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पुरुषों के गढ़ में मूर्तियां गढ़ती हैं महिलाएं, कुम्हारटोली में चार महिलाएं पुरुषों को दे रही है टक्कर

कोलकाता : महानगर की पहचान दुर्गापूजा से है. पूजा में अब लगभग दो महीने शेष रह गये हैं. ऐसे में दुर्गा प्रतिमा बनाने का कार्य जोर शोर से चल रहा है. शोभाबाजार स्थित कुमारटोली को मूर्तिकारों का सबसे बड़ा मोहल्ला माना जाता है. यहां साल भर देवी देवताओं की मूर्ति तैयार की जाती है. देवी […]

कोलकाता : महानगर की पहचान दुर्गापूजा से है. पूजा में अब लगभग दो महीने शेष रह गये हैं. ऐसे में दुर्गा प्रतिमा बनाने का कार्य जोर शोर से चल रहा है. शोभाबाजार स्थित कुमारटोली को मूर्तिकारों का सबसे बड़ा मोहल्ला माना जाता है. यहां साल भर देवी देवताओं की मूर्ति तैयार की जाती है. देवी दुर्गा के आगम के कई महीने पहले से ही कुमारटोली की तंग गलियों में कलाकारों की व्यस्तता बढ़ जाती है.
वे दिन-रात मेहनत कर दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती तथा कार्तिक की प्रतिमाओं अंतिम रूप देने में जुट जाते हैं. महानगर में मूर्तियो‍ं को बनाने में पुरुषों का एकछत्र राज माना जाता है. लेकिन इस स्थान पर महिलाएं कारीगर भी है‍ं, जो मूर्ति बनाने के मामले में पुरुष को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं. कोलकाता के इस कुमारटोली में करीब साढ़े तीन सौ से चार सौ पुरुष मूर्तिकार और मात्र चार महिला कलाकार हैं. लेकिन ये चार महिलाएं पुरुष कोे इस गढ़ में घुस कर उन्हे‍ं मूर्ति बनाने के मामले में कड़ी चुनौति दे रही हैं.
हम यहां कांछी पाल, माला पाल, काकुली पाल व चायना पाल की बात कर रहे हैं. मूर्तियों को गढ़ने के मामले चार एक से बढ़ एक हैं और चारों की संघर्ष की कहानी भी अलग-अलग है. कुमारटोली में मूर्तियां बनाने का काम सदियों से पुरुषों के हाथों में रहा है. यहां काम करनेवाले भी मानते हैं कि मूर्तियां बनाना महिलाओं के वश की बात नहीं है. लेकिन इन चारों महिलाओं ने अपनी मेहनत व लगन से इस धारणा को गलत साबित कर दी है.
पिता की मौत के बाद परिवार चलाने के लिए आयी इस पेशे में : चायना पाल 20 वर्षों से तमाम देवी-देवताओं की मूर्तियां गढ़ रही हैं. दरअसल मूर्ति गढ़ने के क्षेत्र में कदम रखना चायना के लिए एक हादसा था. 1994 में उसके मूर्तिकार पिता हेमंत कुमार पाल का दुर्गापूजा के ठीक दो सप्ताह पहले निधन हो गया. उस समय वे कई जगह मूर्तियां सप्लाई करने के आर्डर ले चुके थे.
तब चायना मात्र 23 साल की थी, तब चायना को इस कला के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी. इसके बावजूद उसने अधूरी मूर्तियों को पूरा किया. चायना बताती है कि शुरूआत में बेहद दिक्कत हुई. उसने अपने पिता से यह कला नहीं सीखी थी. उसे सब कुछ नए सिरे से सीखना पड़ा. अब चायना इस कार्य में परिपक्व हो चुकी है.

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