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बाबा साहेब की राह और दलित राजनीति

बाबा साहब आंबेडकर की जन्मतिथि के मौके पर यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि दलितों की हिमायती या दलित हितों की नुमाइंदगी करनेवाली पार्टियां देश में मौजूद राजनीतिक लोकतंत्र के सहारे बाबा साहब की मंशा के अनुरूप सामाजिक लोकतंत्र कायम कर पायी हैं, या मौजूदा राजनीति में बाबा साहब के नाम का सिर्फ एक ब्रांड […]

बाबा साहब आंबेडकर की जन्मतिथि के मौके पर यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि दलितों की हिमायती या दलित हितों की नुमाइंदगी करनेवाली पार्टियां देश में मौजूद राजनीतिक लोकतंत्र के सहारे बाबा साहब की मंशा के अनुरूप सामाजिक लोकतंत्र कायम कर पायी हैं, या मौजूदा राजनीति में बाबा साहब के नाम का सिर्फ एक ब्रांड की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है? इस सवाल से जुड़े कुछ आधारभूत तथ्यों पर नजर डाल रही है आज की कवर स्टोरी..

बाबा साहब आंबेडकर की राजनीति समाज के दलित तबके को लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर बुनियादी अधिकार और व्यक्ति होने की गरिमा प्रदान करने की भावना से प्रेरित रही. इसी वजह से संविधान की रचना के बाद उस पर संविधान-सभा की जब अंतिम मुहर लगी, तो उन्होंने स्वयं को प्रारूप समिति का प्रधान बनाये जाने पर आश्चर्य जताया था. उनके वाक्य थे- ‘संविधान सभा में आने के पीछे मेरा उद्देश्य अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा करने से अधिक कुछ नहीं था. मुङो दूर तक कल्पना नहीं थी कि मुङो अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपा जायेगा. उस समय मुङो घोर आश्चर्य हुआ, जब सभा ने मुङो प्रारूप समिति के लिए चुन लिया. जब प्रारूप समिति ने मुङो उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया, तो मेरे लिए यह आश्चर्य से भी परे था.’

लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर दलितों जातियों के उत्थान के लिए उनका मूलमंत्र था- ‘शिक्षित बनो, संघर्ष करो और संगठन बनाओ.’ आजादी की उस विहान-वेला में वे इस तथ्य को जानते थे कि भारत राजनीतिक रूप से लोकतंत्र की राह पर चल पड़ा है और ऊंच-नीच के भेद को खत्म करते हुए एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत मान लिया गया है, पर वर्ण-व्यवस्था के नियमों के भीतर चलनेवाले भारतीय समाज में अभी व्यक्ति की बराबरी के सिद्धांत की स्वीकृति शेष है. भारतीय लोकतंत्र के इस अंतर्विरोधी स्वभाव की पहचान के कारण ही उन्होंने दलितों के लिए शिक्षा, संघर्ष व संगठन का रास्ता सुझाया. शिक्षा के बगैर व्यक्ति अन्याय के स्वरूप की ठीक-ठीक पहचान न करने की वजह से स्वतंत्रता का सही मोल नहीं आंक सकता. स्वतंत्रता बिना संघर्ष के नहीं मिलती और संघर्ष की सफलता के लिए लोकतंत्र के भीतर रास्ता एक ही है- संगठित होकर अपने हितों की दावेदारी करना.

बाबा साहब की जन्मतिथि के मौके पर पूछा जाना चाहिए कि आजादी के छह दशक बाद भारत अपने लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्विरोधी चरित्र को किस सीमा तक हल कर पाया है. दूसरे शब्दों में, एक ऐसे समय में जब दलितों-हितों की सक्रिय राजनीति स्वयं संगठित होकर दलितों के सशक्तीकरण के पक्ष में मजबूती से खड़ी है, तो इस बात की परीक्षा की जानी चाहिए कि राजनीति में स्वीकृत ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ का सिद्धांत समाज में कहां तक व्यक्ति-व्यक्ति के बीच बराबरी के भाव जगा पाया और इसके लिए अवसरों का विस्तार कर पाया है? इस प्रश्न के उत्तर के सहारे यह जाना जा सकेगा कि दलितों की हिमायती या फिर खास दलित हितों की नुमाइंदगी करनेवाली पार्टियां देश में मौजूद राजनीतिक लोकतंत्र के सहारे बाबा साहब की मंशा के अनुरूप सचमुच सामाजिक लोकतंत्र कायम कर पायी हैं, या फिर समय बीतने के साथ बाबा साहब के नाम का राजनीति के दायरे में सिर्फ एक ब्रांड की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है और मुख्यधारा के भीतर दलित हितों की राजनीति करनेवाली पार्टियां सामाजिक समता साधने के बुनियादी काम में पिछड़ रही हैं.

इस प्रश्न के सुनिश्चित उत्तर तक पहुंचने के लिए एक बड़ी समीक्षा की जरूरत है, तो भी बहुत थोड़े में दो-तीन तथ्यों पर नजर डाल कर एक कामचलाऊ अनुमान लगाया जा सकता है. पहला तथ्य स्वयं बाबा साहब के चुनावी-गठबंधन विषय कार्यक्रम से जुड़ा है. उन्होंने स्वतंत्र भारत में संगठित दलित राजनीति की नींव डाली और शिड्यूल कास्ट फेडरेशन कायम किया. इस फेडरेशन ने 1951 में यानी पहली लोकसभा के चुनाव (1952) से तुरंत पहले जयप्रकाश नारायण की अगुवाई वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से साङोदारी की बात चलायी. फेडरेशन के मेनिफेस्टो में साफ कहा गया था कि वह हिंदू महासभा या जनसंघ जैसे प्रतिक्रियावादी संगठनों से गठजोड़ नहीं करेगा. इस तथ्य की तरफ दलित चिंतक गोपाल गुरु ने अपने एक शोध-लेख में ध्यान दिलाया है.

इस स्थिति की तुलना आज की राजनीति से करें तो यह तथ्य तनिक अटपटा लगेगा कि खास दलित-उत्थान की प्रतिबद्धता के आधार पर बने राजनीति दल हिंदू महासभा और जनसंघ के नये अवतार भाजपा के साथ राजनीतिक गठजोड़ करने में रंचमात्र हिचक नहीं दिखाते. मिसाल के लिए, हाल में उदित राज और रामविलास पासवान सरीखे दलित राजनीति के चर्चित और महत्वपूर्ण हस्तियों का बीजेपी के पाले में जाना या इससे बहुत पहले ‘तिलक-तराजू-तलवार’ के प्रतीक से सूचित होनेवाली अगड़ी जातियों के बरक्स दलित हितों की नुमाइंदगी की सफल राजनीति करनेवाली मायावती का भाजपा के समर्थन से सरकार बनाना और बाद में बहुजन की राजनीति को सर्वजन की राजनीति बनाने की राह पर लगाते हुए, प्रत्याशी के तौर पर या फिर महत्वपूर्ण पदों पर अगड़ी जाति के लोगों को स्थापित करना.

दूसरा तथ्य इस बात की जांच से जुड़ा है कि दलित हित से प्रेरित राजनीति क्या जाति-व्यवस्था के समूल नाश के लिए काम कर रही है, जो बाबा साहब का सपना था? 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि निवारक कानून बन जाने के बावजूद देश में दलित जाति के कुछ सदस्य मैला ढोने की अवमानना भरी प्रथा से अभी मुक्त नहीं किये जा सके हैं. आंकड़ों के अनुसार देश में परंपरागत तौर पर तकरीबन 8 लाख व्यक्ति मैला ढोने के काम में लगे हैं और इस मामले में भी दलित हित की राजनीति करके सत्ता में आये दल पीछे दिखते हैं. मिसाल के लिए, मायावती की राजनीति के गढ़ उत्तर प्रदेश में मैला ढोनेवाले दलित जाति के व्यक्तियों की संख्या अन्य राज्यों की तुलना में बहुत ज्यादा (3.2 लाख है) है. बाबा साहब की पूरी राजनीति जाति-व्यवस्था के समूल नाश की थी. तभी उन्होंने कहा था- ‘भारत में कोई मैला ढोने के कारण मेहतर नहीं कहलाता, बल्कि एक जाति के भीतर पैदा होने की वजह से मेहतर माना जाता है, चाहे वह कोई और पेशा क्यों न करे.’ इन शब्दों और मैला ढोने की जारी प्रथा के आलोक में आज की दलित राजनीति के बारे में यह शक जाहिर किया जा सकता है कि वह बाबा साहब का नाम तो इस्तेमाल करती है, लेकिन उनके राजनीतिक उद्देश्यों को ठीक से नहीं साध पा रही.

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