।। अनुज सिन्हा।।
(वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर)
मैट्रिक का रिजल्ट आये और टॉपर नेतरहाट आवासीय विद्यालय का न हो, ऐसा विरले ही होता है. आज से नहीं, उन दिनों भी यही हाल था जब बिहार का बंटवारा नहीं हुआ था. इस साल भी सभी टॉपर यानी टॉप टेन नेतरहाट विद्यालय के ही थे. मन में सवाल आता है कि नेतरहाट में कैसे पढ़ाई होती है कि टापर यहीं से निकलते हैं और यहां से निकले अनेक बच्चे आइएएस-आइपीएस बनते हैं. गत 31 दिसंबर और एक जनवरी को मैं नेतरहाट में ही था. नेतरहाट विद्यालय भी गया था. विद्यालय का मुख्य गेट बंद था. आग्रह करने पर खुला. उस दिन विद्यालय कमेटी की बैठक हो रही थी. मुख्य भवन के प्रवेश द्वार पर यह श्लोक लिखा है, जो सभी को प्रेरित करता है –
न त्वहं कामये राज्यं न स्र्वग नापुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्।।
उस दौरान विद्यालय में छुट्टी चल रही थी. छात्र घर गये हुए थे. आश्रम भी खाली थे. एक शिक्षक से मुलाकात हुई. उनसे सवाल पूछे- यहां की दिनचर्या क्या है? कैसे बच्चों को पढ़ाते हैं? विस्तार से उन्होंने जवाब दिया. कतई महसूस नहीं हुआ कि राष्ट्रीय स्तर के एक विद्यालय के शिक्षक से बात हो रही है. बड़े विनम्र. एक आश्रम उनके जिम्मे था. पत्नी स्कूल के बच्चों के खाने का प्रबंध देखती थीं. बिल्कुल गुरुकुल पद्धति से वहां बच्चों का जीवन चलता है. छात्रों की ओर से गुरु और गुरुमाता के प्रति आदर का भाव. शिक्षक और गुरुमाता भी स्कूल के बच्चों और अपने बच्चों में फर्क नहीं कर पाते. अपने बच्चे जैसी देखभाल करते हैं. अन्य स्कूलों में यह अब कहां दिखने को मिलता है? गांधी के विचारों पर आधारित इस स्कूल में नाई, धोबी से लेकर दर्जी तक होते हैं, ताकि बच्चों को कहीं और भटकना नहीं पड़े. ठीक एक स्वावलंबी गांव की तरह.
बच्चों में स्वानुशासन है. किसी को कहना नहीं पड़ता कि यह पढ़ने का समय है. सुबह चार बजे उठना पड़ता है. योग, व्यायाम से लेकर खेलकूद तक की शिक्षा दी जाती है. व्यावहारिकता पर अधिक जोर. बच्चों को स्वावलंबी बनने की शिक्षा दी जाती है. शिक्षक ज्ञानवान हैं. साथ में है पढ़ाने और बच्चों को बेहतर नागरिक बनाने का जुनून. समर्पण का अदभुत उदाहरण. ऐसा नहीं है कि नेतरहाट के बच्चों को सिर्फ परीक्षा में अच्छे नंबर लाने के लिए पढ़ाया जाता है. किसी विषय की गहराई से जानकारी दी जाती है. पढ़ाने का तरीका भी अलग है. बच्चों के लिए सब कुछ पूर्व निर्धारित है. कब उठना है, कब से कब तक पढ़ना है, कब योग करना है, कब प्रार्थना में जाना है, कब खेलना है, कब खाना है, कब सोना है. यही कारण है कि इस स्कूल से निकले छात्र देश के प्रतिष्ठित पदों पर कार्यरत हैं. राजीव रंजन इसी स्कूल के छात्र रहे हैं जो कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में भौतिक विज्ञापन के प्रोफेसर हैं. उन्हें 2011 में नोबेल प्राइज के लिए नामित किया गया था.
ऐसी बेहतरीन संस्था पर किसी भी राज्य को गर्व हो सकता है. लेकिन यह भी सत्य है कि दूसरा नेतरहाट विद्यालय झारखंड-बिहार या देश के अन्य हिस्सों में नहीं बन सका. जवाहर नवोदय विद्यालय खोल कर आश्रम स्कूल की परिकल्पना को आगे ले जाने का प्रयास तो किया गया लेकिन नेतरहाट स्कूल जैसी गरिमा पाने में वे सफल नहीं रहे. नेतरहाट स्कूल की परिकल्पना फ्रेडरिक गार्डन पीयर्स की थी, जिन्होंने देश में कई आवासीय स्कूल बनाये. वे प्रसिद्ध दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति के विचारों से प्रभावित थे. जब बिहार में ऐसा विद्यालय खोलने की बात आयी तो उन्हें जेसी माथुर और डा सच्चिदानंद सिन्हा जैसे लोगों का सहयोग मिला. श्रीकृष्ण बाबू की सहमति मिली और 1954 से यह स्कूल अस्तित्व में आ गया. उनके काम को आगे बढ़ाया वहां के पहले प्राचार्य चाल्र्स नेपियर ने. एक ऐसा स्कूल जहां गरीब और अमीर अमीर छात्र साथ-साथ पढ़ सकते हैं, पैसा आड़े नहीं आता. खर्च सरकार वहन करती है.
लेकिन, एक चुनौती भी है. राज्य में बेहतरीन उच्च शिक्षण संस्थान नहीं रहने के कारण आगे की पढ़ाई वे कहां करें? उच्च शिक्षा की सुविधाओं का अभाव कहीं प्रतिभाओं की राह न रोक दे?