह से गुरुग्राम जाने का पैसा बच गया.

लेकिन बिहार के दरभंगा में रहने वाली गुड़िया देवी इतनी खुशनसीब नहीं थी.

पिछले साल दिसंबर की ठंड में गुड़िया अपने मायके आई थी. नौवा महीना चल रहा था. उनके पिता ने सरकारी अस्पताल जा कर एंबुलेस का नम्बर पहले ही ले लिया था. लेकिन जब वो घड़ी आई तो एंबुलेस वाला आया ही नहीं.

भारत सरकार की जननी सुरक्षा योजना के तहत गर्भवती महिलाओं का पूरा इलाज मुफ्त होता है. लेकिन गुड़िया को अस्पताल में आशा दीदी से लेकर सफाई करने वाले कर्मचारी और रजिट्रेशन करने वाले बाबू तक को पैसे देने पड़े.

बीबीसी से बात करते हुए गुड़िया कहती हैं, "शाम के 7 बज रहे थे. जैसे ही अस्पताल पहुंची सब सोने की तैयारी में लगे हुए थे. बड़ी डॉक्टरनी तो मुझे देखने पहुंची ही नहीं. मां ने कई बार उन्हें हाथ पकड़ कर बुलाने की कोशिश की. भला हो आशा दीदी का, बेटे की और मेरी जान बचा ली"

फिर दिल की भड़ास आगे निकालते हुए वो आगे बोली, "वो दिन था और आज का दिन है. न कोई दवा हम अस्पताल से लेने गए, न अपने बाबू को ही वहां दिखाए."

ये पूछे जाने पर कि फिर इलाज और दवाइयां कहां से लेती हैं, गुड़िया की मां फौरन जवाब देती है, "अब हम बड़े अस्पताल जाते हैं."

बड़े अस्पताल से उनका मतलब निजी अस्पताल से है.

कहां करते हैं भारतीय सबसे ज्यादा ख़र्च

नेशनल हेल्थ अकाउंट्स के आंकड़ों के मुताबिक स्वास्थ्य सेवाओं में भारतीय सबसे ज्यादा दवाइयों पर ख़र्च करते हैं.

इसका एक निष्कर्ष ये भी निकाला जा सकता है कि किसी इलाज के लिए टेस्ट और अस्पताल से पहले भारतीय, दवा खरीदना ज्यादा पसंद करते हैं.

आंकड़ों से ये भी पता चलता है कि निजी अस्पतालों में इलाज कराने पर भारतीयों का ज्यादा जोर रहता है. भारतीय निजी अस्पताओं में इलाज पर लगभग 28 फीसदी ख़र्च करते हैं.

जबकि निजी अस्पताल में इलाज कराना सरकारी अस्पताल में इलाज कराने से चार गुना ज्यादा मंहगा है.

स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्चा

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के आंकड़ों की बात करें तो हर भारतीय लगभग 75 डॉलर यानी 4869 रुपए अपनी सेहत पर सालाना ख़र्च करता है.

यानी महीने का हिसाब निकाला जाए तो भारतीय हर महीने 400 रुपए सेहत पर ख़र्च करते है.

ये औसत ख़र्च है. इसका ये अर्थ कतई नहीं लगाया जा सकता कि हर भारतीय इलाज पर इतना ख़र्च करता ही है.

देश के गांव के हिसाब से देखें तो ये बहुत ज्यादा है. लेकिन शहर के हिसाब से नहीं.

लेकिन दुनिया के कुछ दूसरे देशों में लोग अपनी सेहत पर भारतीयों से ज्यादा ख़र्च करते हैं.

अर्थव्यवस्था के आकार के हिसाब से भारत जैसे देशों में ये खर्चा 900 डॉलर से शुरू होता है.

ब्रिक्स देशों में ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश सालाना लगभग 900 डॉलर यानी 58,459 रुपए ख़र्च करते हैं.

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

]]>

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें