।। अनुज कुमार सिन्हा।।
झारखंड सरकार पर सवाल उठ रहे हैं. विपक्ष का आरोप है कि सरकार के पास बहुमत नहीं है. सरकार अनैतिक है. इसे सत्ता में रहने का नैतिक अधिकार नहीं है. मुख्यमंत्री कहते हैं-उनके पास बहुमत है. जनता दुविधा में. किस पर भरोसा करे, किस पर नहीं. ऐसे हालात ही पैदा हो गये हैं. हेमंत सोरेन की सरकार जिन सहयोगियों के बल पर चल रही है, उनमें से कई ने चुनाव में पाला बदल दिया. आज बताना मुश्किल है कि वे लोग सरकार के साथ हैं या नहीं. बोलते कुछ हैं, करते कुछ हैं. इनकी भाषा अलग है. हैं सत्ताधारी दल में, काम कर रहे हैं दूसरे दलों के लिए. जो दूसरे दल में हैं (विपक्ष में), उनमें से एक-दो ने चुनाव में काम किया सत्ताधारी दल के लिए. सारा समीकरण उलझ कर रह गया है. इसलिए किसी के लिए भी बड़ा कठिन है कि सरकार को बहुमत हासिल है या नहीं. यह तो सदन में ही तय हो सकता है.
राजनीतिज्ञों (यहां पर विधायक) ने चुनाव के दौरान जो राह चुनी, टिकट के लिए जो दल-बदल किया, उसने ही यह हालात पैदा किया है. स्वार्थ की राजनीति ने दलीय प्रतिबद्धता को दरकिनार कर दिया. पहले आइए बंधु तिर्की और चमरा लिंडा पर. ये दोनों वे प्रमुख विधायक हैं, जिनके बल पर सरकार टिकी है. चुनाव के ठीक पहले ये दोनों तृणमूल कांग्रेस में चले गये. एक ने रांची से तो दूसरे ने लोहरदगा से लोकसभा का चुनाव लड़ा. अब कहते हैं कि सरकार पर निर्णय ममता दीदी करेंगी. ममता दीदी कहती हैं-चुनाव के बाद सरकार को जाना है.
लेकिन झारखंड के हालात, यहां के विधायकों के इतिहास को देखते हुए ये कब पाला बदल लेंगे, कोई नहीं कह सकता. हो सकता है कि ममता बनर्जी समर्थन वापसी की घोषणा करें, पर उनके ये दोनों विधायक उस पर अमल न करें. टीएमसी भले ही छोड़ दें, लेकिन सरकार को समर्थन देते रहें. चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस नेता/विधायक ददई दुबे ने कांग्रेस छोड़ी थी. वे भी टीएमसी में गये थे. झारखंड मुक्ति मोरचा के एक विधायक विद्युत महतो ने पार्टी छोड़ी, भाजपा का दामन थामा. जमशेदपुर से चुनाव भी लड़ा. हेमलाल मुरमू भी भाजपा में गये, चुनाव लड़ा. जिन विधायकों ने विधायक के पद से इस्तीफा दे दिया, वहां की स्थिति स्पष्ट है लेकिन जो विधायक अभी भी पार्टी में ही हैं, नाराज हैं, विद्रोह किये हुए हैं, उनका रुख क्या होगा?
साइमन मरांडी मंत्री हैं. तकनीकी तौर पर वे अभी भी झामुमो के विधायक हैं. पार्टी प्रत्याशी को हराने की अपील की थी. तय है कि पार्टी में रहनेवाले नहीं हैं लेकिन इस्तीफा भी नहीं दिया है. जेवीएम के विधायक हैं निजामुद्दीन अंसारी. चुनाव में शिबू सोरेन के पक्ष में काम करने का आरोप है. उनका रुख स्पष्ट नहीं है कि वे सरकार के विपक्ष में हैं या पक्ष में. जदयू के दो विधायक हैं. एक राजा पीटर ने कड़िया मुंडा को विजयी बनाने की अपील की थी. सुधा चौधरी का रुख स्पष्ट नहीं है.
कौन किधर है, कौन सरकार को समर्थन दे रहा है, कौन नहीं, यह सब सदन में ही तय हो सकता है. झारखंड इसी असमंजस में है. सरकार की वैधानिकता पर सवाल उठ रहे हैं. सरकार अभी अल्पमत में है या बहुमत में, यही साफ नहीं है. मर्यादित राजनीति यही कहती है कि ऐसी स्थिति आने पर विधानसभा का सत्र बुलाया जाये और बहुमत साबित करने के लिए कहा जाये. दूध का दूध और पानी का पानी साफ हो जायेगा. सरकार अगर बहुमत सिद्ध कर लेती है, तो उस पर जो आरोप लग रहे हैं, वह छंट जायेगा. सवाल नीयत का है, हिम्मत का है. किसी भी मुख्यमंत्री के लिए यह काम आसान नहीं होता. हर कोई जानता है कि अगर ढंग से मैनेज नहीं किया गया तो फ्लोर पर कुछ भी हो सकता है. सरकार जा भी सकती है या बच भी सकती है. झारखंड की राजनीति में कुछ भी संभव है, जहां रातो-रात पाला बदला जा सकता है. जो भी हो, नैतिकता यही कहती है कि हेमंत सोरेन कोई कदम उठायें और संवैधानिक पक्षों को ध्यान में रखते हुए तसवीर साफ करने के लिए पहल करें. यही झारखंड के हित में होगा और इसी से कुछ विधायकों के मूल चरित्र (दोहरा चरित्र), स्वार्थ की राजनीति का परदाफाश होगा.