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इंडियन स्वाद : भारतीय भोजन का भविष्य

बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस जद्दोजहद में जुटी हैं कि इंडियन जायके पर अपना कब्जा कर झटपट ‘गरमाओ और खाओ’ सरीखे पैकेट बंद खाने की चीजों से बाजार पाट दें. यह प्रयास कारोबारी क्षेत्र में वैश्विक दृष्टि से भले ठीक हो, भारतीय भोजन की शानदार सांस्कृतिक परंपरा के लिए कहीं से भी ठीक नहीं है, बल्कि यह […]

बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस जद्दोजहद में जुटी हैं कि इंडियन जायके पर अपना कब्जा कर झटपट ‘गरमाओ और खाओ’ सरीखे पैकेट बंद खाने की चीजों से बाजार पाट दें. यह प्रयास कारोबारी क्षेत्र में वैश्विक दृष्टि से भले ठीक हो, भारतीय भोजन की शानदार सांस्कृतिक परंपरा के लिए कहीं से भी ठीक नहीं है, बल्कि यह उन्हें नुकसान पहुंचानेवाला ही है. इस परिस्थिति से सावधान रहने और भारतीय भोजन के भविष्य के बारे में हम यहां बता रहे हैं…

भारतीय व्यंजनों को लेकर कुछ प्रयोग प्रेमी शेफ हैं, जो परंपरा को खारिज किये बिना 21वीं सदी के व्यंजन ईजाद कर रहे हैं.
हाल ही में यह खबर मिली कि अपेक्षाकृत युवा भारतीय शेफ यानी पेशेवर खाना पकानेवाले बावर्ची विकास खन्ना को एक विश्वविद्यालय ने मानद पीएचडी की उपाधि से नवाजा है. यह हिंदुस्तानी जायके के प्रेमियों के लिए संतोष का विषय है. यूं तो विकास की छवि शेफ की कम, अपने से भी ज्यादा मशहूर हस्तियों की मेहमान नवाज की और टेलीविजन शो में लुभावनी अदा वाले एंकर की ज्यादा है. उस न्यूयाॅर्क के एक बहुमुखी प्रतिभा के हम कायल हैं, पर इसी बहाने यह सवाल उठाने की जरूरत महसूस करते हैं कि कहीं उल्टे बांस बरेली वाली कहावत ही तो असर नहीं कर रही है?
देश में बाल-दाढ़ी सफेद कर चुके जाने कितने शेफ गुमनामी में ही जिंदगी बसर करते रहे हैं. सत्तर की दहलीज पार करने के बाद ही इम्तियाज कुरैशी साहब को पद्म सम्मान के लायक समझा गया. संजीव कपूर ने इस पाक कौशल विधा को लोकप्रिय बनाया और वे उद्यमिता की अद्भुत मिसाल बने. पर, जो नाम आज लोगों का जुबान पर सबसे अधिक चढ़ा है, वह बैंकॉक वाले गगन आनंद का है, जिनके रेस्त्रां को इस साल दो मिशलां सितारे मिले हैं. विडंबना यह है कि गगन एलान कर चुके हैं कि वह बहुत जल्दी अपना आलीशान खोमचा उठानेवाले हैं. वैसे जिस खाने ने उन्हें बेशुमार शोहरत और दौलत दिलायी वह भारतीय भोजन नहीं था.
देशी मुर्गे के विदेशी बोल लाजवाब थे. कभी कलेवर फ्रांसीसी होता, तो कभी चीनी या जापानी पदार्थ रोब जमाते थे. पैसे वाले इस जगह खाते दिखने के लिए महीनों पहले आरक्षण करवाते और पैसे खरचने को उतावले रहते थे. वह जमाना फ्यूजन का था और इसका ज्वार एक तरह से भाटों में बदलने लगा है. गगन समझदार हैं- नक्कालों को पीछे छोड़कर वह नयी दिशा तलाश रहे हैं.
यही बात ‘मौलीक्यूलर’ रसोई पर भी लागू होती है. कुछ बरस तक इसका हौव्वा भी जबर्दस्त था. खानेवाले लोग उससे यह पूछने का साहस नहीं जुटा सकते थे कि अग्नि परमाणु विज्ञान की ऐसी प्रतिभा थी, तो किसी प्रयोगशाला में काम क्यों नहीं तलाशा? लिक्विड नाइट्रोजन की ठंडक ने कुछ नासमझों की पेट में खतरनाक सूराख तक बना डाला. बैगन की कैवियार और पैन की कुल्फी की शक्ल में बिरयानी का जादू भी हाथ की सफाई ही साबित हुआ. हां मसाला लाइब्रेरी का हठ अभी भी चुंबकों की मदद से कबाब को हवा में त्रिशंकुवत् लटकाने का तरीका बरकरार है.
कुछ प्रयोग प्रेमी हैं, जो परंपरा को खारिज किये बिना 21वीं सदी के व्यंजन ईजाद कर रहे हैं. इनमें कभी ओबेरॉय होटल दिल्ली के कॉरपोरेट शेफ रहे रवि तेजनाथ और रनवीर बरार (जो अकसर ‘राज रसोई’ पर नजर आते हैं) प्रमुख हैं. मुंबई कैंटीन के जकरिया और रोसीएट दिल्ली के निशांत चौबे और देहरादून वन रिजॉर्ट के कुंतल कुमार आदिवासी भोजन तथा देहाती रसोई के लुप्त होते जा रहे व्यंजनों को नये सांचे में ढालने की कोशिश में लगे हैं.
उधर बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस जद्दोजहद में जुटी हैं कि इंडियन जायके पर अपना कब्जा कर झटपट ‘गरमाओ और खाओ’ सरीखे पैकेट बंद खाने की चीजों से बाजार पाट दें. इस मोर्चे पर एक तरफ अत्याधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी और पूंजी से पोषित कृत्रिम रासायनिक खाद्य पदार्थ है, तो दूसरी तरफ कुदरती मौसमी भोजन पर आधारित पारंपरिक पद्धति जो हमारी सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी है. यह लड़ाई घर की रसोई में भी लड़ी जा रही है और बाजार में भी! सावधान!
कुछ तथ्य
संजीव कपूर ने भारतीय पाक कौशल विधा को लोकप्रिय बनाया और वे उद्यमिता की अद्भुत मिसाल बने.
एक तरफ अत्याधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी और पूंजी से पोषित कृत्रिम रासायनिक खाद्य पदार्थ है, तो दूसरी तरफ कुदरती मौसमी भोजन पर आधारित पारंपरिक पद्धति जो हमारी सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी है.
पुष्पेश पंत

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