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सांसद निधि के खर्च का मांगें हिसाब

मित्रो, राज्यसभा एवं लोकसभा सदस्यों को अपने क्षेत्र के विकास के लिए हर साल पांच करोड़ मिलते हैं. इसके लिए सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना बनायी गयी है. इस योजना को संक्षेप में एमपीएलएडीएस (पूरा नाम मेंबर ऑफ पार्लियामेंट लोकल एरिया डेवलपमेंट स्कीम) कहते हैं. बोलचाल में हम इसे एमपी फंड कहते हैं. एक लोकसभा […]

मित्रो,

राज्यसभा एवं लोकसभा सदस्यों को अपने क्षेत्र के विकास के लिए हर साल पांच करोड़ मिलते हैं. इसके लिए सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना बनायी गयी है. इस योजना को संक्षेप में एमपीएलएडीएस (पूरा नाम मेंबर ऑफ पार्लियामेंट लोकल एरिया डेवलपमेंट स्कीम) कहते हैं. बोलचाल में हम इसे एमपी फंड कहते हैं. एक लोकसभा सदस्य का कार्यकाल पांच सालों का और राज्यसभा सदस्यों का छह सालों का होता है. इस तरह एक लोकसभा सदस्य को अपने पूरे कार्यकाल में अपने संसदीय क्षेत्र के विकास के लिए 25 करोड़ और राज्यसभा सदस्यों को 30 करोड़ मिलते हैं.

राज्यसभा और लोकसभा के वैसे सदस्यों को भी इतनी ही राशि मिलती है, जो चुनाव जीत कर नहीं, बल्कि मनोनीत होकर आते हैं. एक सांसद के लिए अपने क्षेत्र के विकास के लिए इतनी राशि कम नहीं होती. उन्हें इस राशि का उपयोग जनहित में करना है. वे पैसे कहां खर्च करेंगे, कैसे खर्च करेंगे और कितना खर्च करेंगे, इस संबंध में दिशा-निर्देश बना हुआ है. हर सांसद को हर साल पांच करोड़ रुपये अगर मिलते हैं, तो उनसे यह आशा की जाती है कि वे उसका पूरा-पूरा और सही-सही उपयोग करें, ताकि उनके क्षेत्र के विकास के बहाने देश का विकास हो. चूंकि हर संसदीय क्षेत्र का सबसे बड़ा इलाका गांव-पंचायत है, तो जाहिर है कि सांसद अगर ईमानदारी और तत्परता से काम करें, तो वे इस राशि से गांव पंचायत का बहुत कुछ भला कर सकते हैं. यह बहुत कुछ सांसदों की अपनी योग्यता, क्षमता और रचनाशीलता पर निर्भर करता है कि वे इस राशि का कैसे उपयोग करेंगे कि उसका सही-सही और स्थायी लाभ क्षेत्र के सभी वर्ग के लोगों को मिल सके, लेकिन ज्यादातर सांसदों या तो इस राशि का सदुपयोग नहीं करते या फिर इसके बारे में जनता को बताते नहीं हैं. देश के हर नागरिक को ऐसी राशि के खर्च के बारे में जानने का पूरा-पूरा अधिकार है. आप इसके लिए सीधा सांसद से पूछ सकते हैं. उन्हें इसकी जानकारी सार्वजनिक करनी है. अगर उनसे आपको सूचना नहीं मिले, तो आप सूचना का अधिकार का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. इस अंक में हम इसी विषय की जानकारी दे रहे हैं.

आरके नीरद

सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना की घोषणा प्रधानमंत्री ने 23 दिसंबर 1993 को संसद में की थी. पहले यह योजना ग्रामीण विकास विभाग के पास थी. फरवरी 1994 में इसे लेकर नया दिशा निर्देश तय हुआ. उसमें इस योजना की सोच, उसके कार्यान्वयन तथा मूल्यांकन को शामिल किया गया. अक्तूबर 1994 को इस योजना को भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रलय को सौंपा गया. दिसंबर 1994, फरवरी 1997, सितंबर 1999 और अप्रैल 2002 में इस योजना से जुड़े दिशा निर्देश में संशोधन किया गया. 1993 से 2003 तक के दस साल के अनुभव के आधार पर नवंबर 2005 में नया दिशा निर्देश जारी किया गया. अंतिम बार यह निर्देश अगस्त 2012 में संशाधित हुआ. यह निर्देश सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रलय ने जारी किया.

सांसद फंड को खर्च करने का क्षेत्रधिकार

चूंकि सांसद निधि को खर्च करने का अधिकार सांसदों को है. इसलिए उसके क्षेत्रधिकार भी तय हैं. लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य तथा दोनों सदनों के मनोनीत सदस्य सांसद कहे जाते हैं और उन सभी को इस योजना के तहत हर साल पांच-पांच करोड़ रुपये मिलते हैं. इसलिए सबके क्षेत्रधिकार अलग-अलग हैं. लोकसभा के सदस्य वैसे सदस्य, जो चुनाव जीत कर संसद में आते हैं, उन्हें अपने लोकसभा क्षेत्र में इस राशि को खर्च करना है. राज्यसभा सदस्य को उस राज्य के एक या एक से अधिक जिले में इस फंड को खर्च करने का अधिकार है, जिस राज्य से वह चुना जाता है.

लोकसभा और राज्यसभा के मनोनीत सदस्य को यह अधिकार मिला है कि वह देश के किसी राज्य के किसी जिले का चुनाव इस फंड को खर्च करने के लिए करे, लेकिन किसी सांसद को यह राशि खुद खर्च करने का अधिकार नहीं है. वह इस राशि को खर्च करने के लिए संबंधित जिले के जिलाधिकारी या उपायुक्त से अनुशंसा करता है. उसकी अनुशंसा के आधार पर योजना बनाने और उसे स्वीकृति देने के पहले जिला प्रशासन सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना के संबंध में भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यान्वयन मंत्रलय द्वारा जारी दिशा निर्देश के आधार पर उसकी जांच करता है. उसके बाद योजना बनायी जाती, उसे तकनीकी स्वीकृति दी जाती है, उसके कार्यान्वयन के लिए एजेंसी तय की जाती है और हर स्टेज पर योजना के कार्यान्वयन का मूल्यांकन किया जाता है.

इस प्रक्रिया में सांसद निधि की योजना को कोई छूट या प्राथमिकता नहीं मिली है. इसमें अगर किसी स्तर पर गड़बड़ी होती है, तो उसके लिए सांसद नहीं, संबंधित एजेंसी जिम्मेवार होती है. यह एजेंसी सरकार के वैसे विभाग होते हैं, जिनसे जुड़ी योजना की सांसद अनुशंसा करते हैं. जैसी अगर चेक डैम या नगर बनाने की अनुशंसा हुई हो, तो वहां लघु सिंचाई विभाग एजेंसी होती है. उसी तरह विद्यालय भवन की अनुशंसा की गयी हो, तो शिक्षा विभाग उसके लिए जवाबदेह होता है. सांसद की ऐसी गड़बड़ी पर भूमिका तब बनती है, जब वह किसी खास एजेंसी से और उसकी शर्तो पर काम करने का दबाव बनाता है.

15वीं लोकसभा में मिली राशि

15वीं लोकसभा में झारखंड के सांसदों को पांच सालों (वर्ष 2009-13) में 266 करोड़ मिलने थे, लेकिन 233 करोड़ रुपये ही मिले. इस फंड में ब्याज के रुप में 4.32 रुपये और मिले. उनमें से केवल 188.74 करोड़ रुपये ही खर्च हुए, जो कुल आवंटित राशि का 81 प्रतिशत है. हालांकि बिहार के मुकाबले यह बेहतर है. बिहार में महज 75.14 प्रतिशत एमपी फंड खर्च हुआ. सिंहभूम के सांसद मधु कोड़ा सबसे कम 45.87 प्रतिशत राशि खर्च कर सके. अन्य सांसदों का फंड भी 70-75 प्रतिशत ही खर्च हो सका. हां, दुमका के सांसद शिबू सोरेन ने 111.86 प्रतिशत और गोड्डा के सांसद निशिकांत दुबे ने 102.57 प्रतिशत एमपी फंड का इस्तेमाल कराया. यह अतिरिक्त राशि बैंक सूद से मिली. रवींद्र राय ने 97.46 प्रतिशत तथा देवीधन बेसरा ने 93.57 प्रतिशत एमपी फंड का उपयोग किया.

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