भारत में हर साल लाखों लोग सड़क हादसों में अपनी जान गवां देते हैं. इसके पीछे खराब सड़कें, अव्यस्थित ट्रैफिक, लाइसेंसिंग अथॉरिटी में दलालों का कॉकस, पैदल और साइकिल से चलनेवालों के प्रति अवहेलना भरा रवैया जैसी अनगिनत वजहें देखी जा सकती हैं. आज जब चुनावी वादों का दौर है, क्या एक नये मेनिफेस्टो की जरूरत नहीं, जो इन हादसों को रोकने की बात करे..
हर तरफ वादों और दावों के झंडे लहरा रहे हैं, बयानों और बहानों की बारिश हो रही है. ये मौसम है चुनावों का, जहां सभी ये जताने में लगे हैं कि आपकी फिक्र सबसे ज्यादा की जा रही है. अब वोटर भी अपने वोट को लेकर पहले से कहीं ज्यादा सजग हैं. वोट के बदले में क्या मिल रहा है और क्या देना पड़ रहा है, वो इसे बखूबी तौल रहे हैं. लेकिन अब ये कहने में भी कोई नयापन नहीं रह गया है कि अभी भी विचारधाराओं की लड़ाई के नाम पर वही स्कूली बहस जारी है. वही आपको ट्विटर पर दिखेंगी, फेसबुक पर भी.
ऐसे में, आज राजनीति से अलग सोचना हर उस इंसान के लिए मुश्किल है, जो किसी भी तरीके के मीडिया से संपर्क में है. मास मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक पूरी बहस को देखते हुए मुङो लग रहा था कि कैसे इस बहस में वो मुद्दे जगह बना सकते हैं, जो इतने सालों से उपेक्षित हैं. जिनकी वजह से लाख से ऊपर लोगों की जान चली जाती है, लाखों घायल होते हैं, और उनके परिवार तबाह. वहीं दूसरी ओर वह चीजें हैं, जो लोगों की बनावट को बदल रही हैं, उन्हें आक्रामक बना रही हंै और एक दूसरे के प्रति संवेदनहीन भी.
इस पूरी चर्चा के बीच लगता है कि एक और मेनिफेस्टो है, जिसके लिए जगह बनाने की जरूरत है. आने वाले वक्त में जिससे देश की तसवीर बेहतर हो सकती है. देश भर में सड़क हादसों में हर साल सवा लाख से ज्यादा लोग मारे जाते हैं. दुनिया में सबसे ज्यादा लोग भारत में सड़कों पर दम तोड़ते हैं. इसलिए एक ऐसा मेनिफेस्टो हो, जो इस कलंक को मिटाने की कोशिश करे. ये है- सड़क का मेनिफेस्टो.
लाइसेंस
सबसे पहले जरूरत है हमारी ड्राइविंग को ईमानदार बनाने की. देश के तमाम लाइसेंसिंग ऑथोरिटी में दलालों का कैसा साम्राज्य चलता है, इसके बारे ना जाने कितनी बार लिखा-पढ़ा जा चुका है. चाहे 40 हॉर्सपावर की गाड़ी हो या 400 की, इन्हें चलाने के लिए बिना ट्रेनिंग और बिना टेस्ट के मिले लाइसेंस का खतरा वैसा ही है, जैसा कि बच्चे के हाथ में असल पिस्तौल देना, बिना इसकी परवाह किये कि इससे किसी की जान जा सकती है. सोचिए कि जिस लाइसेंस के लिए कुछेक सौ रुपये एक्स्ट्रा देने के अलावा अगर और कुछ नहीं करना हो, तो फिर उसकी अहमियत क्या रह जायेगी. सड़कों पर जो दिखता है, उसमें ड्राइविंग की काबिलियत का कोई मापदंड नहीं है. चूंकि ये मामला सड़क का है, तो ड्राइवर की बेवकूफी का खामियाजा केवल उस ड्राइवर को नहीं, बहुतों को भुगतना पड़ता है.
विदेशों में लाइसेंस मिलना एक उपलब्धि होती है, जिसके लिए बार-बार फेल होना भी आम बात है. यही नहीं कुछ सालों में फिर से टेस्ट लेकर लाइसेंस रिन्यू करना भी आम है. फिर ये भी होता है कि अलग-अलग गाड़ियों या इंजन क्षमता के लिए अलग लाइसेंस होते हैं. यानि जरूरी नहीं कि एक ही लाइसेंस से आप ऐक्टिवा भी चला सकें और डुकाटी भी. विडंबना यही है कि हमारे यहां वल्र्ड क्लास प्रोडक्ट तो आ गये हैं लेकिन वल्र्ड क्लास सेफ्टी स्टैंडर्ड नहीं आये. इसलिए, जरूरत है हमारी लाइसेसिंग व्यवस्था दुरुस्त हो. नये जमाने के लिए, नयी गाड़ियों के लिए बने. लाइसेंस ऑफिसों से भ्रष्टाचार दूर हो. लाइसेंस देने में भ्रष्टाचार जिंदगी ही मुश्किल नहीं, बल्कि खत्म कर देता है. तो क्या इस भ्रष्टाचार पर भी किसी पार्टी की नजर जाएगी?
पैदल
यूरोप के किसी शहर में टहलिए या जापान की सड़कों पर चलिए, जेब्रा क्रॉसिंग से सड़क पार कीजिए और सामने से आनेवाली गाड़ियों का रवैया देखिए. अगर आप इन देशों में गये हैं, तो फिर कल्पना करने में कोई दिक्कत नहीं, अगर नहीं गये हैं, तो थोड़ा अपना तजुर्बा बता दूं. ज्यादातर जगहों पर पैदल चलनेवालों को तरजीह दी जाती है. फुटपाथ का मतलब फुटपाथ होता है. अगर आप सड़क पार करे रहे हैं तो गाड़ियां आपके लिए रुक जाएंगी. और ड्राइवर इशारा करेगा कि आप पहले पार कर लीजिए. अब वापस आइए अपने देश में. अपनी कॉलोनी में ऐसे ही फुटपाथ पर चलने, सड़क पार करने या लंबी दूरी पैदल तय करने की कोशिश कीजिए. अचानक लगेगा कि देश की सड़कें और ट्रैफिक व्यवस्था पैदल यात्रियों के बिल्कुल खिलाफ है. देश के ज्यादातर शहरों में फुटपाथ पर लोगों ने कब्जा कर रखा है. बड़ी सड़कों पर यह कब्जा ठेलेवालों और रिक्शेवालों का रहता है, तो कॉलोनी के अंदर अपने आप को सभ्य कहनेवालों का होता है, जिनकी कोठियों के सामने की सड़क कार पार्किग के तौर पर इस्तेमाल होती है. अगर आप पैदल चलने की कोशिश करते हैं, तो आपको चलती और पार्क की गयी गाड़ियों के बीच रास्ता खोजना पड़ता है. ऐसे में जो टहलना आराम के लिए होता, एक संघर्ष में तब्दील हो जाता है. और इस संघर्ष में आपको केवल रास्ता नहीं ढूंढ़ना होता है, जान भी बचानी होती है. पैदल यात्रियों की भारत में जितनी कम इज्जत है, शायद ही कहीं और हो. गाड़ी वाले उनके लिए रुकेंगे क्या, कुचल कर निकल जाते हैं. हाल में दिल्ली में एक नौजवान पैदलयात्री की कुचल कर मौत हो गयी थी. जिसमें चौंकानेवाली दलील सुनने को मिली कि उस नौजवान ने कान में हेडफोन लगा रखा था इसलिए कार का हॉर्न नहीं सुन पाया और कुचला गया. यानि पैदल यात्री के जान की जिम्मेदारी सिर्फ उसकी खुद की है, अगर उसने गलती की, हॉर्न नहीं सुना तो उसे अपनी जान गंवानी पड़ सकती है. सवाल ये है कि पैदल यात्रियों के हक के लिए क्या कोई कदम उठाया जाएगा?
कानून
मैं कानून का जानकार नहीं, लेकिन ये जरूर समझ सकता हूं कि जो कानून हैं भी उनका पालन नहीं हो रहा है. पालन इसलिए नहीं हो रहा है कि क्योंकि उसे लागू करने में कोताही बरती जाती है. कोताही क्यों बरती जाती है ये सवाल ऐसा है जिस पर थीसिस लिखी जा सकती है. लेकिन इस कोताही से क्या कुछ हो रहा है, ये दिख तो रहा है लेकिन इसकी गंभीरता समझी नहीं जा रही है. रेड लाइट जंप करने, गलत ओवरटेक करने, ओवरस्पीड करने जैसे सभी मौकों पर लोग 100 से 400 रुपये में छूट जाते हैं. अगर पहले दिन स्कूल जानेवाली बच्ची और अपनी बेटी को स्कूल बस में पहले दिन जाते देखने की ख्वाइश के साथ सुबह उठ कर आये पिता, जो गुड़गांव के एक अस्पताल में दिल का डॉक्टर भी थे, को गाड़ी से कुचल देने वाले को कुछ ही घंटों में अगर बेल मिल जाए, तो यही लगता है कि यहां आप कुछ भी कर के निकल सकते हैं, सब चलता है. अपनी बेटी और पति को एक साथ खोने के गम में एक महिला सदमे में चली जाती है और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. शायद हर साल सवा लाख परिवार ऐसे ही सदमे में चले जाते होंगे, जिनका कोई अपना घर वापस नहीं आता होगा. लेकिन बाकी के हम लोग सदमे में नहीं जाते. देश सदमे में नहीं जाता. सवाल यही है कि आखिर ऐसा कब तक होगा?
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