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दीये के प्रकाश से जगमगा रही है कुम्हारों की जिंदगी, चाइनीज लाइट और मोमबत्ती की मांग में उछाल

सिलीगुड़ी : दीपावली को खुशियों का त्योहार माना जाता है. हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार वनवास के दिनों में रावण का संहार कर श्रीराम, माता सीता व लक्ष्मण अयोध्या वापस लौटे थे. अपने राजा के घर वापसी की खुशी में अयोध्या वासियों ने अपने घरों को मिट्टी के दीयों से सजाया था. तब से ही […]

सिलीगुड़ी : दीपावली को खुशियों का त्योहार माना जाता है. हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार वनवास के दिनों में रावण का संहार कर श्रीराम, माता सीता व लक्ष्मण अयोध्या वापस लौटे थे. अपने राजा के घर वापसी की खुशी में अयोध्या वासियों ने अपने घरों को मिट्टी के दीयों से सजाया था. तब से ही दीपावली का त्योहार प्रचलन में आया.
इस दिन हिन्दू धर्म को मानने वाले अपने घर तथा आंगन को दीये से सजाते हैं. इसके अलावे रात के वक्त धन-संपत्ति के लिए माता लक्ष्मी तथा श्री गणेश की पूजा भी करते हैं. लेकिन समय के साथ-साथ रीति-रिवाज भी बदलने लगे हैं.आधुनिकता की छाप हर जगह देखने को मिल रही है.
स्वभाविक रूप से दीपावली त्योहार भी इससे अछूता नहीं है. इस आधुनिक युग में मिट्टी के दीयों की जगह चाइनीज लाइट ने ले ली है. दीपावली पर दीया जलाना केवल रिवाज बनकर रह गया है. जिससे इन दीयों को बनाकर जीवन निर्वाह करने वाले लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.
सिलीगुड़ी शहर के हैदरपाड़ा संलग्न चयनपाड़ा,पालपाड़ा इलाके को मिट्टी के बर्तन व दीया बनाने वालों का गढ़ कहा जाता है. यहां तैयार मिट्टी के बर्तन, दीये तथा अन्य सजावट की सामग्रियों को सिलीगुड़ी तथा उसके आसपास के इलाकों में भेजा जाता है. दीपावली के भी अब गिने चुने कुछ दिन ही रह गये हैं. जिसे ध्यान में रखते हुए कुम्हारों में काफी व्यस्तता देखी जा रही है. उस इलाके में बच्चे से लेकर बड़े तक दीयों को तैयार कर उसे सुखाने में लगे हैं.
जिससे वे त्योहारों के इस मौसम में कुछ आमदनी कर सकें. इस संबंध में इलाके के सुभाष पाल तथा अन्य ने बताया कि मिट्टी के दीयों का निर्माण कर उसे बाजार तक पहुंचाने में मेहनत के साथ काफी वक्त भी लगता है. पहले कलाकार चाक पर गिली मिट्टी रखकर उससे दीया तैयार करते हैं.फिर कच्चे दीये को धूप में सुखाकर एक निर्धारित समय के लिए भट्टी में पकने के लिये छोड़ दिया जाता है.
जिसके बाद दीये बाजार में बिकने के लिए तैयार होते हैं. उन्होंने बताया कि सिलीगुड़ी सहित आसपास के इलाकों में वह दीये बनाकर भेजते हैं. मगर पहले के मुकाबले मिट्टी के इन दीयों की मांग लगातार कम हो रही है. लोग अब सिर्फ रिवाज निभाने के लिए मिट्टी के दीये खरीदते हैं. बाकी दीपावाली पर पूरे घर को चाइनीज लाइट तथा आधुनिक मोमबत्ती से सजाते हैं.
लेकिन आज से 15-20 वर्ष पहले ऐसा नहीं था. तब दुर्गा पूजा से पहले ही कुम्हार दीयों का निर्माण कार्य शुरु कर देते थे. मगर अब समय के साथ इसकी मांग घटती जा रही है. उसपर भी समस्या यह है कि दीये के सही दाम भी नहीं मिलते. दीये बनाकर उसे बेचने पर खास लाभ नहीं मिल पाता है. जिस वजह से घर चलाने में भी परेशानी हो रही है. इन्हीं वजहों से कई लोग इस पेशे को छोड़ कर अन्य कामों में जुट गये हैं. जिससे धीरे-धीरे यह कला भी लुप्त होने के कगार पर है.

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