।। राजेंद्र कुमार ।।
यह चुनाव अहम है, क्योंकि हमें सुल्तानपुर में नयी शुरुआत करनी है. मैं जात-पांत नहीं मानता. मैं ऐसी राजनीति करना चाहता हूं, जहां धर्म और जाति-पांत की जगह न हो. मुझे पता है कि यहां के लोग मेहनती हैं, स्वाभिमानी हैं. फिर भी इलाका पिछड़ा है, क्योंकि इलाके को नेतृत्व नहीं मिला. मैं चाहता हूं कि ऐसी राजनीति हो, जिससे जनता का भला हो. इसके लिए आपका साथ चाहिए. मैं यहां नेता नहीं, बल्किभाई और बेटे के रूप में आया हूं. आप मुझे अपना दिल दें और बदले में अधिकार लें.
सफेद लकदक कुर्ते में लंबी कायावाले गांधी परिवार के वरुण गांधी अपने चुनाव प्रचार के दौरान सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्र में यह करते हुए जनता से सीधा संवाद कर रहे हैं. राहुल गांधी की तरह वरुण के ईद-गिर्द सुरक्षा का कोई तामझाम नहीं है. एक परिपक्व और वाक्पटु नेता की तरह वरु ण हर दिन 12-16 सभाएं कर रहे हैं. वह किसी की निंदा न कर सिर्फ विकास की बात करते हैं. उनकी मां मेनका गांधी भी सुल्तानपुर में उनकी मदद के लिए पहुंच गयी हैं. मेनका भी वरु ण को अपने बेटे की तरह स्नेह देने का आग्रह सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्र के लोगों से कर रही हैं.
वरुण का अंदाज यहां के लोगों का भा रहा है. सभाओं में पहुंचे वरुण सीधे माइक पकड़ लेते हैं और खुद भीड़ को नियंत्रित करने लगते हैं : ओ भाई साहब, दो मिनट शांत रहेंगे. कुछ लोगों को वरु ण का यह व्यवहार आत्मीय लगता है, तो कुछ को खराब. लेकिन, इसकी परवाह किये बिना वह सुल्तानपुर को देश के वीवीआइपी संसदीय क्षेत्र में तब्दील करने का सपना दिखाने लगते हैं.
वरुण के लिए यह नया जिला है, पर पिता संजय गांधी की वजह से इससे उनकी पहचान पुरानी है. कभी गांधी परिवार के वारिस माने गये संजय गांधी ने 1974 में सुल्तानपुर जिले का हिस्सा रहे अमेठी से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी. 1980 में वह चुनाव जीते थे. यही वजह है कि वरुण अपनी सभाओं में पिता संजय गाधी का जिक्र भी करते हैं. कहते हैं कि मुझे अपने पिता की जरा-जरा याद है, पर लोग कहते हैं कि मैं अपने पिता की तरह लगता हूं. लंदन विश्वविद्यालय से एमएससी की डिग्री हासिल करनेवाले वरुण पीलीभीत संसदीय क्षेत्र को छोड़ कर सुल्तानपुर से चुनाव लड़ रहे हैं.
बीते लोकसभा चुनावों में यहां से डॉ संजय सिंह कांग्रेस के टिकट पर जीते थे. वह कभी संजय गांधी की टीम में थे. अब संजय सिंह की पत्नी अमिता सिंह को कांग्रेस ने टिकट दिया है. कांग्रेस के प्रति नाराजगी का असर यहां भी दिख रहा है. अमेठी के राजघराने की रानी होने के बाद भी अमिता की चुनौती वरुण पर भारी नहीं पड़ रही. सपा ने वरुण के मुकाबले शकील अहमद को उतारा है, तो बसपा ने दबंग पवन पांडेय पर दावं लगाया है. सभी के मुकाबले वरु ण की राष्ट्रीय नेता की छवि और संजय गांधी का पुत्र होना लोगों पर असर डाल रहा है. इसलिए, वरु ण जहां भी जाते हैं, लोग उन्हें सुनने आते हैं. वरुण यहां मोदी के नाम पर नहीं, सुल्तानपुर में रायबरेली और अमेठी जैसा विकास कराने के लिए वोट मांग रहे हैं. उनकी हर सभा में ह्यवरु ण नहीं ये आंधी हैं, दूसरा संजय गांधी हैह्ण का नारा सुनाई देता है.
सुल्तानपुर शहर के शीतल सिंह कहते हैं कि वरुण के होने के बावजूद यहां लड़ाई त्रिकोणीय है. भाजपा, सपा और बसपा के बीच लड़ाई हो रही है. शीतल बताते हैं कि वरु ण भले ही यहां मोदी का नाम ज्यादा न लेते हों, लेकिन वोट उन्हें मोदी के नाम पर भी मिल रहे हैं. बसपा के पवन पांडेय को दलित वोटरों का पूरा समर्थन मिल रहा है. अब उनकी नजर ब्राह्मण और मुसलिम वोटरों पर है.
मुसलिम मौन हैं. इसके अलावा, उनकी दबंग छवि भी आड़े आ रही है. कांग्रेस की अमिता सिंह मुख्य चुनावी लड़ाई में आने के लिए पूरा दम लगाये हुए हैं. सपा के शकील अहमद को भी मुसलिम वोट पाने का भरोसा है. फिलहाल जातियों के वोट प्रबंधन में जुटे कांग्रेस, सपा और बसपा के उम्मीदवारों पर वरुण गांधी की वाक्पटुता भारी पड़ रही है. नेतृत्वविहीन सुल्तापुर को अमेठी और रायबरेली जैसी हैसियत दिलाने का सपना वरुण यहां दिखा रहे हैं और लोग संजय गांधी के पुत्र के दावे पर यकीन भी कर रहे हैं.
* ये रहे हैं सांसद
1952 : एमए काजमी (कांग्रेस)
1957 : गोविंद मालवीय (कांग्रेस)
1961 : गनपत सहाय (निर्दलीय-उपचुनाव)
1962 : कुंवर कृष्ण वर्मा (कांग्रेस)
1967 : गनपत सहाय (कांग्रेस)
1969 : पं.श्रीपति मिश्र (बीकेडी-उपचुनाव)
1970 : केदारनाथ सिंह (कांग्रेस-उपचुनाव)
1971 : केदारनाथ सिंह (कांग्रेस)
1977 : जुल्फिकार अली (जनता पार्टी/भालोद)
1980 : गिरिराज सिंह (कांग्रेस)
1984 : राजकरन सिंह (कांग्रेस)
1989 : राम सिंह (जनता दल)
1991 : विश्वनाथदास शास्त्री (भाजपा)
1996 : डीबी राय (भाजपा)
1998 : डीबी राय (भाजपा)
1999 : जयभद्र सिंह (बसपा)
2004 : मोहम्मद ताहिर (बसपा)
2009 : डॉ संजय सिंह (कांग्रेस)