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गोरखालैंड व बोरोलैंड आंदोलन में अंतर

सिलीगुड़ी : गोरखालैंड, तेलंगाना और बोरोलैंड अलग राज्य की मांग को एक ही चश्में से देखने से पहले पुनर्विचार करने की जरूरत है. कारण आसाम का आंदोलन आसामी भाषा और सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक अधिकार से जुड़ा है. तेलंगाना की भी यही स्थिति है. लेकिन नेपाली भाषा -भाषी को बंगाल में ‘अस्मिता संकट’ के रूप में […]

सिलीगुड़ी : गोरखालैंड, तेलंगाना और बोरोलैंड अलग राज्य की मांग को एक ही चश्में से देखने से पहले पुनर्विचार करने की जरूरत है. कारण आसाम का आंदोलन आसामी भाषा और सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक अधिकार से जुड़ा है.

तेलंगाना की भी यही स्थिति है. लेकिन नेपाली भाषा -भाषी को बंगाल में ‘अस्मिता संकट’ के रूप में नहीं देख सकते. कारण नेपाली में शिक्षा-दीक्षा के साथ हर तरह की सुविधा है.

चाहे, राजनैतिक हो, आर्थिक हो या सामाजिक. लेकिन अस्मिता का हवाला देकर इस आंदोलन को अक्रामक तेवर के रूप में रखा जा रहा है. यह कहना है कृष्णा वर्मन का. गौरतलब है कि सिलीगुड़ी कॉलेज व प्रेमचंद महाविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया.

यह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रायोजित है. इसका विषय था-‘समकालीन उत्तर बंगाल 1947 से 2011’.रविवार को समापन समारोह में उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय इतिहास विभाग के प्रो आनंद गोपाल घोष और ढाका विश्वविद्यालय के प्रो. रतनलाल चक्रवर्ती की अध्यक्षता में विभिन्न कॉलेज व विश्वविद्यालय के व्याख्याता ने अपना पर्चा पढ़ा.

महिला महाविद्यालय की शर्मिला मैत्रो ने कहा कि उत्तर बंगाल में निजी उच्च शिक्षण संस्थान खुल रहे है. छात्रों को संवाद -शैली, व्यक्तित्व निमार्ण का गुढ़ सिखाने पर जोर दिया जाता है.

ताकि बाजार की मांग के अनुसार उसे शिक्षा मिले. वहीं दूसरी ओर से सरकारी मदद से चलने वाले शिक्षण संस्थान में 75 फीसदी उपस्थित रहने का फरमान तो जारी कर दिया जाता है, लेकिन कितने हद तक उसे पालन किया जाता है? सरकारी कॉलेज से पढ़ने वाले छात्र की तुलना में निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों को पहले नौकरी मिलती है. हम एकडिम जिम्मेदारियों के साथ छात्रों के भविष्य में विषय में भी सोचने की जरूरत है.

बागडोगरा कॉलेज, इतिहास विभाग के राकेश सिंह ने बताया कि बंगाल के बंटबारे और बंग्लादेश के निर्माण से उत्तर बंगाल में शरणार्थियों की संख्या बढ़ती गयी. इसका हमारे राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में प्रभाव पड़ा. राजनीतिक लाभ लेने के लिए शरणार्थियों को वोट के लिए बस इस्तमाल किया गया. लेकिन इस क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ा, कैसी समस्या हुई, शरणार्थियों को या यहां के मूल निवासियों, इसपर विचार नहीं किया. महिला महाविद्यालय की प्रोदिप्ता बोस ने अपने व्याख्यान में कहा कि उत्तर बंगाल प्राकृतिक सुषमा और वैभव से परिपूण है.

डुवार्स वास्तव में एशिया का दरवाजा है. लेकिन इसके प्रति सरकार उदासीन है. उत्तर बंग विकास मंत्री ने पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए बहुत सारी परियोजना की बात करते है, लेकिन अभी तक उसे पूरा होते हम देख नहीं पाये है. पर्यटन उद्योग के साथ प्राकृतिक सुषमा बची रहे, इसपर ध्यान देने की जरूरत है. सिलीगुड़ी कॉलेज के व्याख्याता अमिताभ कांजीलाल ने कहा कि दक्षिण बंगाल विशेष रूप से कोलकाता की नाट्य संस्थायें कोलोनियल विचार से विषय-वस्तु को देखती है. लेकिन लोक माटी, जमीनी समस्या से दो चार होने का प्रयास उत्तर बंगाल के नाट्य संस्थाओं में दिखायी पड़ता है.

उन्होंने कहा कि वर्त्तमान में नाट्य संस्थायओं पर राजनीति की छाया साफ देखी जा सकती है. उन्होंने कहा उत्तर बंगाल में महिला की समस्या पर बहुत कम नाटक रचे गये. महिलाओं के प्रति इस नजरिये में सुधार की जरूरत है. कार्यक्रम को सफल बनाने में डॉ श्यामल कुमार गुहा राय, समीर साहा, डॉ दिलीप कुमार दास, डॉ मलय कांति करंजयी, डालिया राय, अंजन झा आदि ने अपना सहयोग दिया.

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